अरस्तु का दासता सिद्धांत
अरस्तु ने दासता को प्राकृतिक संस्था माना है। प्राचीन काल में यूनान में दास प्रथा का व्यापक प्रचार था। इसके अलावा, वह अपने समय की स्थितियों और सामाजिक मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में दास प्रथा को समझने के लिए अपनी संपूर्ण दार्शनिक योग्यता का उपयोग करते थे। डॉक्टर बर्कर ने इस बारे में टिप्पणी की है कि “यह एक विवेकयुक्त प्रार्थना है जो दास प्रथा को अस्वीकार करने की योजना बना चुका है, जो समृद्ध समाज बना चुका है। यह एक प्रयास है कि ग्रीक सभ्यता पर लगाए गए धब्बे को सिद्ध किया जाए।”
अरस्तू ने अपने ग्रंथ ‘पॉलिटिक्स’ के प्रथम भाग में अपने दासता संबंधी विचार प्रस्तुत किए हैं। इन विचारों के आधार पर कैटलिन ने निर्धारित किया है कि “अरस्तू इस संबंध में कोई संदेह व्यक्त नहीं करता कि दासता न केवल मानव जाति की अति प्राचीन संस्था है, वरन् वह पूर्ण रूप से उचित भी है।” अरस्तु का कहना है कि परिवार की जीविका चलाने के लिए दो प्रकार की संपत्ति आवश्यक है— सजीव संपत्ति और निर्जीव संपत्ति।
सजीव संपत्ति— अरस्तु के अनुसार, संजीव सम्पत्ति में दास और पशु शामिल होते हैं, जबकि निर्जीव संपत्ति— में घर, खेत, सोना-चाँदी, फर्नीचर, और अन्य भौतिक वस्तुएँ शामिल होती हैं। एक सफल पारिवारिक जीवन के लिए यह आवश्यक है कि परिवार में दोनों प्रकार की संपत्ति हो।
यहाँ स्पष्ट है कि अरस्तू घरेलू दासों की चर्चा करता है, जो मालिक के छोटे-छोटे कार्यों में सहायक होते हैं। उनका उल्लेख उद्योगिकृत दासों के लिए नहीं होता। डॉक्टर टेलर ने इस बारे में टिप्पणी की है कि अरस्तू का ध्यान उन बड़े कारखानों की ओर नहीं गया जो दासों की सेवा द्वारा चलाए जाते हैं।
दास की प्रकृति
अरस्तू ने दास की प्रकृति के संबंध में यह कहा है कि जिस प्रकार शरीर के अंगों का अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी तरह दास का भी स्वामी से अलग से कोई अस्तित्व नहीं होता। दास की परिभाषा के संबंध में अरस्तु ने लिखा है कि, “जो व्यक्ति मनुष्य होकर भी संपत्ति की वस्तु है, वह दूसरों का दास है।”
अरस्तु द्वारा दास–प्रथा के समर्थन के आधार दास–प्रथा का औचित्य
अरस्तु दास–प्रथा का समर्थन निम्न आधारों पर करता है, जो कुछ इस प्रकार है —
(1) दास-प्रथा प्राकृतिक है
अरस्तु का विश्वास है कि, “कुछ स्वतंत्र उत्पन्न होते हैं व कुछ जन्म से दास।” अरस्तू का कहना है कि प्रकृति कुछ लोगों को ऐसे ढंग से बनाती है कि उनमें बुद्धि का भाव होता है, परंतु उनमें शारीरिक बल होता है। ऐसे व्यक्ति स्वतंत्र रूप से न तो सोच सकते हैं और न ही कोई निर्णय ले सकते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग स्वभावत: इस योग्य होते हैं कि वह शासन का कार्य कर सकें ,उनमें बौद्धिक प्रतिभा होती है। इस प्रकार, दोनों व्यक्तियों का साथ रहना न केवल आवश्यक है, बल्कि यह उन दोनों के लिए लाभदायक भी होता है।
(2) दास–प्रथा आवश्यक होता है
अरस्तु का मत है कि, “वह राज्य जो दास प्रथा पर आधारित नहीं है, वह स्वयं दास होता है। ”इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि अरस्तू यूनान के लोगों को ऐतिहासिक प्रामाणिकता के आधार पर विश्व के अन्य लोगों की तुलना में अधिक बौद्धिक स्तर को मानता था। इसलिए उसका मत था कि यूनानियों को कभी भी दास नहीं बनना चाहिए। वह मानता था कि कुछ राज्यों के नागरिक अल्प बुद्धि के होते हैं, इसलिए यूनान उनके स्वामी हैं और राज्य में उद्योगों, व्यापार आदि का कार्य यही दास करेंगे, जो परिवार के सदस्य के साथ रहते हैं।
