तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध
तृतीय आंग्ल बर्मा युद्ध - अभी तक अपने अध्ययन किया कि 1852 ई निकले बर्मा पर अंग्रेजों के अधिकार के पश्चात दोनों के संबंध सुधरने लगे और ऐसा लग रहा था कि ब्रिटिश भारतीय प्रशासन तथा वर्मा के संबंध मधुर रहेंगे। परंतु अंग्रेजन की लालची निगाहें बर्मा पर थी जो 1885 ई आते-आते पुणे युद्ध के कगार पर पहुंच गई और एक निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें उद्देश्य था संपूर्ण वर्मा पर अधिकार करना।
तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध के कारण
(1) भिन्न-भिन्न संधियों के कारण
द्वितीय आंग्ल वर्मा युद्ध के पश्चात अंग्रेजों की मंशा की तात्कालिक पूर्ति तो हो गई, लेकिन दीर्घकाल तक उनकी इच्छा शांत न रह सकी। धीरे-धीरे वर्मा एवं भारत के बीच अनेक संधियां हुई। 1862 ईस्वी में हुई एक संधि के अनुसार अंग्रेजों को वर्मा सीमा में पश्चिमी तथा वर्मा होकर चीन से व्यापार की छूट मिल गई। इसी प्रकार, 1868 में वर्मा ने अंग्रेजों के पक्ष में लकड़ी, तेल तथा कीमती पत्रों के व्यापार का एक अधिकार छोड़ दिया।
(2) अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कारण
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कारण भी वर्मा और अंग्रेजों के बीच तनाव बड़ा। अन्य साम्राज्यवादी यूरोपीय देश भी वर्मा में अपना व्यापार तथा प्रभाव बढ़ाना चाहते थे। बर्मा का राजा भी ऐसा चाहता था। 1874 में बरमानी फ्रांस से एक संधि के द्वारा बर्मा सैनिकों के परीक्षण का प्रस्ताव रखा। अंग्रेजों के विरोध के कारण इस प्रस्ताव को छोड़ना पड़ा।
(3) ब्रिटिश रेजिडेंट द्वारा राजा का विद्रोह
बर्मा का शासक बना थीबा, जो काफी उत्साहित एवं साहसी था। भारत में गवर्नर जनरल लिटन ने अग्रगामी साम्राज्यवादी नीति प्रारंभ कर रखी थी। इसलिए, अंग्रेजों ने बर्मा के नए शासक के सामने नई मांगों को छोड़ दिया। वे थीबा नीरज दरबार में जूते उतारकर प्रवेश करने की परंपरा को समाप्त करने की मांग को छोड़ दिया और सभी सुविधाएं प्रदान कर दी। 1979 में थीबा पर राज दरबार के कुछ व्यक्तियों के विरुद्ध हत्या के आरोप लगे।
(4) थीबा की वैदेशिक नीति से अंग्रेज नाखुश
थीबा की वैदेशिक नीति से अंग्रेज खुश नहीं थे। वह अन्य यूरोपीय शक्तियों से संबंध स्थापित करना चाहता था। 1883 में उसने एक दूत मंडल फ्रांस भेजा। अंग्रेजों ने स्पष्ट कर दिया कि यह मिशन केवल व्यापारिक होना चाहिए। 1885 में हुई विशुद्ध व्यापारिक संधि को भी अंग्रेजों ने शंका की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। एक अफवाह के अनुसार वर्मा ने फ्रांस को रेल निर्माण, हीरे के खनन का अधिकार आदि प्रदान कर दिया था। अंग्रेज भारती फ्रांसीसी प्रभाव से चिंतित थे तथा इसे अपनी व्यापारिक एकाधिकार में हस्तक्षेप माना। इसलिए व्यापारिक वर्ग ने ब्रिटिश प्रशासन पर वर्मा को जीतने का दबाव बढ़ता प्रारंभ किया।
तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध की लड़ाइयां (घटनाएं)
इस प्रकार आपने अध्ययन किया कि 1852 के बाद अंग्रेजों की अनुचित मांगों को मानने के बावजूद भी बर्मा पर 1885 ई• में दबाव बनाकर उसकी आंतरिक एवं विदेश नीति पर नियंत्रण का प्रयास अंग्रेजों ने किया और असफल होने पर युद्ध की घोषणा कर दी। शीघ्र ही अंग्रेजों ने मॉडले पर अधिकार कर लिया तथा बर्मा के शासक थीबा में आत्मसमर्पण कर दिया। अपने ही महल में बंदी के रूप में रहा, जिसे बाद में महाराष्ट्र के रत्नागिरी नामक स्थान पर राजनीतिक कैदी के रूप में रखा गया। 1 जनवरी 1886 ई में ऊपरी बर्मा को भी ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में शामिल करने की घोषणा की गई। इसके परिणामस्वरूप, पूरे बर्मा पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया। इस प्रमुख युद्ध का समापन दो महीने के भीतर हो गया।
तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध के परिणाम
तृतीय आंग्ल बर्मा युद्ध जो 1885 ईस्वी में लड़ा गया काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ। उपरि बर्मा को अधिकृत कर लिया गया जिससे संपूर्ण बर्मा पर अंग्रेजों का एकाधिकार स्थापित हो गया। अंग्रेजों ने रंगून को बर्मा की नई राजधानी बनाई। इस समय ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा चीन तक विस्तृत हो गई। बर्मा को भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य में एक राज्य का दर्जा दिया गया। इस युद्ध के परिणामस्वरुप संपूर्ण पूर्वी भारतीय समुद्र तट तथा बंगाल की खाड़ी पर अंग्रेजों का अधिकार पूर्ण हो गया।
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