व्यापारिक क्रांति के परिणामconsequences of commercial revolution
(1) पूंजीवाद का उदय
इसमें कोई संदेह नहीं है कि व्यापारिक क्रांति ने पश्चिमी इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय का आरंभ किया। वस्तुत इसके अभाव में आधुनिक आर्थिक जीवन पद्धति की कल्पना भी नहीं की जा सकती क्योंकि इसने व्यापार का ढांचा ही पूर्ण रूपेण बदल दिया तथा इसे मध्ययुगीन संकुचित स्थानीय अथवा क्षेत्रीय परिसीमाओं से निकलकर विश्व व्यापी स्वरूप प्रदान किया। इसने धन की शक्ति की प्रतिष्ठा तथा लाभकारी व्यापार को विकसित किया। धन संचय की प्रविष्टि को पोस्ट किया तथा उत्पादन एवं व्यापार के आधार के रूप में प्रतिस्पर्धा उद्यम के स्थान को प्रतिष्ठित किया। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि व्यापारिक क्रांति पूंजीवादी व्यवस्था के तत्वों के विकास के लिए उत्तरदाई थी।
(2) सट्टेबाजी का आरंभ
व्यापारिक क्रांति ने सट्टेबाजी को भी विकसित किया जो आज भी विभिन्न आर्थिक क्षेत्र में विद्यमान है। बहुमूल्य धातुओं की आपूर्ति, त्वरित गति से बढ़ती हुई कीमत ऑन तथा रहन-सहन में आधिकारिक समृद्धि पर बाल जैसे तत्वों ने सट्टेबाजी की प्रवृत्ति को जन्म दिया जो मध्य युग के स्थाई अर्थव्यवस्था में किसी प्रकार संभव न होती। व्यापारिक क्रांति के प्रथम चरण में तीव्र गति से बढ़ाने वाली व्यापारिक गतिविधियों ने मानव को यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया कि यदि वह चाहे तो उसका भाग्य रातों-रात बदल सकता है। परिणामत: असम की व्यावसायिक उद्यम किए गए तथा खारे पानी को शुद्ध करने के उपक्रम से लेकर विभिन्न प्रकार के स्थाई कल पुर्जे बनाई गई जिनमें अनेकों कर्मियों ने अपनी पूंजी दाव पर लगायी। इस प्रकार के पूंजी निवेशकों के एक चतुर वर्ग ने एक ऐसी कंपनी के नाम पर स्टॉक बेचे जिसका निश्चित उद्देश्य नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में ऐसी बिना सिर पर वाली योजनाओं में एक अरब 50 करोड डॉलर से भी अधिक धनराशि निवेशित थी।
(3) विश्व का यूरोपीयकरण
व्यापारिक क्रांति ने विश्व के यूरोपीयकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यूरोपीय कारण का तात्पर्य यूरोपीय आचरण एवं संस्कृति के तत्वों का अन्य महाद्वीपों में प्रसार करना है। व्यापारियों, धर्म प्रचार को एवं निवेशकों के प्रयासों के फल स्वरुप उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका को यूरोप के साथ संलग्न समझा जाने लगा। यूरोपीयकरण की यह प्रवृत्ति एशिया के देशों में भी पहुंची और वहां भी यूरोप में उत्पादित वस्तुओं का विक्रय तथा उपयोग किया जाने लगा।
(4) दास प्रथा की पुनर्स्थापना
दास प्रथा की पुनर्स्थापना व्यापारिक क्रांति का एक दुष्परिणाम था। मध्य युग के अध्ययन से ज्ञात होता है कि हजार ई० के लगभग यूरोप से दास प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया था। परंतु पुर्तगाल, स्पेन तथा ब्रिटिश उपनिवेशों में खनन, बागवानी जैसे परिश्रम वाले कार्य करने के लिए कुशल एवं अकुशल श्रमिकों की मांग व्यापक रूप से बड़ी जिसके फल स्वरुप पहले अमेरिका के मूल निवासियों (रेड इंडियन्स Red Indians) को दास बनाने का प्रयास किया गया। परंतु उन पर नियंत्रण रखना प्रायः असंभव हो गया। 16वीं शताब्दी में अफ्रीका के अश्वेत लोगों को दास बनाया गया और इनका आयात किया गया। इसके पश्चात 200 वर्षों से भी अधिक समय तक अश्वेत दस्त यूरोपीय उपनिवेशवाद का एक प्रमुख अंग बनी रही।
(5) मध्यम वर्ग का आर्थिक शक्ति के रूप में उदय
17वीं शताब्दी के अंत तक बुर्जुवा तथा मध्यम वर्ग एक प्रभावशाली आर्थिक वर्ग के रूप में पश्चिमी यूरोप के प्रत्येक राष्ट्र में स्थापित हो चुका था। इस वर्ग में व्यापारी, बैंकर्स, जहाजों के स्वामी, प्रमुख पूंजी निवेशक एवं उद्योगपति सम्मिलित थे। इनके शक्तिशाली होने के कारण इनकी बढ़ती हुई समृद्धि तथा पतनशील सामंतवादी अभिजात वर्ग के विरुद्ध राजा की सहायता करते थे।
(6) औद्योगिक क्रांति का मार्गदर्शन
व्यापारिक क्रांति का महत्व इस दृष्टि से भी अधिक है कि इसने औद्योगिक क्रांति का मार्गदर्शन किया। इसने पूंजीपतियों के एक ऐसे वर्ग का गठन किया जो अपनी अतिरिक्त पूंजी को निवेश करने के लिए नए अवसर की तलाश में रहते थे। दूसरे, नए उद्योगों को प्रोत्साहित कर उत्पादित वस्तुओं के निर्यात की गतिशीलता प्राप्त हुई। तीसरे, औपनिवेशिक साम्राज्य की स्थापना से यूरोप में कच्चे माल का भंडार लग गया जिसके फल स्वरुप ऐसी वस्तु की व्यापक आपूर्ति सुलभ हुई जिन्हें अब तक विलासिता एवं वैभव की वस्तुएं समझा जाता था। इनमें से अधिकांश वस्तुओं का निर्माण उद्योगशालाओं में ही होता था। अतः श्रेणी प्रतिबंधों से मुक्त अनेक स्वतंत्र उद्योगों की स्थापना हुई जो एक महत्वपूर्ण घटना थी। इन उद्योगों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण उद्योग सूती वस्त्र उद्योग था जिसमें सबसे पहले मशीनों का प्रयोग किया गया। अंत में व्यापारिक क्रांति के अंतर्गत उत्पादन की दृष्टि से फैक्ट्री विधि की ओर उन्मुख होने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। चरके तथा करघे क्या आविष्कार के साथ ही साथ शोधन की विकसित प्रकिया जैसे तकनीकी सुधार भी हुए अतः प्रगति के मध्य संबंध जोड़ना कोई कठिन कार्य नहीं था।
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