उदारीकरण का अर्थ क्या है? मुख्य पहलू तथा परिणाम

उदारीकरण 

उदारीकरण का अर्थ ; उदारीकरण का अभिप्राय अर्थव्यवस्था पर शासन के नियंत्रण में शने शने  शिथिलीकरण और अंततः समाप्ति से है। दूसरे शब्दों में कहे तो, उदारीकरण का अर्थ अर्थव्यवस्था में कार्यक्रम में बाजार की भूमिका की स्थापना और सरकार के हस्तक्षेप का निषेध है। इस अवधारणा की मौलिक मान्यता यह है कि बाजार के कार्यकरण में सरकार के हस्तक्षेप दो प्रकार की विकृतियां उत्पन्न करता है—

 (1) प्रथम प्रतियोगिता को कुंठित करके दक्षता के विकास को बाधित करता है एवं परिणाम स्वरुप लगता में कमी नहीं आने देता, जैसी अर्थव्यवस्था की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता की क्षमता भी घटती है। 

(2) और द्वितीय, सरकारी नियंत्रणों के कारण संसाधनों का भी अनुकूलतम उपयोग नहीं हो पता अर्थात जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन नहीं होता। कभी वस्तुओं का उत्पादन मांग से अधिक होता है और कभी कम। उत्पादन की मात्रा से अधिक शासकीय नियंत्रण के करण गुणवत्ता में जनरुचि की अवहेलना होती है। यह स्थित कारखाने में लगे निवेश के अल्प प्रयोग में प्रकट होती है अर्थात कारखाने अपनी क्षमता से कम उत्पादन करते हैं। 

अर्थ का सार 

उदारीकरण के समर्थक उपर्युक्त दोनों आधारों पर उत्पादन और वितरण पर भौतिक प्रतिबंधों जैसे— उत्पादन की सीमा बांधना, लाइसेंस, कोटा और परमिट की समाप्ति पर बल देते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उदारीकरण वैश्वीकरण का सहगामी है। जहां भूमंडलीकरण का मुख्य क्षेत्र राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और शेष विश्व के मध्य प्रबंध रहित संबंधों का विकास है, वही उदारीकरण का मुख्य कार्य क्षेत्र बाजार शक्तियों (मांग और पूर्ति) की आबाद क्रियाशीलता को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख संचालक शक्ति बनाना है।

भारत में उदारीकरण के प्रमुख पहलू

भारत में उदारीकरण के प्रमुख पहलू कुछ इस प्रकार है—

(1) सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की सर्वोच्च और निर्णायक स्थिति से हटाकर उसे कुछ सामरिक महत्व के उद्योगों तक सीमित रखना। इस नीति को 1991 ई से प्रारंभ किया गया था। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार मंत्र रक्षा उत्पादन, रेलवे, परमाणु ऊर्जा तथा परमाणु ऊर्जा से संबंधित खनिजों तक ही सीमित रह गया है।

(2) सरकार तेजी से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विनिवेश कर रही है। भीम का अभिप्राय मात्र यह है कि अब उदारीकरण के दौर में उद्योगों की स्थापना अपेक्षाकृत सरल है।

(3) औद्योगिक की लाइसेंस प्रणाली कुछ ही उद्योगों तक सीमित रह गई है— सिगार, तंबाकू उत्पादन, अल्कोहल पेय, औद्योगिक विस्फोटक सामग्री, घातक रसायन तथा जानवरों की चर्बी, तेल आदि। उल्लेखनीय है कि यह समस्त उद्योग पर्यावरण सुरक्षा तथा सार्वजनिक व्यवस्था से संबंधित है।

      उदारीकरण की प्रक्रिया मात्रा उद्योगों तक सीमित नहीं है बल्कि इसके अंतर्गत वित्तीय संस्थानों की कार्य प्रणाली में सरकारी प्रतिबंधों को शिथिल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए बैंकों को नगरीय क्षेत्रों में अपनी शाखाएं बंद करने के लिए सरकार की अनुमति आवश्यक नहीं है। इसी प्रकार, बैंक अपनी ब्याज दरें निर्धारित करने को स्वतंत्र हैं। वित्तीय संस्थानों के उदारीकरण में बहुत बड़ा कदम बीमा क्षेत्र में निजी उद्यमियों की अनुमान्यता है। 

भारत में भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण के परिणाम

उदारीकरण के परिणाम ; पिछले लगभग दो दशकों से भारत में उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था तथा समाज पर दूरगामी प्रभाव डाले हैं। वैसे तो पिछले 50 वर्षों में हुई आर्थिक विकास भारतीय समाज की सामाजिक आर्थिक उपयोग व्यवस्थाओं को पर्याप्त प्रभावित किया है तो यह देवी उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण के पिछले कुछ वर्षों में प्रत्येक क्षेत्र में वृद्धि दर को अधिक प्रोत्साहन मिला है। इन प्रक्रियाओं के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं— 

(1) भारत के लोगों की प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। यह दोगुनी से भी अधिक हो गई है। 1950-51 में प्रति व्यक्ति आय 1121 थी जो, 1990-91 में बढ़कर 2200 से अधिक हो गई, तथा 2011-12 में यह 60000 से अधिक हो गई।

(2) खाद्यान्न की उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। 1950-51 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 500 लाख टन था जो 1990-91 में बढ़कर 1700 लाख टन हो गया और 2011-12 में यह 2500 लाख टन हो गया। इस प्रकार खाद्यान्नों की उत्पादन में देश आत्मनिर्भर हो गया है।

(3) प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के परिणाम स्वरुप भारत में खाद्य तेलों, सब्जियों, दूध, अंण्डों, कपड़ों आदि वस्तुओं का  उपभोग बढ़ गया है। जीवन की अन्य सुविधाओं में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। दैनिक जीवन की अनेक वस्तुएं अवश्य सफलता से उपलब्ध है तथा जनता उनका उपभोग भी बड़ी मात्रा में कर रही है। 

(4) देश में बिजली के उपभोग में वृद्धि हुई है। बिजली के उपभोग में वृद्धि हमारी प्रगति का सूचक है। इसके उपभोग ढांचे का भूमि के पक्ष में परिवर्तन, देश की समग्र कल्याण की दृष्टि से सराहनीय कदम माना जाता है।

(5) भारत उपभोग वस्तुओं के क्षेत्र में भी लगभग आत्मनिर्भर हो गया है। सभी उपभोग की वस्तुएं भारत में ही निर्मित होने लगी है। यदि भी समाज की सभी वर्गों में वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि एक समान नहीं है तथापि यह एक सत्य है कि साधारण व्यक्तियों द्वारा अनिवार्य वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि हुई है। सुविधाओं और विलासिता पूर्ण वस्तुओं के स्तर में तीव्रता से वृद्धि हुई है और उनके अधिक उपयोग के फल स्वरुप गरीब तथा अन्य वर्गों के बीच अंतराल बढ़ गया है।

निष्कर्ष 

उपर्युक्त उपलब्धियां के बावजूद उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण भारत में पाई जाने वाली सभी समस्याओं के समाधान के लिए संजीवनी बूटी साबित नहीं हुए हैं। इन प्रक्रियाओं को प्रारंभ हुई एक डेढ़ दशक होने को है परंतु अनेक समस्याएं यथावत बनी हुई है।

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