मताधिकार (matadhikar)
आज का युग प्रजातंत्र का युग है। प्रजातंत्र दो प्रकार का होता है– प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष प्रजातंत्र में जनता प्रत्यक्ष रूप से शासन में भाग लेती है। आधुनिक बड़े राज्यों में प्रजातंत्र का यह रूप संभव नहीं है। आज प्रजातंत्र का जो रूप प्रचलित है वह अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र है, जिसे ‘प्रतिनिध्यात्मक प्रजातंत्र’ भी कहा जाता है। इस प्रकार के प्रजातंत्र के अंतर्गत जनता ही अपने उन प्रतिनिधियों को निर्वाचित करती है जो शासन चलाते हैं। इन प्रतिनिधियों के निर्वाचन के अधिकार को ही ‘मताधिकार’ (Right To Vote) कहते हैं।
मताधिकार के प्रकार
matadhikar ke prakar; मताधिकार दो प्रकार का होते हैं –
(1) सीमित मताधिकार
(2) सार्वभौमिक तथा वयस्क मताधिकार।
(1) सीमित मताधिकार
सीमित मताधिकार का अर्थ यह है की संपूर्ण समाज के कल्याण को ध्यान में रखकर यह अधिकार केवल ऐसे लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जिनमें इसके प्रयोग की योग्यता व क्षमता हो। ब्लंश्ली,जे०एस० मिल, हेनरीमेन, सिजविक एवं लेकी इसी विचार के समर्थक हैं। जॉन स्टुअर्ट मिल का कथन है, कि “वोटों को गिनना नहीं, वरन् तौलना चाहिए।” आशय यह है कि मताधिकार प्रबुद्ध वर्ग को ही दिया जाना चाहिए। इन विचारों का मत है की संपूर्ण समाज के हित को ध्यान में रखते हुए मताधिकार केवल ऐसे लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जो इसकी योग्यता रखते हों । ये विचारक संपत्ति, शिक्षा अथवा लिंग को ही आधार मानकर मतदान को सीमित करना चाहते हैं। मिल का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि मतदान का अधिकार केवल उस व्यक्ति को ही प्रदत्त किया जाना चाहिए, जो लिखना, पढ़ना जानता हो तथा गणित का ज्ञान रखता हो। इसलिए इसे ‘सीमित मताधिकार’ कहा जाता है। मताधिकार के इन आधारों पर सीमित किया जा सकता है–
1- संपत्ति के आधार पर
संपत्ति के आधार पर मताधिकार को सीमित करने के समर्थक (विचारक) कहते हैं कि मताधिकार केवल उन नागरिकों को ही प्रदान किया जाना चाहिए, जिनके पास कुछ संपत्ति हो तथा जो कर देते हों । यदि संपत्तिविहीन या कर ना देने वालों को यह अधिकार दिया गया तो वह ऐसे व्यक्तियों को निर्वाचित करेंगे, जो क्रांतिकारी कानून के आधार पर धनिकों की संपत्ति हस्तगत करेंगे तथा धनिकों पर अधिक से अधिक कर लगाएँगे।
समीक्षा— व्यवहारिक दृष्टिकोण से संपत्ति के आधार पर मताधिकार को सीमित करना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। कानून सभी के लिए समान होते हैं इसलिए मताधिकार सबको प्राप्त होना चाहिए। मताधिकार हेतु संपत्ति, बुद्धि, इमानदारी या देशभक्ति का कोई भी मापदंड निर्धारित किया जाना उचित नहीं है। निर्धनों को भी अपनी सुरक्षा चाहिए। इसलिए मताधिकार हेतु संपत्ति संबंधित योग्यता होनी आवश्यक नहीं होनी चाहिए।
2- शिक्षा के आधार पर
शिक्षा पर आधारित मताधिकार के समर्थक मानते हैं कि अशिक्षित व्यक्तियों को मताधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार अशिक्षित व्यक्तियों में समझदारी नहीं होती है। वे राजनीति की को नहीं समझते तथा जाति, धर्म और रिश्ते नाते से प्रभावित हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरुप वह गलत निर्णय ले सकते हैं।
समीक्षा— वस्तुत: शिक्षा भी मताधिकार का निर्धारक तत्व अथवा आधार नहीं हो सकती है। कानून सभी के लिए बनते हैं और सभी को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए। अशिक्षित व्यक्ति भी राजनीतिक दृष्टि से जागरूक हो सकता है। अकबर, शिवाजी, हैदर अली, रणजीत सिंह साक्षर नहीं थे, लेकिन इसके उपरांत भी वे महान राजनीतिक सूझबूझ रखते थे। साक्षर व्यक्ति भी उन दोषों से ग्रसित हो सकता है, जो निरक्षर के लिए गिनाए जाते हैं। अतः शिक्षा के आधार पर मताधिकार का निर्धारण करना अनुचित है।
