पंचवर्षीय योजना
पंचवर्षीय योजना एक प्रमुख राष्ट्रीय आर्थिक उपाय है जो केंद्र सरकार द्वारा प्रत्येक पाँच वर्षों में लागू किया जाता है। इसका उद्देश्य देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सुधारना है। यह एक समेकित और समर्थित राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम है जो देश के समृद्धि के लिए काम करता है। इसका आरंभ 1947 में हुआ था और 2017 तक यह भारतीय अर्थव्यवस्था के मुख्य नियोजन का एक प्रमुख तत्व रहा है।
पहली पंचवर्षीय योजना भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव के रूप में मूल्यांकन (1951-1956)
पहली पंचवर्षीय योजना (1951-1956) का प्रयास देश को गरीबों की दशा में बाहर निकालने का था। पहली पंचवर्षीय योजना में अधिक जोर कृषि क्षेत्र पर था। इस योजना के अंतर्गत बंद और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। विभाजन के कारण कृषि क्षेत्र की दशा अत्यंत गंभीर थी और इस पर तुरंत ध्यान देना आवश्यक था। भाखड़ा नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए एक बड़ी धनराशि आवंटित की गई। इस पंचवर्षीय योजना में माना गया था कि देश में भूमि के वितरण करने का जो प्रतिरूप मौजूद है उसे कृषि विकास में सबसे बड़ी बाधा पहुंचती है। इस योजना पर भूमि सुधार पर ध्यान दिया गया। इसे देश के विकास की बुनियादी आवश्यकता माना गया।
दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957-1962) भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव के रूप में मूल्यांकन
दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957-1962) में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया। पी० सी० महालनोबीस के नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों और योजना करो के एक समूह में यह योजना तैयार की गई थी। दूसरी योजना प्रथम योजना से इन अर्थों से भिन्न थी की दूसरी योजना में औद्योगीकरण पर बल दिया गया था। प्राथमिकता योजनाओं में बदलाव के साथ, प्रथम योजना में कृषि विकास पर ध्यान दिया गया था, जबकि अर्थात् पंचवर्षीय योजना में प्राथमिकता औद्योगिक विकास पर थी।
दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली पंचवर्षीय योजना से किन अर्थों में अलग थी
पहले योजना का मूल तंत्र था धीरज, लेकिन दूसरी योजना का प्रयास तेज गति से संरचनात्मक परिवर्तन करने का था। इसके लिए हर संभव दिशा में परिवर्तन की बात निर्धारित की गई थी। सरकार ने देसी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्क लगाया। संरक्षण की इस नीति से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को आगे बढ़ाने में सहायता प्राप्त हुई। क्योंकि इस अवधि में बचत और निवेश दोनों ही बढ़ रहे थे इसलिए बिजली, रेलवे, इस्पात, मशीनरी और संचार जैसे उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित किया जा सकता है। वास्तव में औद्योगीकरण पर दिए गए इस जोर ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को एक नया स्वरूप दिया।
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था।
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था। और इसके विवाद में क्या-क्या तर्क दिए थे? इस टॉपिक पर हमारा उद्देश्य है कि यह प्रश्न विद्यार्थियों से लगभग हर बार परीक्षा में पूछा जाता है इसी कारण हमने इस प्रश्न का चुनाव किया है, चलो अब इस प्रश्न के बारे में बात करते हैं।
विकास बनाम औद्योगिक विकास का मुद्दा बड़ा उलझा हुआ था। अनेक विचारकों का मानना था कि दोषी पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों को हानि उठानी पड़ी। जे० सी० कुमारप्पा जैसी गांधीवादी अर्थशास्त्रियों ने एक वैकल्पिक योजना की रूपरेखा प्रस्तुत की थी जिसमें ग्रामीण औद्योगीकरण पर अधिक ध्यान दिया गया था। चौधरी चरण सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में कृषि को केंद्र में रखने की बात अत्यंत सुविचारित और जोरदार ढंग से उठाई थी। चौधरी रन सिंह कांग्रेस में थे और बाद में उससे अलग होकर उन्होंने भारतीय लोक दल नमक पार्टी बनाई। उन्होंने कहा कि नियोजन के परिणामस्वरूप नगरी और औद्योगिक क्षेत्रों में समृद्धि दिख रही है, लेकिन इसकी कीमत ग्रामीण जनता को चुकानी पड़ रही है।
समीक्षा या निष्कर्ष
कई अन्य लोगों का विचार था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तीव्र किए बिना गरीबी से छुटकारा नहीं मिल सकता। इन लोगों का मानना था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में खाद्यान्न के उत्पादन को बढ़ाने के रणनीति अवश्य ही अपनी गई थी। राज्य ने भूमि सुधार और ग्रामीण इंद्रधनुष के बीच संसाधन के बंटवारे के लिए कानून बनाए। नियोजन में सामुदायिक विकास के कार्यक्रम तथा सिंचाई परियोजनाओं पर बड़ी राशि खर्च करने की बात मानी गई थी। नियोजन की नीतियां असफल नहीं हुई। वास्तव में इनका कार्यालय ठीक नहीं हुआ क्योंकि भूमि संपन्न वर्ग के पास सामाजिक और राजनीतिक शक्ति अधिक थी। इसके अतिरिक्त ऐसे लोगों का एक तर्क यह था कि यदि सरकार कृषि पर अधिक धनराशि खर्च करती तब भी ग्रामीण गरीबी की कठिन समस्या का समाधान न कर पाती।
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