गरमदली का मतलब तथा उदय के कारण
भारतीय राजनीति में गरमदली धडें का उदय नरम डोलियों की अर्जी, प्रार्थना और प्रतिवाद की राजनीति से बढ़ते मोहभंग का नतीजा था। अंग्रेजी राज की न्याय प्रिय पर नरमदली के विश्वास और उनकी ‘प्रार्थना वृत्ति’ की तीखी आलोचना गरमदली किया करते थे। उनमें स्वाभिमान का भाव काफी गहरा था और वे सर उठाकर चलने की इच्छा रखते थे, इसलिए नरमदलियों का वह विरोध करते थे जिनमें उन्हें अंग्रेजों के प्रति समर्पण और सम्मान का भाव दिखाई देता था। गरमदली राजनीति के तीन गुट थे, बंगाल गुट का नेतृत्व विपिन चंद्र पाल और अरविंदो करते थे, जबकि महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, और पंजाब में इस राजनीति का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे।
गरमदली राजनीति की उभार के कारण
औपनिवेशिक राज के असली चरित्र एहसास: दादा भाई नौरोजी ने औपनिवेशिक राजा के शोषण चरित्र को उजागर करते हुए अकाट्य तौर पर साबित कर दिया था कि ब्रिटेन को होने वाली भारत की धान की निकासी ही भारत की बदहाली और गरीबी का मूल कारण है। पश्चिमीकरण के विस्तार के खिलाफ प्रतिक्रिया: बंकिम चंद्र, विवेकानंद और स्वामी दयानंद का लेकिन उन्हें प्रेरित कर रहा था।
★ वे भारत की आध्यात्मिक धरोहर से भी प्रेरणा हासिल कर रहे थे। भारत के बदतर आर्थिक हालात: भयानक आकाल, करों के भारी बोझ औरसरकारी असंवेदनशीलता के कारण औपनिवेशिक राज के खिलाफ असंतोष गहरा होता जा रहा था।
★ गरमदली राजनीति के कार्यक्रम में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल, राष्ट्रीय शिक्षा पर जोर और सत्याग्रहों की वकालत जैसी बातें शामिल थी। स्वदेशी और बहिष्कार का उद्देश्य भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने और भारतीय लोगों को कम व रोजगार की अधिक अवसर मुहैया कराना था। इसी दौर में कोलकाता में बंगाल नेशनल कॉलेज स्थापित। मद्रास में पचैयप्पा नेशनल कॉलेज शुरू किया गया था। पंजाब में डीएवी आंदोलन शिक्षा के क्षेत्र में काफी सफल रहा था। राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार करने के लिए शुरू किए गए थे।
गरमदली राजनीति का मूल्यांकन
गरमदली नेता लोकतंत्र, संविधानवाद की वकालत करते थे और अपनी राजनीति के जरिए राष्ट्रीय आंदोलन के सामाजिक आधार को व्याप्त बनाना चाहते थे। उन्होंने देसी भाषाओं में अखबार प्रकाशित किए ताकि वे एक व्यापार पाठकवर्ग तक अपनी पहुँच बना सकें। वे भारत में अंग्रेजी राज के नकारात्मक प्रभावों से पूरी तरह वाकिफ थे और उनका पर्दाफाश किया करते थे हालाँकि, सामाजिक सुधार के क्षेत्र में गरमदली नेता पुनरूत्थानवादी और रूढ़िवादी थे। विवाह के लिए लड़कियों की उम्र को 10 से बढ़कर 12 वर्ष करने वाले एज आफ कंसेंट बिल के प्रति तिलक का विरोध, गोहत्या विरोधी संगठनों से उनके संबंध और उनके द्वारा गणेश उत्सव 1893 व शिवाजी उत्सव 1895 की शुरूआत उनके कट्टर हिंदू और हिंदू राष्ट्रवादी चेहरे को उजागर करते हैं। लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल भी हिंदू राष्ट्र और राजनीतिक स्तर पर हिंदू हित–रक्षा की जरूरत पर बल देते थे। भले ही गरमदली राजनीति के पुनरुत्थानवादी कदम मुख्यतया औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लक्षित रहे हों, इसमें शक नहीं कि वह धर्म और राजनीति के नुकसानदेही घालमेल को पनपाने को सांप्रदायिकता और मुस्लिम अलगाववादी को हवा देने में मददगार थे।
एक टिप्पणी भेजें