ब्रिटिश कालीन भारत में तथा स्वतंत्रता के पश्चात किसान आंदोलन का वर्णन

किसान आंदोलन (farmers movement)

भारत वर्ष पर यद्यपि प्राचीन काल से ही विदेशियों के आक्रमण होते रहे तथा संपूर्ण मध्यकाल में विदेशी शासन भी रहा, परंतु कृषकों पर अत्याचार के बहुत ही काम उदाहरण मिलते हैं। भारत में अंग्रेजी शासन की समाप्ति के पश्चात कृषि के क्षेत्र में मौलिक परिवर्तन हुए। अंग्रेजों ने यद्यपि समय-समय पर भू राजस्व की विभिन्न प्रणालियों आरंभ की, परंतु प्राय: प्रत्येक भू राजस्व प्रणाली का परिणाम सामान्य कृषक की निर्धनता तथा उसका भूमिहीन मजदूर बन जाना हुआ। यह तथ्य उन आंदोलनों और विद्रोह से भली-भांति स्पष्ट होता है, जो 19वीं सदी के मध्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक हुए। कृषकों की शिकायतें निरंतर बढ़ते हुए लगन और जमीन से बेदखल करने के प्रश्नों से संबंधित होती थी। जमीदारी रैयतवाड़ी क्षेत्र में कुछ संपन्न कृषकों ने सामंती व्यवस्था तथा अंग्रेजी साम्राज्य के बढ़ते हुए शोषण के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ किए। 19वीं साड़ी के मध्य में ये आंदोलन आरंभ हुई और 20वीं सदी में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में ये अधिक व्यापक हो गए। नील विद्रोह, कूकी विद्रोह, पबना का किसान विद्रोह, मोपला विद्रोह आदि में किसानों के शोषण के विरुद्ध प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। 

भारत में तथा स्वतंत्रता के पश्चात किसान आंदोलन का वर्णन

ब्रिटिशकालीन भारत में तथा स्वतंत्रता के पश्चात किसान आंदोलन का वर्णन

(1) बंगाल 

 सर्वप्रथम बंगाल में कृषकों द्वारा नील विद्रोह हुए। नील की खेती दो प्रकार से होती थी— (1) निज आबाद—इसमें प्लाण्नटरों की भूमि पर श्रमिकों की सहायता से खेती होती थी। (2) रैयाती— यहां कृषक अपनी भूमि में नील की खेती करता था। वह अग्रिम रूप में कुछ धन ले लेता था और फिर समस्त फसल को पूर्व निश्चित निश्चित भाव से भेज देता था।

तिभागा आंदोलन 1946-47 में बंगाल में प्रारंभ हुआ। यह आंदोलन प्रमुख रूप से ज्योति दारू के विरुद्ध मझौले किसानों एवं बटाईदारों का संयुक्त प्रयास था। इस आंदोलन का मुख्य कारण सन 1943 में बंगाल में पड़ा भीषण अकाल था। इस आंदोलन के कारण अनेक गांवों में विधानसभा का शासन स्थापित हो गया। सन 1967 में बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। इसी समय दार्जिलिंग में नक्सलबाड़ी नामक स्थान पर किसानों ने विद्रोह कर दिया। और पश्चिम बंगाल की सरकार ने इसे दबा दिया, परंतु किसान आंदोलन की प्रतिक्रिया पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा कश्मीर में भी हुई। यह आंदोलन तेजी से राज्य की अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया।

(2) पटना 

सन् 1859 ई के० रेंट अधिनियम के विरुद्ध असंतोष में वृद्धि हो रही थी। 1873 में यह कृषक विद्रोह के रूप में पटना में प्रस्फुटित हुआ। कृषकों ने एक संघ बनाकर जमीदारों की लगन वृद्धि के वृद्ध मुकदमे भी आरंभ कर दिए और गांव में लगान लेना बंद कर दिया। सरकार को विवश होकर 18 59 में एक रेंट कमिश्नर नियुक्त करना पड़ा और उनकी अनुशंसा पर 1885 में ‘बंगाल टेनेन्सी एक्ट’ पारित करना पड़ा।

(3) चंपारण 

सन 1920 के पश्चात किसानों के आंदोलन अधिकांश जमींदारों शोषण के विरुद्ध हुए, जिनका प्रमुख लक्ष्य कृषक व्यवस्था के विरुद्ध था। 1920 के प्रसाद गांधी जी द्वारा चलाए जा रहे अहिंसात्मक सत्याग्रहों में सत्ता को चुनौती दी जा रही थी ‌‌। इससे असहाय कृषकों में अत्याचारी व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन करने का साहस उत्पन्न हुआ। 1917 में गांधी जी ने चंपारण के किसानों को संगठित किया और अंततः तिनकथिया पद्धति, जिसके अधीन किसने की उत्तम भूमि उनसे छीन ली गई, समाप्त हो गई और किसानों पर की गई लग्न की वृद्धि को भी सीमित कर दिया गया। बारडोली में आंदोलन 1922 में ही आरंभ किया गया था लेकिन चोरी चोरा के पश्चात स्थगित करना पड़ा।

