आपातकाल से आप क्या समझते हैं? पक्ष तथा विपक्ष में तर्क

आपातकाल का मतलब (तात्पर्य)

आपातकाल एक समय होता है जब किसी समाज या देश में अचानक आवश्यकता पैदा होती है तथा नियंत्रण की आवश्यकता होती है। यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या प्राकृतिक आपात स्थितियों के लिए उपयुक्त होता है, जैसे कि प्राकृतिक आपदाओं, युद्ध, आतंकवाद, राजनीतिक अस्थिरता आदि। आपातकाल में सार्वजनिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था और स्थानीय प्रशासन को बढ़ावा दिया जाता है ताकि जनता की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित किया जा सके। 

आपातकाल के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क

आपातकाल में शक्तियों की बंटवारे का संघीय ढांचा व्यावहारिक रूप से निष्प्रभावी हो जाता है और सारी शक्तियां केंद्र सरकार के हाथ में चली जाती हैं। सरकार मौलिक अधिकारों पर रोक भी लगा सकती है।

आपातकाल के पक्ष में तर्क

(1) सुरक्षा

 आपातकाल का पक्ष विश्वास करता है कि ऐसे समय में सुरक्षा और स्थिरता की आवश्यकता होती है ताकि सामाजिक व्यवस्था की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

(2) तात्कालिक कार्रवाई

 आपातकाल का पक्ष यह दावा करता है कि तत्काल कठिन परिस्थितियों में कठिन निर्णय लेना आवश्यक होता है, जिसमें शीघ्रता की आवश्यकता होती है।

(3) सामाजिक आदेश

कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि आपातकाल में सरकार को अपराधियों, आतंकवादियों और असामाजिक तत्वों के खिलाफ निर्णय लेने का अधिकार होता है ताकि सामाजिक सुरक्षा बनाए रखा जा सके।

आपातकाल के विपक्ष में तर्क 

(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता

आपातकाल के विपक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इस प्रकार की स्थिति में सरकार को अधिकारों की लापरवाही करने का मौका मिलता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कमजोर कर सकता है।

(2) संविधानिक स्वतंत्रता

आपातकाल के विपक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इस प्रकार के अवस्थाओं में संविधानिक मानदंडों और न्यायिक प्रक्रियाओं को उल्लंघन करने का खतरा होता है, जिससे सामाजिक न्याय और संविधानिक स्वतंत्रता पर असर पड़ता है।

(3) सामाजिक संतुलन

 कुछ विपक्षी यह तर्क देते हैं कि आपातकाल में सरकार के अधिकारों का उपयोग सामाजिक संतुलन और संवेदनशीलता को प्रभावित कर सकता है, जिससे समाज में असमंजस और अधिकता का माहौल उत्पन्न हो सकता है।

“इंदिरा गांधी के पास आपातकाल लगाने की अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था।” इस कथन के पक्ष और विपक्ष में तर्क 

आपातकाल की घोषणा के कर्म का उल्लेख करते हुए संविधान में अत्यंत साधारण ढंग से अंदरुनी गड़बड़ी जैसे शब्दों को प्रयोग में लाया गया है। 1975 से पहले कभी भी अंदरूनी गड़बड़ी को आधार बनाकर आपातकाल की घोषणा नहीं की गई थी। इस समय देश के कई भागों में विरोध आंदोलन चल रहे थे। क्या इसे आपातकाल लागू करने का पर्याप्त कारण माना जा सकता है? सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतंत्र है और इसके अनुकूल विपक्षी दलों को चाहिए कि वह निर्वाचित शासन दल को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने दें। सरकार का मानना था कि बार-बार का धरना प्रदर्शन और सामूहिक कार्यवाही लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इंदिरा गांधी के समर्थक यह होगी मानते थे कि लोकतंत्र में सरकार का निशाना साधने के लिए निरंतर गैर-संसदीय राजनीति का सहारा नहीं लिया जा सकता है। इससे अस्तित्व उत्पन्न होती है और प्रशासन का ध्यान विकास के कामों से भंग हो जाता है। सारी शक्ति कानून व्यवस्था की बहाली पर लगानी पड़ती है। इंदिरा गांधी ने शाह आयोग को लिखे पत्र में कहा था की विनाशकारी ताकते सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में उड़ेंगे डाल रही थी और मुझे गैर संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं। 

पक्ष में तर्क 

कुछ अन्य दलों जैसे सीपीआई (इसने आपातकाल के दौरान कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखा था) का मानना था कि भारत की एकता के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय साजिश से की जा रही है। सीपीआई का मानना था कि ऐसी स्थिति में विरोध पर एक सीमा तक प्रतिबंध लगाना उचित है। सीपीआई क्या मानना था कि जयप्रकाश नारायण ने जिस आंदोलन का नेतृत्व किया वह मुख्यतः मध्य वर्ग आंदोलन था और यह मध्यमवर्ग कांग्रेस की परिवर्तनकारी नीतियों के विरोध में था। आपातकाल की समाप्ति के पश्चात सीपीआई ने अनुभव किया कि उसका मूल्यांकन गलत था। आपातकाल का समर्थन करना एक गलती थी।

विपक्ष में तर्क 

दूसरी और आपातकाल के आलोचकों का मानना था कि आजादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन आंदोलन का एक सिलसिला रहा है। जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के अन्य नेताओं का विचार था कि लोकतंत्र में लोगों को सार्वजनिक रूप से सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए। बिहार और गुजरात में चले विरोध आंदोलन अधिकांश समय अहिंसक और शांतिपूर्ण रहे। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उन पर कभी भी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहने का मुकदमा नहीं चलाया गया। अधिकतर बिन्दियों की विरुद्ध कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था। देश का आंतरिक मामलों की देखरेख का जिम्मा गृह मंत्रालय का होता है। गृह मंत्रालय ने भी कानूनी व्यवस्था के विषय में कोई चिंता प्रकट नहीं की थी। अगर कुछ आंदोलन अपनी सीमा से बाहर जा रहे थे, तो सरकार के पास इतनी शक्तियां थी कि वह ऐसे आंदोलन को सीमा में ला सकती थी। लोकतांत्रिक कार्य प्रणाली को थप्पड़ करके ‘आपातकाल’ लागू करने जैसे अतिचार कदम उठाने की आवश्यकता बिल्कुल न थी। वास्तव में खतरा देश की एकता और अखंडता को नहीं, बल्कि शासक दल और स्वयं प्रधानमंत्री को था। आलोचक मानते हैं देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इंदिरा गांधी ने स्वयं की शक्ति को बचाने के लिए किया।

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