धर्म (अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं)
Dharm kya hai ; प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति धर्म से अनिवार्य रूप से परिचित होता है तथा किसी न किसी रूप में अपने जीवन में धार्मिक क्रियाओं को भी संपन्न करता है। परंतु फिर भी धर्म का अर्थ एकाएक स्पष्ट कर देना प्रायः हो सरल नहीं होता। धर्म की अवधारणा एक जटिल एवं बहुपक्षीय अवधारणा है; अतः इसका वर्णन कुछ सीमित शब्दों में करना प्रायः कठिन होता है। यूं तो विश्व में अनेक धर्मों की स्थापना हुई है, परंतु वास्तव में धर्म एवं धार्मिक प्रवृत्ति प्रत्येक स्थान पर एक समान ही है, अंतर केवल बाहरी रूप का है। धर्म को अलग-अलग नाम देना धर्मवाद का प्रतीक है।
धर्म का अर्थ एवं परिभाषाएं
धर्म को अंग्रेजी में रिलिजन कहते हैं, जो लेटिन भाषा के ‘Religion’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है ‘बांधना’। इस प्रकार शाब्दिक अर्थों में ‘धर्म’ का अभिप्राय पूर्ण संस्कारों के प्रतिपादक से है जो मनुष्य और ईश्वर या अलौकिक शक्ति को एक दूसरे से बढ़ते या जोड़ते हैं। अन्य शब्दों में, धर्म मनुष्य के युगों से विद्यमान उसे श्रद्धा का नाम है जो सर्वशक्तिमान के प्रति होती है।
धर्म की विभिन्न विद्वानों ने कुछ निम्नलिखित परिभाषाएं दी हैं जो कुछ इस प्रकार है—
(1) जॉनसन के अनुसार,— “धर्म काम या अधिक रूप में उच्च अलौकिक व्यवस्था या प्राणियों, शक्तियों, स्थान एवं अन्य तत्वों के संबंध में विश्वासों एवं व्यवहारों की एक स्थिर प्रणाली है।”
(2) मैलिनोव्स्की के अनुसार — “धर्म क्रिया का एक तरीका है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था भी, और धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ एक व्यक्तिगत अनुभव भी है।”
(3) फ्रेजर के अनुसार — “धर्म से मैं मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधना समझता हूं, जिसे संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि वह प्रकृति और मानव जीवन को मार्ग दिखाती और नियंत्रित करती है।”
समाज में धर्म की भूमिका अथवा विशेषताएं
समाज में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह सामाजिक नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली साधन है। धर्म के सामाजिक महत्व को इसके निम्नलिखित कार्यों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) संस्कृति का अंग
धर्म और संस्कृति में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। अन्य शब्दों में, धर्म संस्कृति का एक अंग होता है और इसके माध्यम से ही समाज अपनी संस्कृति का प्रचलन करता है। संस्कृति द्वारा धर्म का निर्धारण होता है।
(2) नैतिकता का आधार
धर्म को यदि नैतिकता का आधार कहा जाए तो यह अनुचित नहीं होगा। धर्म और नैतिकता में परस्पर घनिष्ठ से संबंध है। प्रत्येक समाज के नैतिकता का आधार धर्म होता है। धर्म बताता है कि अनैतिक कार्यों का परिणाम बुरा होता है तथा बड़ा काम करने वाले को नरक मिलता है। इन विचारों से भी सामाजिक नियंत्रण में सहायता मिलती है।
(3) सामाजिक नियंत्रण में सहायक
धर्म का मुख्य कार्य सामाजिक नियंत्रण रहा है। अतीत काल से ही धर्म मनुष्यों को बताता आया है कि बुरे कार्यों का परिणाम बुरा ही होता है और अच्छे कार्यों का परिणाम अच्छा ही होता है। धर्म के प्रभाव के कारण ही दुश्चरित्र एवं भ्रष्ट्रीय व्यक्तियों ने बुरे कार्यों का प्रत्याग कर दिया और लोक प्रेम, सहयोग और परोपकार के जीवन या व्यवहार को विशेष महत्व देने लगे। इस प्रकार धीरे-धीरे सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में धर्म के दो स्वरूप हो गए— (1) भय का धर्म, जो व्यक्ति को बुरे पाप पूर्ण कृत्य करने से रूकता था; (2) विश्वास का धर्म, जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति अपनी अंतरात्मा को शुद्ध करता था तथा समाज में प्रेम और सहयोग के साथ जीवन व्यतीत करता था।
(4) परिवार की एकता को सुदृढ़ करना
धर्म परिवार को एकता के सूत्र में बांधता। एक परिवार के सभी सदस्य एक सी धार्मिक क्रियाएं करते हैं, एक ही देवी देवता की पूजा करते हैं तथा धार्मिक समारोह मनाते हैं। धर्म ही विवाह, आचरण तथा पिता पुत्र, पति-पत्नी के बंधनों पर प्रकाश डालता है।
(5) कल्याणकारी भावना को प्रोत्साहित करना
प्रत्येक धर्म परोपकार, दान और दया को महत्व देता है। धार्मिक भावनाएं ही धनिकों को धर्मशाला, विश्रामगृह, विद्यालय तथा औषधालय आदि बनवाने के लिए उत्साहित करती है। धर्म समाज में कल्याणकारी कार्यों के लिए सर्वसाधारण को उत्साहित करना उत्कृष्ट है। धर्म समाज, अपने सिद्धांतों और मूल्यों के माध्यम से, समाज के हर व्यक्ति को नैतिकता, सेवा, और सामाजिक न्याय की दिशा में प्रेरित करता है। यह सभी को सामाजिक समर्थन और आत्मनिर्भरता की भावना से युक्त करता है, ताकि समृद्धि और सामाजिक समानता के माध्यम से समृद्ध समाज की दिशा में सहयोग कर सकें।
(6) कलात्मक विकास में योगदान देना
धर्म का कल के विकास में अपना विशेष योगदान रहा है। धर्म से प्रेरित होकर अनेक काव्य और कथा ग्रंथों की रचना हुई। इसी प्रकार अनेक मंदिरों मस्जिदों और चर्चाओं का निर्माण भी धार्मिक परिणाम का फल है। धर्म भावनाओं से प्रेरित कलाकार अत्यंत तनमय्यता से सृजन कार्य में लेने होते हैं।
(7) अध्यात्मवाद को प्रोत्साहित करना
धर्म व्यक्ति को बताता है कि संसार से परे भी कोई शक्ति होती है जो व्यक्ति को आपत्ति या संकट के समय बचा सकती है। बताओ धर्म ही व्यक्ति को भौतिकता से परी हटाकर आध्यात्मवाद की ओर ले जाता है। इस प्रकार धर्म भौतिकता तथा आध्यात्मिकता में समन्वय करके में संतुलन बनाए रखना है।
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