भूमि संसाधन
भूमि संसाधन भारत का विशाल एवं विविधतापूर्ण आकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधन है। कुल भूमि का लगभग 43% मैदानी क्षेत्र खेती के लिए अनुपयुक्त आधार प्रदान करता है। लगभग 30% पर्वतीय भाग प्राकृतिक संसाधनों का भंडारण गृह है तथा दृश्य सौंदर्य एवं पारिस्थितिक पहलू से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत के 27 प्रतिशत भू क्षेत्र में पठारों का विस्तार है। यहाँ खनिज भंडारों के अतिरिक्त वनों एवं कृषि भूमिका अस्तित्व भी है। पर्वतीय एवं पठारी भागों में उपजाऊ नदी घाटियाँ भी पाई जाती है, जहाँ मानवीय संकेद्रण के लिए उपयुक्त वातावरण पाया जाता है। हालांकि भूमि एक सीमित संसाधन है और बढ़ती मानव एवं जंतु आबादी ने साल दर साल भूमि उपलब्धता में कमी की है। 1951 में प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 0.89 हेक्टेयर थी, 1991 में यह घटकर 0.37 हेक्टेयर रह गई और 2035 तक इसके 0.20 हेक्टेयर रह जाने की प्रक्षेपित किया गया है।
संसाधन के रूप में भूमि
भूमि सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन, जिस पर सभी मानव गतिविधि समय से आधारित होती है। भूमि संसाधन हमारी बुनियादी संसाधन है। भूमि संसाधनों में उन सभी सुविधाओं और भूमि की प्रक्रियाएँ शामिल हैं, जो किसी भी तरह से कुछ मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है।
भूमि उपयोग कृषि के किसी क्षेत्र द्वारा उपयोग को सूचित करता है। सामान्यतः जमीन के हिस्से पर होने वाले आर्थिक क्रियाकलाप को सूचित करते हुए उसे वन भूमि, कृषि भूमि, प्रति चरागाह इत्यादि वर्गों में बाँटा जाता है और अधिक तकनीकी भाषा में भूमि उपयोग को किसी विशिष्ट भू–आवरण प्रकार की रचना, परिवर्तन अथवा संरक्षण हेतु मानव द्वारा उस पर किए जाने वाले क्रियाकलापों के रूप में परिभाषित किया गया है।
अगर भूमि का उपयोग विवेक के साथ किया जाए तो उसे नवीकरणीय संसाधन माना जा सकता है। अगर वन कम हुए या चरागाहों में अत्यधिक चराई हुई तो जमीन अर्नुवरक हो जाएगी और ऊसर बन जाएगी। सघन सिंचाई से जल भराव होता है और मिट्टी खारी हो जाती है, जिसमें फसल नहीं उगाई जा सकती। भूमि पर विषाक्त औद्योगिक एवं परमाण्विक अपशिष्ट फेंक दिए जाए तो वही भूमि अनवीकरणीय संसाधन बन जाती है।
भूमि का ह्रास
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2004 से 2005 के अनुसार देश के 3290 हेक्टेयर क्षेत्र का लगभग 1730 लाख हैक्टेयर क्षेत्र निम्नीकरण से प्रभावित है। दुर्भाग्यवश अधिकतर निम्नीकरण मानव जनित है। भू–निम्नीकरण के कुछ पहलुओं का विवेचन इस प्रकार है—
(1) कुप्रबंधन द्वारा उर्वरकता का क्षय
तेजी से बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से मानव द्वारा सिंचाई सुविधाओं, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग के माध्यम से आधिकारिक फसल उत्पादन प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही कुछ अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ भी अभी तक प्रचलन में है। अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियों के प्रचलन के परिणामस्वरुप मृदा अपरदन, प्राकृतिक पोषकों की कमी, जलाक्रांति व क्षारीयता तथा भूमिगत व सतही जल के प्रदूषण जैसी समस्याऐं उत्पन्न हुई है।
(2) मृदा अपरदन
मिर्जा के कटाव और उसके बहन की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं। वनोन्मूलन, सघन कृषि, अति पसुचारण, भवन निर्माण और अन्य मानव क्रियो के कारण मृदा का अपरदन तेजी से हो रहा है। मृदा अपरदन कूटने के लिए मृदा संरक्षण की आवश्यकता है। इसके लिए कई उपाय किए जा सकते हैं। वन रोपण एक मुख्य उपाय है जिससे मृदा संरक्षण किया जा सकता है, क्योंकि पेड़ों की जड़ें मृदा की ऊपरी सतह है को बचाए रखती है। ढा़ल वाली जगह पर समोच्च जुदाई से मृदा के अपरदन को रोका जा सकता है।
निष्कर्ष
मृदा कृषि का आधार है। यह मनुष्य के आधारभूत आवश्यकताओं, यथा- ईंधन तथा चारे पूर्ति करती है। इतनी महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी मिट्टी के संरक्षण के प्रति उपेक्षित दृष्टिकोण अपनाया जाता है। यदि कहीं सरकार द्वारा प्रबंधन करने की कोशिश भी की गई है तो अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया गया है। सबसे ऊपरी परत का क्षय होने का अर्थ है— समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं हेतु मिट्टी का बेकार हो जाना। मृदा अपरदन प्रमुख रूप से जल व वायु द्वारा होता है। यदि जल व वायु का व्यक्तित्व होगा तो अपरदन की प्रक्रिया भी तीव्र होती है। देश में 80 मिलियन हेक्टेयर भूमि मृदा अपरदन की खतरे की परिधि में शामिल है तथा 45 मिलियन हेक्टेयर भूमि वास्तविक रूप से प्रभावित है।
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