सामाजिक संरचना
सामाजिक संरचना का तात्पर्य; सामाजिक संरचना की अवधारणा समाजशास्त्र की प्रमुख अवधारणा मानी जाती है। समाज विभिन्न संस्थाओं, समूह, वर्गों, परंपराओं और रीति रिवाज की योग से बनता है। यह सभी बातें मिलकर समाज को एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप प्रदान करती है। इसी क्रमबद्ध स्वरूप को सामाजिक संरचना का नाम दिया जाता है। अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक संरचना, समाज के विभिन्न अंगों की वह व्यवस्थित क्रमबद्धता है जो कि समाज विशेष में एक समय विशेष पर सामाजिक संस्थाओं, स्थितियों, भूमिकाओं आदि के एक निश्चित ढंग से संबंध हो जाने के फलस्वरूप उत्पन्न होती है; अतः संरचना का तात्पर्य व्यवस्थित ढांचे से है। सामाजिक संरचना में संगठन का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। संगठन सामाजिक जीवन को संचालित करने के लिए आवश्यक होता है और समाज की संरचना को सुदृढ़ बनाने में मदद करता है। संगठन न केवल समाज को संगठित रूप में रखता है, बल्कि उसे विभिन्न गतिविधियों का संचालन करने में भी सहायक होता है। सामाजिक संरचना के विभिन्न पहलुओं को समझने और सुधारने के लिए संगठन अभीष्ट है।
सामाजिक संरचना की प्रमुख समस्याएं
पारसन्स के अनुसार प्रत्येक सामाजिक संरचना को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए चार प्रकार्यात्मक समस्याओं का समाधान करना पड़ता है। इन्हें प्राकार्यत्मक पूर्व आवश्यकता है अथवा प्रवाह कार्यात्मक उप-व्यवस्थाएं भी कहा जाता है। यह प्रकार्यात्मक समस्याएं कुछ निम्नलिखित हैं—
(1) प्रतिमान स्थायित्व और तनाव प्रबंध
प्रति मानव में स्थाई तो बनाए रखने तथा व्यक्तियों में पैदा होने वाले उद्वेतात्मक तनाव बुक प्लीज इत्यादि को दूर करने के लिए प्रत्येक व्यवस्था में कुछ यंत्र होते हैं जो असंतुलन पैदा नहीं होने देते। इस प्रकार्यात्मक समस्या का समाधान समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। परिवार समाजीकरण का प्रमुख अभिकरण है। परिवार सदस्यों में पैदा होने वाले तनाव को समाजीकरण द्वारा कम करता है। इस आवश्यकता की पूर्ति में शिक्षण संस्थाएं, धार्मिक समूह, मनोरंजन समूह तथा अस्पताल इत्यादि की सहायता प्रदान करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्तित्व में सांस्कृतिक प्रतिमानों के आंतरीकरण द्वारा प्रतिमान स्थायित्व की भूमिका निभाती है। आंतरीकरण के बाद इन संस्कृत प्रतिमानों को संस्कार तथा प्रतीक बनाए रखते हैं।
(2) अनुकूलन
सामाजिक व्यवस्था की दूसरी प्रकार्यात्मक आवश्यकता अनुकूलन की है। सभी व्यवस्थाएं सुनने में कार्य नहीं करती अपितु उनका एक सामाजिक और गैर सामाजिक पर्यावरण होता है जिनके साथ उन्हें अनुकूलन करना पड़ता है। अनुकूलन के इस कार्य में आर्थिक उप व्यवस्था तथा श्रम विभाजन की व्यवस्था महत्वपूर्ण योगदान देती है। आर्थिक उप व्यवस्था पर्यावरण से अनुकूलन तथा उसे नियंत्रित करने में सहायक है तो श्रम विभाजन वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन द्वारा कार्य कुशलता में वृद्धि करके अनुकूलन में सहायक होता है।
(3) लक्ष्य प्राप्ति
प्रत्येक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक आवश्यकता लक्ष्यों या उद्देश्यों की प्राप्ति करना है। सबसे बड़ा लक्ष्य किसी भी व्यवस्था के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखने का अथवा राष्ट्रीय सुरक्षा का है। सभी अंग अपना कार्य ठीक प्रकार से करके इसे बनाए रखते हैं। सामाजिक तथा गैर सामाजिक पर्यावरण के साथ अनुकूलन तथा मानवीय मानवीय साधनों का अत्यधिक प्रयोग लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होता है। लक्ष्य प्राप्ति का कार्य मुख्य रूप से राज्य व्यवस्था तथा सरकार करते हैं।
(4) एकीकरण
एकीकरण के लिए व्यवहार के प्रति आस्था या वफादारी तथा पारस्परिक सहयोग जरूरी है। इस एकता और नैतिकता की समस्या भी कहा जाता है। पारसंस तथा स्मेलसर के अनुसार एकता की दृष्टि से वकील, धार्मिक नेता, पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
निष्कर्ष
इन सभी उपर्युक्त विवेचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि पारसन्स ने सामाजिक संरचना की अवधारणा को स्पष्ट करने तथा संरचनात्मक-प्राकार्यत्मक पद्धति को अधिक उपयोगी बनाने में विशेष योगदान दिया है। परंतु कुछ विद्वानों का कहना है कि पारसन्स ने अपने संरचनात्मक-प्राकार्यत्मक दृष्टिकोण में सामाजिक संरचना एवं सामाजिक व्यवस्था में कोई विशेष अंतर नहीं किया है। कुछ भी हो, सामाजिक संरचना की अवधारणा के साथ आज भी पारसन्स का नाम अनिवार्य रूप से लिया जाता है।
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