अन्य पिछड़ा वर्ग
अन्य पिछड़ा वर्ग का तात्पर्य ; भारतीय समाज में कमजोर वर्गों में अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त अन्य पिछड़े वर्ग भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस वर्ग को भी शिक्षा व रोजगार में कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं, परंतु इन्हें अनुसूचित जातियों व जनजातीयों की तरह सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव द्वारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त नहीं है। अन्य पिछड़े वर्गों का निर्धारण दो प्रमुख आधारों पर किया गया है— प्रथम, जाति और द्वितीय, व्यवसाय। जाति की दृष्टि से यह वर्ग अनुसूचित जातियों से उच्च स्थान रखते हैं तथा व्यवसाय की दृष्टि से इनका व्यवसाय अस्पृश्यों जैसा नहीं रहा है। इन वर्गों में अधिकांशत मध्य स्तर की कृषक जातियों को सम्मिलित किया गया है।
आंद्रे बेतेई नेकी सब जातियों को अन्य पिछड़े वर्गों का सारभाग बताया है। यह वर्ग निश्चित रूप से उच्च जातियों से शिक्षा, व्यवसाय व सरकारी नौकरियों में पिछड़े हुए हैं। वे जातियां संस्तरण में भी निम्न स्थान रखते हैं। वस्तुत: पिछड़े वर्ग नाम की अवधारणा में यह तथ्य निहित है कि कुछ अग्रवर्ती वर्ग भी है। बिहार में इस प्रकार का स्पष्ट विभाजन देखा जा सकता है और के० एल० शर्मा के अनुसार अग्रवर्ती वर्ग पिछड़े वर्गों को तुच्छ समझते हैं।
‘अन्य पिछड़े वर्ग’ की अवधारणा
पहले अस्पृश्यों वह अन्य पिछड़े वर्गों के लिए संयुक्त रूप से दलित वर्ग का प्रयोग किया जाता था तथा इन्हें परिभाषित करने का कोई स्पष्ट आधार नहीं था। 1948 ईस्वी में यह महसूस किया गया कि एक पिछड़ा वर्ग कमिश्नर बनाया जाए जो पूरे देश में उन हिंदू व मुस्लिम जातियों का पता लगाएं जो शिक्षा, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई है। यह कमीशन 1953 ईस्वी में बनाया गया। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) नेवी पिछड़े वर्गों हेतु सुरक्षित स्थान रखने पर बल दिया। 1947 ईस्वी में बिहार सरकार ने पिछड़े वर्गों हेतु हाई स्कूल के पश्चात शिक्षा सुविधाओं की घोषणा की तथा 1955 ईस्वी में इन वर्गों की सूची भी घोषित की। इस सूची में प्रदेश की 60% उपजातियों को स्थान दिया गया। 1948 ईस्वी में उत्तर प्रदेश सरकार ने 56 जातियों की सूची घोषित की जो अन्य पिछड़े वर्गों के अंतर्गत आती थी तथा उन्हें शिक्षा में कुछ सुविधाएं प्रदान की गई। इस प्रकार संविधान निर्माण से पहले भी 'अन्य पिछड़े वर्गों' की धारणा भारत समाज में विद्यमान रही है।
अन्य पिछड़े वर्गों में 'पिछड़ापन' समूह या जाति का लक्षण माना जाता है, न कि व्यक्ति विशेष का। आज आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में इन वर्गों ने महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त कर ली है। संविधान की धारा 340 राष्ट्रपति को तथा धाराएं 15 (4) व (6) राज्य सरकारों को इन वर्गों की समस्याओं का पता लगनी हेतु कमीशन की नियुक्ति करने व विशेष सुविधाएं प्राप्त करने का प्रावधान करती है। भारत में राष्ट्रपति द्वारा 1953 ईस्वी में काका कालेलकर की अध्यक्षता में नियुक्ति कमिश्नर ने पिछड़ेपन के निर्धारण हेतु चार आधार रखें—
- (1) जातीय संस्तरण में निम्न स्थिति,
- (2) शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ापन,
- (3) सरकारी नौकरियों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व,
- (4) व्यापार, वाणिज्य उद्योग के क्षेत्र में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व।
अन्य पिछड़े वर्गों की प्रमुख समस्याएं'
(1) आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या
अन्य पिछड़े वर्गों के प्रथम मुख्य समस्या आर्थिक दृष्टि से पिछड़ापन है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की भांति यह वर्ग भी सामाजिक असमानता एवं अन्य का शिकार रहे हैं और इसीलिए इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। अन्य पिछड़े वर्गों को आर्थिक सहायता देते समय इनके 'अति समृद्धि तबके' को अलग रखा जाता है।
(2) शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ेपन की समस्या
अन्य पिछड़े वर्गों की दूसरी समस्या इनका शिक्षा के क्षेत्र में उच्च जातियों एवं वर्गों से पिछड़ा हुआ होना है। इन वर्गों में शिक्षा के प्रति चेतना का भाव रहा है जिसके कारण सरकारी नौकरियों में इनका प्रतिनिधित्व काफी कम है। अतः इस दिशा में विशेष कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
(3) राजनीतिक उत्पीड़न की समस्या
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की तरह अन्य पिछड़े वर्ग भी राजनीतिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। यदि इनका उत्पीड़न अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों से अपेक्षाकृत कम है, तथापि राजनीतिक उत्पीड़न को भी इनकी एक समस्या माना गया है। शिक्षा के माध्यम से इनमें राजनीतिक चेतना लाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
(4) शोषण एवं अत्याचार की समस्या
अन्य पिछड़े वर्ग में आने वाली अनेक जातियों के साथ आज भी शोषण एवं अत्याचार की घटनाएं होती हैं। यह शोषण एवं अत्याचार उच्च जातियों एवं वर्गों द्वारा किया जाता है। ग्रामीण समाज भी अनेक कृषक जातियों में इस प्रकार का शोषण एवं अत्याचार पाया जाता है।
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