महात्मा गांधी के राज्य संबंधी विचार तथा स्वरूप, कार्य, उपयोगिता तथा आलोचनाएं

गांधीवाद राज्य (कार्य, उपयोगिता, आलोचना)

गांधीवाद के अनुसार राज्य का स्वरूप - गांधी जी ने अपने राज्य की कल्पना रामराज्य (आदर्श राज्य अथवा पृथ्वी पर ईश्वरी राज्य) के रूप में की थी। उनका विश्वास था कि रामराज जी में जनता की नैतिक शक्ति का प्रभुत्व होगा तथा हिंसा की व्यवस्था के रूप में राज्य का विनाश हो जाएगा। किंतु वे राज्य की शक्ति को तत्काल समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। यद्यपि उनका अंतिम लक्ष्य नैतिक एवं दार्शनिक अराजकतावाद है तो तत्कालीन लक्ष्य राज्य को अधिकाधिक पूर्ण तत्व की ओर ले जाना। गांधी जी ने यंग इंडिया (9 मार्च 1922) में एक लेख लिखकर स्वराज तथा आदर्श समाज का भेद बताया। आदर्श राज्य में रेल मार्ग, अस्पताल, मशीने, सेना, कानून तथा न्यायालय नहीं होंगे। परंतु उन्होंने बल देकर कहा कि स्वराज में के पांच प्रकार की चीजें रहेंगी। स्वराज में कानून तथा न्यायालय का काम जनता की स्वतंत्रता की रक्षा करना होगा, वे नौकरशाही के हाथों में उत्पीड़न का साधन न रहेंगे।

गांधीवाद के अनुसार राज्य के कार्य

 गांधी जी के राज्य में शासन की मूल इकाई ग्राम पंचायत होगी, अतएव यह गांव पंचायत का ही दायित्व होगा कि वह गांव के बच्चों को शिक्षा का प्रबंध करें स्वास्थ्य का ध्यान रखें, समाज के कमजोर वर्गों तथा अस्पर्शों की आवश्यकताओं की पूर्ति करें। ग्राम पंचायत का ही दायित्व होगा कि वह गांव में कृषि का प्रबंध करें तथा कृषक वर्क की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करें। गांवों के युवा वर्ग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गांव में कुटीर उद्योग का प्रबंध करें। इसके साथ ही गांव की सुरक्षा का दायित्व भी पंचायत का ही होगा। गांव में यातायात, डाक तथा संचार के अन्य साथियों का भी प्रबंध करना ग्राम पंचायत का ही दायित्व होगा।

महात्मा गांधी ने हरिजन सेवक में लिखा था, “ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि वह एक जैसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरत के लिए अपने पड़ोसियों पर भी निर्भर नहीं रहेगा और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरत के लिए—जिसमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य हो वह परस्पर सहयोग से काम लगा।” गांधी जी का विश्वास ताकि गांवों की आत्मनिर्भरता राज्य को आत्मनिर्भर एवं सशक्त बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। उसे प्रकार राज्य का कार्य क्षेत्र स्वत: सीमित हो सकेगा तथा उसी के साथ राज्य शक्तियों को भी सीमित किया जा सकेगा।

गांधीवादी राज्य के कार्यों की आलोचना 

महात्मा गांधी ने राज्य के संगठन एवं कार्यों का वर्णन किया है उसको भारतीय संदर्भ में काफी प्रासंगिक एवं परिवेश युक्त माना जा सकता है। भारत गांव का देश है जो मुख्यतः कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था से संबंध है। परंतु इसके बावजूद गांधी दर्शन में कुछ आधारभूत कमियां है जिसके कारण उसकी आलोचना की जाती है।

(1) अराजकता का समर्थन उचित नहीं है 

महात्मा गांधी ने राज्य को मानवीय आवश्यकता के प्रतिकूल बताया है और अराजकतावाद का समर्थन किया है। उन्होंने मानवीय विवेक और क्षमता के आधार पर राज्य के खिलाफ खड़ा होने की पुरानी धारणा को पुनरावलोकन किया। उनका मानना था कि जब राज्य मानवीय या नैतिकता के मानकों के विपरीत होता है, तो उसका विरोध करना सही होता है। मानव जाति का इतिहास इस बात का गवाह है कि सामाजिक व्यवस्था एवं अनुशासन को मात्र मानव बुद्धि का सहारा देकर नहीं बनाए रखा जा सकता है।

