राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत | प्रमुख तत्व, उपयोगिता तथा आलोचना

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत

राज्य की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह एक रहस्य पूर्ण तथा विवादों से घिरा हुआ विषय है। राजनीतिक चेतना के उदय से संबंधित परिस्थितियों के विषय में हमें वास्तव में कोई ज्ञान नहीं है। चूंकि आधुनिक राज्य लंबे विकास का परिणाम है, अतएव इसकी उत्पत्ति के संदर्भ में इतिहास तथा समाजशास्त्र की अभिलेखों का अध्ययन करना आवश्यक माना जाता है। इस दृष्टि से राज्य की उत्पत्ति के संबंध में कुछ प्रमुख सिद्धांत उभर कर सामने आए हैं। हम इस लेख में राज्य की उत्पत्ति के देवी सिद्धांत का अध्ययन करेंगे। 

राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त

राज्य की उत्पत्ति के बारे में दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत सबसे प्रथम या पुराना सिद्धांत है। यह राजू को देवी निर्मित अथवा ईश्वरीय निर्मित संस्था मानता है। यह सिद्धांत हमें बतलाता है कि ईश्वर राजा के रूप में अपने प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है, इसलिए, वह राजा के प्रति उत्तरदाई है, न कि आम जनता के प्रति। आम जनता का प्रमुख कर्तव्य है कि वे राजा की आज्ञाओं का पालन करें।

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का समर्थन में विभिन्न धर्म 

राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का समर्थन विविध धर्म ग्रंथो में भी किया गया है। हिंदू, यहूदी, ईसाई, मुसलमान तथा विश्व के अन्य सभी धर्म के लोग इस मत को मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता ईश्वरीय वरदान है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन सर्वप्रथम इकाइयों के धर्म ग्रंथ ‘न्यू टेस्टामेंट’ द्वारा किया गया था। ईसाई संतों ने बताया कि राजा के खिलाफ विद्रोह करना ईश्वर के खिलाफ विद्रोह है, और जो इसका पालन करेगा, उसे दंड मिलेगा।

दैवीय सिद्धांत के प्रमुख तत्व

  1. राज्य ईश्वरीय संस्था है।
  2. राजेश्वर का प्रतिनिधि है।
  3. राजा को शक्ति प्रदान करने का अधिकार केवल ईश्वर को ही होता है।
  4. ईश्वर का प्रतीक कार्य सृष्टि के हित में होता है, इसलिए ईश्वर के प्रतिनिधि राजा की समस्त न्याय संगत एवं जनहित में होते हैं।
  5. राजा की आलोचना यह निंदा करना धर्म के विरुद्ध है।
  6. राजसत्ता पैतृक रूप से संदिग्ध होती है, जिसमें पुत्र को पिता के उत्तराधिकारी के रूप में स्थान मिलता है।

राज्य के दैवीय सिद्धांत की आलोचना 

(1) तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता

इस सिद्धांत को तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। सभी धार्मिक ग्रंथो में ईश्वर को प्रेम एवं करुणा का भंडार बताया गया है परंतु व्यवहार में अब तक अनेक शासक अन्यायी, अत्याचारी एवं क्रूर प्रकृति के हुए हैं। ऐसी परिस्थितियों में ऐसा शासक ईश्वर का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है। अतः तार्किक दृष्टि से यह सिद्धांत अनुचित एवं अमान्य प्रतीत होता है।

(2) शासन के निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी बनने का भय 

यदि राजा को वास्तव में ईश्वर का प्रतिनिधि अथवा जीवित रूप माना जाए तो ऐसे शासन के निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी बनने का भय रहता है। इतिहास गवाह है कि ऐसे शासको ने जनता को ईश्वरीय प्रकोप दिखाकर उन पर अनेक अत्याचार किए हैं। अतः यह सिद्धांत स्वीकार करने योग्य नहीं है।

(3) अनैतिहासिक एवं अवैज्ञानिक सिद्धांत

दैवी सिद्धांत पूर्व रूप से अनैतिहासिक एवं अवैज्ञानिक सिद्धांत है। संपूर्ण मानव इतिहास में इस तथ्य का कहीं प्रमाण नहीं मिलने की राज्य की स्थापना ईश्वर द्वारा की गई है। यह सिद्धांत मानव संवेदनाओं, जिज्ञासाओं तथा आवश्यकताओं के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है। यह सिद्धांत मानव अनुभव के विरुद्ध है, अतएव स्वीकार करने योग्य नहीं है।

(4) आधुनिक संप्रभु राज्यों के लिए अमान्य

यह सिद्धांत आधुनिक संप्रभु राज्यों के लिए अमान्य है क्योंकि उसमें शासन की सीन किसी रूप में जनता से जुड़े होते हैं तथा धर्म को राजनीति से अलग करके देखा जाता है।

(5) आधुनिक लोकतांत्रिक युग‌‌ के लिए अप्रासंगिक

आधुनिक लोकतांत्रिक युग में यह सिद्धांत सर्वथा अप्रासंगिक है क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता स्वयं शासन का चुनाव करती है तथा गलत कार्य करने पर उसे हटा सकती है। परंतु दैवीय सिद्धांत इन मान्यताओं को और स्वीकार करता है क्योंकि वह गलत कार्य किए जाने पर भी राजा का विरोध करने का अधिकार जनता को प्रदान नहीं करता है। अतः यह सिद्धांत व्यावहारिक नहीं प्रतीत नहीं होता।

(6) दैवीय सिद्धांत का अपरिवर्तनीय न‌ होना

यह सिद्धांत राज्य को पवित्र संस्था मानता है, अर्थात इसके स्वरूप में परिवर्तन करना संभव नहीं माना जाता। इस दृष्टि से यह सिद्धांत रूढ़िवादी कहा जा सकता है क्योंकि परिवर्तनों के अभाव में राज्य मानव में राज्य मानव जीवन के लिए अनुपयोगी हो जाएगा।

दैवीय सिद्धांतों की उपयोगिता 

(1) दैवीय सिद्धांत ने शासक जनता संबंधों में उत्तरदायित्व की भावना को बढ़ाया। राजा एवं प्रजा दोनों को ही इसके अंतर्गत कुछ निश्चित मानदण्डो के अनुरूप व्यवहार करने की सीख मिली।

(2) सिद्धांत ने राजा को ईश्वरीय प्रतिनिधि बनकर जनता को राजभक्ति एवं आज्ञा पालन का पाठ पढ़ाया जो आधुनिक राज्य का एक आवश्यक गुण माना जाता है।

(3) यह सिद्धांत इस तत्व का प्रतिपादन करता है कि राजा का ईश्वर के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व होता है, अर्थात राजा को भी नैतिक मानदण्डो का उचित प्रयोग करते हुए शासन शक्ति का उचित रूप में प्रयोग करना चाहिए।

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