(3) नैतिक दृष्टि से भी दस–प्रथा आवश्यक होता है
नैतिक दृष्टि से अरस्तू ने दास–प्रथा को न्यायसंगत और आवश्यक बताया है। अरस्तु के अनुसार दासों में गुणों का उत्पन्न होना तभी स्वाभाविक है जब स्वामी व दास दोनों का साथ हो। अरस्तु ने कहा है की प्रकृति का सार्वभौमिक नियम है कि जब अनेक भाग मिलकर एक समग्र की रचना करें तो, उन भागों में जो ऊँचा है वह अपने से नीचे के अंगों पर शासन करें। इस प्रकार दसों का काम है कि वह अपने स्वामी को शारीरिक कार्यों में बोझ से मुक्त करें और उसे बौद्धिक जीवन के विकास का अवसर दें।
दासता के प्रकार
अरस्तू ने दसता के दो प्रकार बताए हैं जो कुछ इस प्रकार है —
(1) स्वाभाविक दसता
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कि अरस्तु का मत है कि कुछ मनुष्य स्वभाव से ही दास होते हैं, यही स्वाभाविक दासता है।
(2) कानूनी दासता
इस प्रकार के दास वे लोग होते हैं जो युद्ध में विजयी राज्य द्वारा बन्दी बना लिए जाते हैं।
दासता के संबंध में कुछ और मान्यताएं
अरस्तु की दासता के संबंध में कुछ अन्य मान्यताएँ हैं, जो कुछ इस प्रकार है —
1- अरस्तू दास–प्रथा को पैत्रक नहीं मानता। दास–प्रथा का आधार गुणों के अनुसार होता है।
2- स्वामी को उदास के साथ शिष्टता का व्यवहार करना चाहिए।
3- स्वामी का कर्तव्य है कि वह दास के नैतिक विकास (व्यवहार और भावनाओं) में सहायक बने।
4- यूनानियों को दास नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि वे बुद्धि व विवेक के आगे हैं।
5- दासों को मुक्त करने के लिए भी आदेश (अनुमति) दिया जाना चाहिए।
अरस्तु के दासता संबंधी विचारों की आलोचना
(1) विवेक के आधार पर विभाजन में कठिनाई होती है
अरस्तू का सिद्धांत यह है कि दास का स्वामित्व केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में होता है, जबकि कुछ में नहीं। वह समझाने की कोशिश कर रहा है कि वस्तु का जन्मजात दास के संख्यात्मक सीमित होना या न होना मनुष्य को किस प्रकार प्रभावित करेगा।
(2) मित्रता का विचार का गलत होना
अरस्तू का कथन है कि दास और स्वामी के बीच पारस्परिक मित्रता होनी चाहिए, परंतु वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है क्योंकि स्वामी दास को निरंतर अपना दास मानता है, जिससे उससे मित्रता का व्यवहार संभव नहीं है।
(3) जातिगत अहंकार का होना
अरस्तू के विचार के अनुसार, विचारों का प्यार हो गया रस नहीं, यूनानी सभ्यता को संस्कृति को विश्व में सर्वश्रेष्ठ ठहराने के लिए विदेशियों को उनकी सेवा करने देना चाहिए। इस प्रयास के माध्यम से उन्होंने यह बताया कि यूनानी संस्कृति की स्वतंत्रता का महत्व है।
(4) दास को पशुपत् बनाने का विचार
अरस्तू के अनुसार, दास को अपना व्यक्तित्व स्वामी के व्यक्तित्व में विलीन कर देना चाहिए। इस विचार के साथ, वह राजस्थान में दासों को पशुओं की श्रेणी में रखने का समर्थन करता है। वह दासों को पशुओं के कार्यों में भी शामिल करता है और इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है कि इस विचार की संकीर्णता है।
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