राष्ट्रमंडल (commonwealth)
राष्ट्रमंडल उन देशों का संगठन है, जो कभी अंग्रेजों के अधीन थे और जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ब्रिटेन के साथ लगभग समानता के संबंध स्थापित कर लिए हैं। राष्ट्रमंडल कोई निश्चित उत्तरदायित्वों वाला कठोर वैधानिक या सैनिक संगठन नहीं है। राष्ट्रमंडल के सभी राष्ट्र स्वतंत्र और सामान है और इनमें ब्रिटिश सम्राट के प्रति किसी प्रकार की राजभक्ति या निष्ठा होना अनिवार्य नहीं है। कनाडा के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पियर्सन के अनुसार, “राष्ट्रमंडल एक राजनीतिक इकाई नहीं है। यह एक समझौता भी नहीं है। इसकी कोई सामान्य नीति नहीं है। राष्ट्रमंडल के सदस्य राष्ट्र विश्व मामलों में अपने पृथक निर्णय करते हैं और इनमें से कोई भी अपने इस अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।” राष्ट्रमंडल के राज्यों की पहचान यह है कि उनके राजदूत एक दूसरे के देश में ‘उच्चायुक्त’ कहे जाते हैं। राष्ट्रमंडल के सदस्य राष्ट्र अपनी इच्छा के अनुसार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीति को अपनाते हैं और व्यवहार में भी अंतरराष्ट्रीय मामलों पर उनमें विचारों में भिन्नता देखी जाती है।
राष्ट्रमंडल के सदस्यता के लिए यह आवश्यक है कि इसका सदस्य केवल वही राष्ट्र हो सकता है जिसमें लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था विद्यमान हो। सैनिक तन साहू द्वारा शासित देश इस संगठन के सदस्य नहीं हो सकते हैं। राष्ट्रमंडल देशों के महासचिव इमेका अन्याओकू ने कहा है, “सही मायने में राष्ट्रमंडल अब लोकतांत्रिक देश का संगठन बन गया है।”
राष्ट्रमंडल के उद्देश्य (Commonwealth objectives)
(1) प्रजातंत्र का आदर्श और मौलिक मानवीय अधिकारों की प्राप्ति।
(2) प्रधानमंत्री राजनीति में आधिकारिक पारस्परिक सहयोग।
(3) सांस्कृतिक गतिविधियों का आदान-प्रदान करना तथा खेलकूद आदि की प्रतियोगिताएं आयोजित करना आदि।
(4) आर्थिक कल्याण अथवा सामान्य हित के लिए अग्रसर होना तथा अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक तथा मानव कल्याण संबंधी समस्याओं का निराकरण करना।
(5) सदस्य राष्ट्रों में मैत्रीपूर्ण संबंध तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि करना।
वर्तमान समय में राष्ट्रमंडल के सदस्य संख्या 54 है। राष्ट्रमंडल एक सहयोग मंडल के रूप में कार्य कर रहा है और उसके अस्तित्व से किसी भी राष्ट्र की प्रभु शक्ति अथवा स्वतंत्र विदेश नीति पर कोई आघात नहीं पहुंचा है।
राष्ट्रमंडल और भारत
स्वतंत्रता आंदोलन की कालावधि में कांग्रेस राष्ट्रमंडल के सदस्यता को त्यागने की वकालत करती थी, परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस संबंध में व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया गया तथा यह निश्चित किया गया कि भारत को राष्ट्रमंडल का सदस्य रहना चाहिए क्योंकि इससे राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों ही लाभ है। निम्नलिखित तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि भारत में सदैव ही स्वतंत्र विदेश नीति का संचालन किया है। जब सन 1956 ईस्वी में ब्रिटेन और मिस्र के बीच स्वेज नहर को लेकर संघर्ष आरंभ हुआ, तब राष्ट्रमंडल के सदस्य होते हुए भी भारत ने मिस्र का पक्ष लिया और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीति का घोर विरोध करते हुए अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का प्रमाण दिया। इसी प्रकार मार्च 1962 ईस्वी में आयोजित राष्ट्रमंडलीय सम्मेलन में भारत ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति की तीव्र आलोचना की। ब्रिटेन के यूरोपीय सांझ बाजार में सम्मिलित होने के प्रश्न पर भी भारत ने अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त किए।
★ जब 1962 ईस्वी में चीन ने हमारे देश पर आक्रमण किया तो पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सदस्यों ने भारत का ही समर्थन किया और भारत की विभिन्न प्रकार से सहायता की। ब्रिटेन ने भी चीन की साम्राज्यवादी नीति का विरोध किया और अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य प्रकार से हमारी सहायता की।
★ 13 से 15 नवंबर 1999 ई तक डरबन में राष्ट्रमंडल देशों के शासनाध्यक्षों के चार दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल ने इसमें भाग लिया। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने पाकिस्तान की सैनिक शासन की कटु आलोचना की। भारत ने पाकिस्तान के राष्ट्रमंडल देशों की सदस्यता से निलंबन की मांग की तथा बैठक के पहले ही दिन राष्ट्रमंडल के 6 सदस्य देशों ने इस संगठन से पाकिस्तान के निलंबन की मांग की पुष्टि कर दी।
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