प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध - कारण एवं परिणाम

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध ; 16वीं सदी के अंतिम वर्षों से, बर्मा के साथ अंग्रेजों के व्यापारिक संबंध धीरे-धीरे विकसित हो रहे थे, लेकिन शक्तिशाली वर्मा ने इसे कोई महत्व नहीं दिया। 19वीं साड़ी के आरंभ होते ही परिस्थितियों बदली। अंग्रेज अपनी सफलताओं से महत्व आणि हो चुके थे तथा वर्मा अपनी विस्तारवादी नीति का अनुसरण कर रहे थे। अराकान एवं असम पर अधिकार को लेकर विवाद प्रारंभ हुआ और अंग्रेजों का ब्रह्मा के साथ युद्ध शुरू हुआ।

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध के कारण 

(1) बर्मा तथा अंग्रेजों के हितों की टकराव

1824 ईस्वी में प्रारंभ में प्रथम -मंगल वर्मा युद्ध का कारण बर्मा तथा अंग्रेजों के हितों की टकराव था। बर्मा के साथ अंग्रेजों का संबंध काफी साधारण था, परंतु बंगाल पर अधिकार स्थापित होने के पश्चात सीमा पर स्थित बर्मा के साथ पड़ोसी राज्य का संबंध स्थापित हुआ। अंग्रेजों ने 18वीं साड़ी के उत्तरार्ध में बर्मा के साथ महत्वपूर्ण संबंध स्थापित करने की अनेक प्रयत्न किया।

(2) सीमा विवाद के कारण 

प्रथम मंगल बर्मा युद्ध का दूसरा कारण सीमा विवाद था। बर्मा में आता को राजधानी के रूप में विकसित कर अलोमपोरा ने वर्मा को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने हीरावती नदी क्षेत्र, पेगू, तिनासरीम तथा अराकान क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 19वीं सदी के आरंभ में बर्मा ने असम तथा मणिपुर पर अधिकार कर लिया। उसके पश्चात सीमा विवाद प्रारंभ हुआ। 1818 ईस्वी में वर्मा ने इतिहास का हवाला देते हुए चटगांव तथा ढाका सहित एक बड़े भूभाग की मांग की जो कभी अराकान की अंग थे। साथही  बर्मा ने मांग न माने जाने की स्थिति में युद्ध की धमकी दी।

(3) व्यापारिक महत्व

बर्मा का धान, तंबाकू, और अन्य उत्पादों का उत्पादन ब्रिटिश व्यापारियों के लिए महत्वपूर्ण था। यह उत्पादों के व्यापार की व्यापकता और उनके नियंत्रण का उत्साह बढ़ाता था। बर्मा के वाणिज्यिक महत्व ने ब्रिटिश का ध्यान आकर्षित किया। यहाँ पर धान, तंबाकू और अन्य आयुर्वेदिक उत्पादों का उत्पादन होता था, जो ब्रिटिश व्यापारियों के लिए महत्वपूर्ण था। 

(4) शरणार्थियों की समस्या

अंग्रेजों और बर्मा के बीच तनाव का कारण सीमा पार से आने वाले शरणार्थियों की समस्या भी थी। अराकान में शोषण एवं दमन से तंग आकर लोग अंग्रेजी साम्राज्य की सीमा में आने लगे। 1794 ईस्वी में शरणार्थियों का पीछा करते हुए लगभग 5000 वर्मी सैनिकों ने भारतीय सीमा में प्रवेश कर अंग्रेजों से उन्हें वापस लौटाने की मांग की। इस समय अंग्रेज भारत से उलझे हुए थे इसलिए उन्होंने झगड़ा टालते हुए शरणार्थियों को वापस लौटा दिया। परंतु यह समस्या जारी रही और 19वीं साड़ी में तनाव बढ़ता गया और युद्ध का कारण भी बनी।

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध के परिणाम

(1) याण्डबू की संधि (26 फरवरी, 1826) 

अंग्रेजों की साम्राज्यवादी तथा बर्मा के विस्तारवादी नीति के कारण तनाव बढ़ा जिसने 1824 में युद्ध का रूप धारण कर लिया। युद्ध का परिणाम वर्मा के आशा के विपरीत रहा और 1826 में याण्डबू की संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े।

याण्डबू की संधि की शर्तें 

(1) अंग्रेजों ने युद्ध में हुई क्षतिपूर्ति के लिए बर्मा पर एक करोड रुपए थोक दिए, जिसे बर्मा ने किस्तों में देने का वचन दिया।

(2) अंग्रेजों ने बर्मा से अरकान, तिनसरीम, येह तथा मुर्गी का क्षेत्र ले लिया।

(3) बर्मा तथा भारत एक दूसरे के साथ दूतों का आदान प्रदान करेंगे।

(4) दोनों ने एक दूसरे का मित्र होने का वादा किया।

(5) बर्मा ने असम, ‌‌‌‌‌‌‌कछार तथा जयंतिया में हर्षित नहीं करने का वचन दिया।

(6) ब्रिटिश रेजिडेंट आवा में नियुक्त किया गया। इस प्रकार यह संधि स्पष्ट रूप से अंग्रेजों की पक्ष में थी।

(2) बर्मा के विनाश

युद्ध के परिणामस्वरूप, बर्मा को बड़ी भूमिका का नुकसान हुआ और यह उसकी अपेक्षाएं कमजोर कर दी।

निष्कर्ष 

इस प्रकार प्रथम आंग्ल बर्मा युद्ध याण्डबू की संधि से समाप्त हुआ। इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ब्रिटिश रेजिडेंट मेजर बनीं की आवा में नियुक्ति हुई। इस युद्ध के कारण अंग्रेजों को बर्मा में सीमित अर्थों में लाभ प्राप्त हुए। राजदरबार में हाथ से करना शुरू किया। व्यापारिक संधि के द्वारा अनेक आर्थिक लाभ सुरक्षित किए। बर्मा से पूर्वोत्तर क्षेत्र की अधिकृत सभी क्षेत्र अंग्रेजों ने अपने भारतीय साम्राज्य में मिला लिया। जंगल तथा पहाड़ी क्षेत्र की आर्थिक एवं सामरिक महत्व अंग्रेजों की समझ में आ गई और भविष्य में इसी क्षेत्र पर पूर्णत: अधिकार की योजना बनानी प्रारंभ कर दी।

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