(4) उत्तर प्रदेश 

उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय आंदोलन के नेता शिक्षकों को सक्रिय बनाने में लीन रहते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के रायबरेली, फैजाबाद, सुल्तानपुर जिला में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में किसान सभा का आंदोलन सक्रिय रहा। हरदोई जिले में हुआ एक आंदोलन प्रभावशाली रहा। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के पश्चात किसान आंदोलन और अधिक सक्रिय हो उठा। इस समय विश्व यापी मंडी से कृषि उत्पादित वस्तुओं के मूल्य में प्राप्त कमी आई, जिसका परिणाम किसानों के लिए हानिकारक हुआ। तालुकदारों में लगन वृद्धि और किसानों को बेदखल करने के कार्य को पूर्व की भांति रखा। इस समय भी आंदोलन का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू और बाबा रामचंद्र ने किया। 1931 के पश्चात इस किसान आंदोलन को बलपूर्वक कुचल दिया। इतना अवश्य हुआ कि किसान अधिक उग्र विचारों के हो गई और कांग्रेस ने जमीदारों के अत्याचारों को बनाने के लिए सत्ता में आने के पश्चात कुछ स्थान बनाएं, जिनके किसने हितों की सुरक्षा की जा सके। उत्तर प्रदेश की भांति बिहार में भी किसान सभा आंदोलन प्रभावशाली हुआ। इसमें राष्ट्रीय नेताओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया और राष्ट्रीय आंदोलन को प्रभावशाली बनाया।

(5) दक्षिण भारत 

दक्षिण में सर्वप्रथम मोपला विद्रोह अगस्त 1921 में हुआ। आरंभ में अंग्रेजी सरकार की विरुद्ध था, लेकिन बाद में मोपलाओं ने गुरिल्ला पद्धति पर संघर्ष आरंभ किया। उसे समय कुछ हिंदुओं की आवश्यक हत्या हुई। 1930 के पश्चात मोपलाओ ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया और कृषक आंदोलन में कोई भाग नहीं लिया। 1929 में मालाबार टेनेन्सी एक्ट पारित किया गया, जिसमें संपन्न कृषकों के हितों की सुरक्षा की गई और भूमिहीन किसानों की ओर जो निम्न जातियों के थे, कोई ध्यान नहीं दिया गया। मद्रास प्रांत में अधिकांशतः रैयतवाड़ी प्रथा प्रचलित थी, लेकिन 20वीं शताब्दी के आरंभ तक एक संपन्न शिक्षक वर्ग विकसित हो चुका था, जो सहकारी का धंधा भी करता था। पूछे तो मैं जमीदारी प्रथा प्रचलित थी। आरंभ में कृषक आंदोलन उन्हीं जमीदारी क्षेत्र तक किसने था।

1970 के दशक के प्रारंभ से अनेक राज्यों में किसानों को अपनी सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति की स्पष्ट अपने हितों की सुरक्षा के लिए चेतना, राजनीति को प्रभावित कर सकते कि अपनी शक्ति आदि का एहसास होने लगा। इस परिवेश में किस वर्ग ने अपने आप को संगठित करना प्रारंभ कर दिया। इसका प्रारंभ राजश्री संगठनों तथा आंदोलन से हुआ। बाद में से राष्ट्रीय जाती बनाने के प्रयास भी किए गए। उत्तर प्रदेश, पंजाबी हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन तथा महाराष्ट्र में शेतकरी संगठन आध्या अत्यंत उग्र तथा प्रभावकारी रूप में विकसित हुए।

किसान आंदोलन के प्रमुख लक्ष्य—

(1) कृषि उत्पादनों के लिए अधिक मूल्य।

(2) बैंकों तथा सहकारी संस्थान द्वारा कम ब्याज पर तथा आसान शर्तों पर ऋण।

(3) कृषि के लिए आवश्यक बिजली, पानी, खाद, डीजल, ट्रैक्टर इत्यादि सरकारी सहायता से सस्तों धाम पर उपलब्ध।

(4) भूमि-सुधारों का‌ विरोध।

(5) नियोजन प्रक्रिया में ग्रामीण तथा कृषि विकास को अधिक महत्व दिलाना।

(6) कृषि कार्य करने वाले मजदूरों के लिए सरकारी द्वारा न्यूनतम वेतन इत्यादि निर्धारित करने के निर्णय को प्रभावित करना।

(7) ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाओं को प्राप्त करवाना।

(8) कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्र में संतुलन को दूर करना।

समीक्षा अथवा निष्कर्ष 

इन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बड़े तथा मध्यम वर्ग किसानों ने गैर राजनीतिक संगठनों का निर्माण करके आंदोलनों, बैठकों, जुलूसों तथा दबाव समूह के रूप में कार्य कर सरकार प्रभाव डालने के रास्ते के साथ-साथ राजनीतिक दलों को अपने समर्थन के आधार पर लेनदेन की राजनीति भी अपनी है। यह संगठन अपनी मांगों को वर्गी आधार पर प्रस्तुत न कर, इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि यह संपूर्ण ग्रामीण तथा कृषक समाज की मांगे हैं। पिछले दो दशकों से किसान आंदोलन काफी सफल हुए हैं। लगभग सभी राजनीतिक दल निर्वाचनों में किस वर्ग के प्रतिनिधियों को टिकट देने लगे हैं। लोकसभा तथा राज्य विधानसभा में इनका प्रतिनिधित्व तीव्र गति से बड़ा है, विशेष रूप से उन राज्यों में जहां कृषि क्षेत्र अधिक विकसित है; जैसे — पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश इत्यादि। राजनीति में किसानों की भूमिका लगभग निर्णायक हो गई है। कुल मिलाकर, इस प्रकार किसान आंदोलन वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यह प्रशासन, राजनीतिक दलों तथा विधायिका सभी स्तरों पर निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं।

Post a Comment

और नया पुराने
Join WhatsApp