जाति व्यवस्था के गुण और दोष
जाति व्यवस्था का इतिहास हजारों वर्ष का है। वास्तव में, भारतीय समाज में जाति व्यवस्था द्वारा अनेक कार्य संपन्न होते आए हैं और आज भी हो रहे हैं। अनेक देशों के होते हुए भी, आज भी जाति व्यवस्था का महत्व किसी न किसी रूप में बना हुआ है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है की जाती प्राचीन काल से आज तक भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विशेष भूमिका निभाती रही है। हमारे सामाजिक जीवन में जाति व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति का निर्धारण करना।
जाति व्यवस्था के प्रमुख गुण
(1) मानसिक सुरक्षा
जाति अपने सदस्यों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करती है। जाति का निर्धारण जन्म से होता है अथवा व्यक्ति को व्यवसाय, विवाह-संबंध आदि के विषय में विशेष सोचना नहीं पड़ता। जन्म लेने के पश्चात ही जाती व्यक्ति को एक स्थिर पर्यावरण प्रदान करती है अतः वह बिना किसी प्रकार का कोई मानसिक कष्ट उठाएं निश्चित एवं पूर्व निर्धारित योजनाओं के अनुसार कार्य करने लगता है। उसकी जीविका तक का निर्धारण जाती द्वारा होता है। इसे सबसे व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक अथवा मानसिक सुरक्षा मिलती है।
(2) सामाजिक सुरक्षा
जाति व्यवस्था अपने सदस्यों को हर प्रकार की सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। जब व्यक्ति असहाय होता है या किसी कठिनाई में फंस जाता है तो जाति के समस्त सदस्य किसी न किसी रूप में उसकी सहायता करते हैं। व्यक्ति सोचता है कि वह अकेला नहीं है, उसकी जाति के अन्य लोग उसके साथ हैं।
(3) समाज में स्थिरता
हमारे समाज में आज भी मानसिक स्थिरता दिखाई देती है, जिसका मूल कारण जाति व्यवस्था है। जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज का ढांचा और परिवर्तनशील है; और जब सामाजिक ढांचा आप परिवर्तनशील होता है तो उसमें स्थिरता होती है। व्यक्ति का स्तर, जीविका तथा पद जाति व्यवस्था द्वारा निश्चित होते हैं अतः समाज में स्थिरता बनी रहती है।
(4) व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि
जाति व्यवस्था के कारण व्यक्ति जन्म से ही अपने व्यवसाय में लग जाता है और निपुणता प्राप्त कर लेता है। इस विषय में एक विद्वान का कथन है कि कार्य कुशलता में वृद्धि जाति व्यवस्था द्वारा हुई है। एक चर्मकार का पुत्र जूता बनाना जितना अच्छा जान सकता है उतना अन्य कोई नहीं जान सकता है क्योंकि बचपन से ही वह यही कार्य करता आ रहा है। लोहार के पुत्र को अच्छी प्रकार ज्ञात रहता है कि लोहा कितना गर्म करके पिटा जाना चाहिए। इसी प्रकार व्यापारी का पुत्र व्यापार की बातें अधिक शीघ्रतापूर्वक समझ जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है की जाति व्यवस्था व्यावसायिक प्रशिक्षण का केंद्र है।
(5) प्राचीन परंपराओं की रक्षा
जाति व्यवस्था ने हमारी प्राचीन परंपराओं के संरक्षण में महान योगदान दिया है। प्रत्येक जाति अपनी परंपराओं की रक्षा करने में प्रत्येक प्रकार का प्रयास करती है और अपनी परंपराओं का परित्याग नहीं करना चाहती। जाति द्वारा ही प्राचीन परंपराओं का हस्तांतरण भी होता है।
जाति व्यवस्था के दोष (हानियां)
