वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत
varn vyavastha ki utpati ke Siddhant; वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में अनेक प्रकार के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। प्रत्येक सिद्धांत किसी विशेष तर्क पर आधारित है जिसकी आधुनिक युग में पुष्टि करना संभव नहीं है। इन सिद्धांतों में ऋग्वेद, उपनिषदों एवं महाभारत में प्रतिपादित सिद्धांत, इतिहासज्ञों और भारतीय विद्या शास्त्रियों (इण्डोलोजिस्ट) का प्रजातीय संपर्क और सांस्कृतिक संघर्ष का सिद्धांत तथा सामाजिक सिद्धांत प्रमुख है।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के प्रमुख सिद्धांत
(1) हिंदू शास्त्रों में प्रतिपादित सिद्धांत
सभी हिंदू शास्त्रों में वर्ण की उत्पत्ति संबंधी विस्तृत उल्लेख मिलता है। उदाहरण— ‘ऋग्वेद’ के पुरुष सूक्त में एक अलौकिक और विराट परमपुरुष की चर्चा आती है और इसी के द्वारा सारी प्रकृति की उत्पत्ति हुई। इसी पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु (भुजाओं) से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों (चरणों) से शुद्ध उत्पन्न हुए हैं। अतः वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एक ईश्वरीय व्यवस्था है। परंतु आज इसकी प्रामाणिकता कुछ भी नहीं है। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्मा ने पहले से ही चार वर्ण नहीं बनाई बल्कि आरंभ में केवल एक ही वर्ण अर्थात ब्राह्मण पैदा हुए, परंतु उससे ही जब समाज की समृद्धि संभावना हो सके तो कल्याण की प्राप्ति के लिए क्षत्रिय, फिर वैश्य और शूद्र वर्ण की क्रमशः रचना की गई और उससे भी जब कल्याण संभव नहीं हो पाया तो धर्म अवतरित हुआ। यह सिद्धांत भी रहस्यात्मक विचार को ही प्रतिपादित करता है। इसी प्रकार महाभारत के अनुशासन पर्व में भी वर्ण की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है जिसमें यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है कि समस्त वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के एक ही अंग से नहीं हुई है और इसी से उनमें गुण भेद उत्पन्न हुआ है।
(1) सामाजिक सिद्धांत
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का एक सर्वाधिक मान्य सिद्धांत समाजशास्त्र द्वारा प्रतिपादित किया गया है जो इस व्यवस्था की सामाजिक आर्थिक आवश्यकता पर आधारित है। यह विचारधारा कार्ल मार्क्स की आर्थिक सिद्धांत से प्रभावित है। कुछ विद्वान यह मानते हैं की जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का ही एक रूप है जो सतत वह स्थायी सामाजिक और आर्थिक आवश्यकता के कारण अस्तित्व में आई है। इस सिद्धांत की यह मानता है कि वर्ण व्यवस्था सामाजिक आवश्यकता और परिस्थिति की उत्पत्ति है। वैदिक काल में मुख्य रूप से चार प्रकार की आवश्यकताएं थी— विद्या एवं ज्ञान संबंधी, सट्टा एवं समाज की रक्षा संबंधी, आर्थिक क्रिया की पूर्ति संबंधी तथा सेवा संबंधी। इन्हीं के अनुरूप समाज में चार वर्णों की उत्पत्ति हुई।
(3) इतिहासज्ञो और भारतीय विद्या शास्त्रियों का प्रजाति संपर्क एवं सांस्कृतिक संघर्ष का सिद्धांत
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति (Origin of caste system) के संबंध में दूसरी विचारधारा इतिहासकारों और भारत विद्या शास्त्रियों ने दी है। इन विचारों की यह मानता है कि आर्यों के समय में कार्य विशेषीकरण की प्रक्रिया भारत में आ चुकी थी। वेदों में आर्य और अनार्यो के लिए आर्य वर्ण और दास वर्ण का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार, विभिन्न जातियां ही वर्ण व्यवस्था का रूप लेती गई। डी० एन० मजूमदार ने भी जाति और वाणी व्यवस्था का मूल आधार संस्कृत संघर्ष और प्रजातीय संपर्क माना है। इरावती कर्वे का भी ऐसा ही मत है।
निष्कर्ष (conclusion)
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति का देवी सिद्धांत आधुनिक प्रक्षेप में तर्कसंगत नहीं लगता। प्राचीन साहित्य के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्ण का संबंध देवता की अपेक्षा गुण तथा कर्म से अधिक था। वस्तुत: कर्म ही इसी व्यवस्था की उत्पत्ति में प्रधान तत्व प्रतीत होता है। गीता में चारों वर्गों के गुणों का वर्णन मिलता है। सामाजिक विषमताओं नए शुद्ध को अपेक्षित माना और किसी भी विशेषाधिकार से हीन कर दिया।
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