द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध के कारण एवं परिणाम

द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 

द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 1852 ईस्वी में हुआ था। पहले बर्मा युद्ध का अंत याण्डबू की संधि से हुआ था, लेकिन यह संधि बर्मा के इतिहास में अधिक प्रभावी साबित नहीं हुई और समाप्त हो गई। इस संधि की विफलता का कारण यह था कि संधि के बाद कुछ अंग्रेज व्यापारी बर्मा के दक्षिणी तट पर बस गए और वहां से अपने व्यापार का संचालन शुरू किया। कुछ समय बाद, इन व्यापारियों ने बर्मा सरकार के निर्देशों और नियमों का उल्लंघन करना शुरू कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, बर्मा सरकार ने इन व्यापारियों को दंडित किया। इसके फलस्वरूप, अंग्रेज व्यापारियों ने 1851 ईस्वी में अंग्रेजी शासन से सहायता मांगी।

द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध के कारण एवं परिणाम

द्वितीय बर्मा युद्ध के कारण

(1) व्यापारिक महत्वाकांक्षा

ईस्ट इंडिया कंपनी बर्मा के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों, विशेषकर सागौन और रबर, पर अधिकार करना चाहती थी। बर्मा के साथ व्यापारिक संधियाँ भी इसी उद्देश्य से की गई थीं।

(2) वर्चस्व और विस्तारवाद

ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तारवादी नीतियों के तहत दक्षिण-पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। बर्मा की भौगोलिक स्थिति और उसके संसाधन इसके लिए महत्वपूर्ण थे।

(3) सीमा विवाद

बर्मा और ब्रिटिश भारत के बीच सीमा विवाद और बर्मा के शासकों द्वारा ब्रिटिश क्षेत्रों में घुसपैठ भी इस युद्ध का एक प्रमुख कारण थे।

(4) पहले बर्मा युद्ध के परिणाम

पहले बर्मा युद्ध (1824-26) के बाद, ब्रिटिशों ने बर्मा के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद भी तनाव और असंतोष बने रहे, जो द्वितीय बर्मा युद्ध का कारण बना।

(5) अराजकता और अस्थिरता

बर्मा में आंतरिक अस्थिरता और कमजोर प्रशासन ने भी ब्रिटिशों को हस्तक्षेप करने का अवसर दिया।

(6) ब्रिटिश प्रतिष्ठा

ब्रिटिश साम्राज्य अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने और अन्य औपनिवेशिक शक्तियों को प्रभावित करने के लिए भी बर्मा पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता था। 

इन सभी कारणों के परिणामस्वरूप द्वितीय बर्मा युद्ध हुआ, जिसने बर्मा को ब्रिटिश भारत का एक प्रांत बना दिया। 

द्वितीय बर्मा युद्ध के परिणाम

द्वितीय बर्मा युद्ध (1852-53) के कई महत्वपूर्ण परिणाम थे

(1) ब्रिटिश विजय

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने युद्ध में विजय प्राप्त की, जिससे बर्मा के बड़े हिस्से पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया।

(2) निचला बर्मा का अधिग्रहण

निचला बर्मा, जिसमें पगान, मोउल्म्याइन और रंगून जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र शामिल थे, ब्रिटिश भारत का एक प्रांत बन गया। इसे औपनिवेशिक प्रशासन के तहत लाया गया।

(3) आर्थिक और वाणिज्यिक नियंत्रण

ब्रिटिशों ने बर्मा के प्रमुख प्राकृतिक संसाधनों, जैसे सागौन और रबर, पर नियंत्रण स्थापित किया। इसके साथ ही व्यापार और वाणिज्यिक गतिविधियों पर भी उनका प्रभुत्व हो गया।

(4) बर्मी समाज और संस्कृति पर प्रभाव

ब्रिटिश शासन ने बर्मी समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला। पारंपरिक प्रशासनिक और सामाजिक ढांचे में परिवर्तन हुए, जिससे स्थानीय समाज में असंतोष उत्पन्न हुआ।

(5) राजनीतिक अस्थिरता

ब्रिटिशों के अधिग्रहण से बर्मा में राजनीतिक अस्थिरता और विद्रोह की भावना बढ़ गई। कई स्थानीय नेता और नागरिक ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करने लगे।

(6) प्रशासनिक परिवर्तन

ब्रिटिशों ने निचले बर्मा में अपना प्रशासनिक ढांचा स्थापित किया। उन्होंने आधुनिक प्रशासन, न्यायिक प्रणाली और बुनियादी ढांचे का विकास किया।

(7) भविष्य के संघर्षों की नींव

द्वितीय बर्मा युद्ध और इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश अधिग्रहण ने भविष्य के संघर्षों और बर्मा के स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी। बर्मा के लोग ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करते रहे, जिससे अंततः 1948 में बर्मा को स्वतंत्रता मिली। 

निष्कर्ष 

द्वितीय बर्मा युद्ध ने बर्मा की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया और इसे ब्रिटिश साम्राज्य के तहत लाने का मार्ग प्रशस्त किया।

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