जाति व्यवस्था के अनेक लाभ हैं लेकिन इसने भारतीय सामाजिक संगठन को पर्याप्त कल तक स्थिरता व दृढ़ता प्रदान की है, परंतु समय और परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ जाति व्यवस्था के स्वरूप में अनेक परिवर्तन आ गए हैं तथा उनके दोष भी उभर कर सामने आने लगे हैं। जाति व्यवस्था के कुछ प्रमुख दोष इस प्रकार हैं—
(1) राष्ट्रीय एकता में बाधक
जाति व्यवस्थाओं ने हिंदू समाज को अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभाजित कर दिया है। इस विभाजन के फलस्वरूप हिंदू समाज की एकता को गहरा आघात पहुंचा है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण संकुचित हो गया है। वह पूरे राष्ट्र के प्रति जागरूक रहने के स्थान पर केवल अपनी जाति के हितों को अधिक महत्व देने लगा है तथा उसकी निष्ठा भी राष्ट्र की अपेक्षा जातिवाद के कारण अपनी जाति तक ही सीमित रह गई है।
(2) अप्रजातान्त्रिक
जाति व्यवस्था पूर्ण रूप से अप्रजातांत्रिक है। यह व्यवस्था सामान्य की भावनाओं पर कुठार घाट करती है तथा इसने समाज में उच्च नीच की भावनाओं को जन्म दिया है। प्रजातंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति करने का समान अधिकार होता है, परंतु जाति व्यवस्था द्वारा निम्न जातियों के सदस्यों को इस अधिकार से युगों तक वंचित रखा गया। आसमान को महत्व देने वाली जाति प्रथा अप्रजातान्त्रिक है।
(3) आर्थिक विविधता
आर्थिक विकास की दृष्टि से भी जनजातियों में विविधता के दर्शन होते हैं। कुछ जनजातीय आज भी वनों में खाद्यान्न संग्रह एवं शिकार पर निर्भर हैं। कुछ जनजातीय पशुपालक एवं चरागाही है। आज भी कुछ जनजातीय झूम खेती कर रही हैं। ऐसी जनजातीय भी है जो स्थाई खेती करने लगी है अथवा और जोगिकरण के प्रभाव में आ गई है और कारखानों व खाद्यान्न क्षेत्र में मजदूरों के रूप में काम कर रही है।
(4) युवा ग्रह की दृष्टि से विविधता
कुछ जनजातियों में युवा ग्रह जैसी संस्था भी पाई जाती हैं जिसमें किशोर किशोरियों अपना जीवन व्यतीत करते हैं। यह प्रथा मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार और नागालैंड की जनजातियों में भी पायी जाती है। वास्तव में, ये युवा गृह शिक्षा संस्थानों का काम भी करते हैं। इनमें सामूहिक गान, जितिया तथा कहानियों के माध्यम से न केवल भावी जीवन की तैयारी की जाती है बल्कि जनजाति की संस्कृति का भी नहीं पीढ़ी को हस्तांतरण होता है।
(5) बाह्य संपर्क में विविधता
अंतिम रूप से, प्रमुख संस्कृति के साथ संपर्क एवं सामंजस्य का स्तर भी प्रत्येक जनजाति का अलग-अलग है। कुछ जनजातीय अभी मुख्य संस्कृत धारा से अपेक्षाकृत दूर है, कुछ जनजातियां परसंस्कृतिग्रहण (Acculturation) की प्रक्रिया से गुजर रही है तथा कुछ जनजातीय ऐसी भी है जो मुख्य संस्कृत धारा के साथ पूर्ण आत्मसात के स्तर पर पहुंच गई है और हिंदू सामाजिक व्यवस्था में एक पृथक जाति के रूप में स्थापित हो गई है।
निष्कर्ष
इन सभी उपयुक्त विवेचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जनजातीय संस्कृतियों में खानपान व पहनावे में, प्रथम एवं रीति रिवाज में विविध प्रकार के भिन्नताएं पाई जाती। जनजातियों का पहनावा ही अपनी प्रथकता लिए हुए नहीं है, अभी तू जनजाति के लोग धर्म तथा जादू द्वारा बीमारियों तक का इलाज करते हैं। विवाह के क्षेत्र में भी विविधता पाई जाती है।
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