(2) अव्यावहारिक एवं मौलिकताविहीन दर्शन 

आलोचक गांधीवाद को अव्यावहारिक एवं मौलिकताविहीन दर्शन का नाम देते हैं। उनके माता अनुसार गांधीवादी विचारधारा स्वयं में एक मौलिक विचार नहीं है बल्कि वह विभिन्न लेखकों, दार्शनिकों एवं विद्वानों के विचारों का संकलन मात्र है। इसके तरीके हो दर्शन व्यावहारिक भी नहीं है तथा आदर्शवाद के झमेले में पड़कर यथार्थवाद से दूर हो गया है।

(3) राज्य शक्ति पर आधारित संगठन नहीं 

राज्य को शक्ति पर आधारित संगठन मात्र ही मानकर इसका विरोध अनुचित नहीं है। राज्य की शक्ति का प्रयोग राज्य के नियमों एवं कानून को बाध्यकारी बनाने के लिए आवश्यक है। आवश्यकता तो इस बात की है कि राज्य की शक्ति का समुचित अचित पूर्ण ढंग से प्रयोग किया जा सके जिससे मानव स्वतंत्रता एवं अधिकारों में बाधा ना पड़े।

(4) पिरामिड संरचना उपयोगी नहीं है 

राज्य एवं शासन की व्यवस्था के लिए गांधीजी पिरामिड संरचना का विचार देते हैं परंतु यह विचार एक अव्यावहारिक कल्पना है। शासन के इतने स्टारों का निर्माण करना तथा उनमें समन्वयी बनाना कोई सरल कार्य नहीं है। आधुनिक राज्य के स्वरूप को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ऐसे राज्य में नौकरशाही का प्रभुत्व होगा तथा उसके परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार को बढ़ाओ मिलेगा।

(5) मानव नैतिकता पर अनुचित बल 

महात्मा गांधी मानव नैतिकता को ऊंचा स्थान देते हैं। यही कारण है कि ग्राम स्वराज पर बल देते हुए उन्होंने मानव सहयोग एवं नैतिकता को महत्वपूर्ण बताया है। परंतु पास नहीं होता है कि यह सहयोग किस रूप में होगा? तथा कहां तक वह अमीरों एवं गरीबों के मध्य खाई को बांट सकेगा।

(6) पूंजीपतियों का समर्थन 

महात्मा गांधी राज्य की व्यवस्था के नाम पर पूंजीपतियों एवं मजदूरों के मध्य सहयोग की बात करते हैं। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह पूंजीवादियों के समर्थक है। दूसरी ओर उनके ऊपर साम्यवादी होने का भी अपेक्स लगता है क्योंकि वह संपत्ति के समान विभाजन एवं वितरण की बात करते हैं। वास्तविकता यह है की संपत्ति मानव स्वभाव में निहित है तथा उसका उन्मूलन करना असंभव है। इस प्रकार गांधीवाद पूंजीवाद एवं साम्यवाद की धारणा के मध्य भास्कर रह जाता है।

गांधीवाद की उपयोगिता

परंतु इस सब आलोचनाओं के बावजूद भी गांधीवाद का महत्व कम नहीं हो जाता। गांधीवाद अपने आप में एक महान विचारधारा है जिसका लक्ष्य न केवल भारत पर बल्कि संपूर्ण विश्व है। गांधी जी गलती नहीं बल्कि उसके दुर्गा से घृणा करते थे इसलिए उनके ऊपर पूंजीवादी या साम्यवादी होने का आपेक्ष लगाना अनुचित है। उन्होंने साध्य को प्राप्त करने के लिए पवित्र साधनों पर भी बल दिया था। यही कारण है कि उन्होंने राज्य के संगठन एवं कार्यों को मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं जोड़ने का प्रयास किया था। गांधीवाद राज्य की आज के युग में हमें निराशावाद, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, गरीबी जैसे बुराइयों से बचा सकता है तथा मानवी सहयोग एवं नैतिकता पर आधारित यह राज्य ही विश्व राज्य शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। आज के परमाणु युग, आतंकवाद के खतरे, पर्यावरण के संकट तथा भूमंडलीकरण की चुनौतियों का सामना करने के लिए विश्व के सामने आज कोई विकल्प है तो वह है गांधीवाद, गांधीवाद आज मानवता का सबसे बड़ा संदेश बन चुका है।

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