3- लिंग के आधार पर
कुछ विचारक स्त्रियों को मताधिकार देना नहीं चाहते। इनका मत है कि स्त्रियाँ अनुदार होती हैं , वह पतियों की इच्छा से मात देती हैं तथा उन्हें सार्वजनिक जीवन में नहीं आना चाहिए। इसके अतिरिक्त वे सब कार्य भी (सेना व पुलिस आदि के) नहीं कर सकती हैं। प्रारंभ में इन्हीं आधारों पर स्त्रियों को मताधिकार प्राप्त नहीं था। ब्रिटेन तथा स्विट्जरलैंड जैसे लोकतांत्रिक देश में भी महिलाओं को मतदान का अधिकार क्रमशः 1928 तथा 1973 में प्रदान किया गया था।
समीक्षा– आज स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं माना जाता है। वे सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अपने दायित्वों का निर्वाह करती हैं। वे ऊंचे से ऊंचे पदों पर कार्यरत हैं। अतः अन्य बातों में समान होने पर मात्र लिंग के आधार पर उनके साथ भेदभाव करना अनुचित है। भारत के संविधान में लिंगगत किसी भी प्रकार के भेदभाव का उल्लेख नहीं किया गया है। दूसरे ओर राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों के अंतर्गत महिलाओं के लिए अनेक विशेष अधिकारों का प्रावधान किया गया है। आज विश्व में लगभग सभी देशों में स्त्रियों को समान रूप से मताधिकार प्राप्त हैं।
(2) सार्वभौमिक तथा वयस्क मताधिकार
सार्वभौमिक या व्यस्क के मताधिकार से तात्पर्य है कि मतदान का अधिकार एक निश्चित आयु के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, व्यस्क मताधिकार का आशय यह है कि दिवालिया, पागल व अन्य किसी प्रकार की अयोग्यता वाले नागरिकों को छोड़कर अन्य सभी वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। मताधिकार प्राप्त करने की दशा में संपत्ति, लिंग या शिक्षा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। माण्टेस्क्यू, रूसो, पेन इत्यादि विचारक वयस्क मताधिकार के समर्थक हैं। आज विश्वके लगभग सभी देशों में व्यस्क मताधिकार को ही निर्वाचन का आधार बनाया गया है तथा 18 वर्षी या इससे अधिक आयु के प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार प्राप्त किया गया है।। उल्लेखनीय है कि 61वें संविधान संशोधन से पहले भारत में मताधिकार की न्यूनतम आयु 21 वर्ष थी।
important short questions and answers
भारत में सार्वभौमिक व्यष्क मताधिकार कब से लागू हुआ?
भारत में सार्वभौमिक व्यष्क मताधिकार 26 जनवरी,1950 से लागू हुआ।
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को सर्वप्रथम किस देश ने लागू किया था?
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को सर्वप्रथम न्यूजीलैंड देश ने लागू किया था।
सार्वभौमिक मताधिकार से आप क्या समझते हैं?
सार्वभौमिक या व्यस्क के मताधिकार से तात्पर्य है कि मतदान का अधिकार एक निश्चित आयु के नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होना चाहिए।
भारत में सर्वप्रथम सार्वभौमिक मताधिकार का प्रयोग कहां किया गया?
भारतीय सर्वप्रथम शाहरुख अधिकार का प्रयोग 1952 में हुआ था, जब देश ने अपने पहले लोकसभा चुनाव को आयोजित किया था।
मताधिकार के कितने प्रकार हैं?
मताधिकार के दो प्रकार हैं— (1) सीमित अधिकार तथा (2) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार।
वोट देने का अधिकार किस प्रकार का अधिकार है?
वोट देने का अधिकार एक इस प्रकार का अधिकार है जिसमें जनता वोट देकर अपना प्रतिनिधित्व खुद चुनती है।
वोट देने का अधिकार किस आर्टिकल में है?
वोट देने का अधिकार 326 आर्टिकल में है।
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