तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92)
मैसूर का तीसरा युद्ध अंग्रेजों तथा मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के मध्य लड़ा गया था। तृतीय मैसूर युद्ध (Third Anglo-Mysore War) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण संघर्ष था जो 1790 से 1792 तक चला। यह युद्ध ब्रिटिश पूर्व इंडिया कंपनी और मैसूर के सुल्तान टीपू सुल्तान के बीच लड़ा गया था।
यह युद्ध पहले और दूसरे मैसूर युद्ध के बाद हुआ था। इस युद्ध का प्रमुख कारण टीपू सुल्तान की नियति और उसकी ब्रिटिश कंपनी के साथ विरोधाभासी रवैया थी। टीपू सुल्तान के खिलाफ हुए युद्ध में ब्रिटिश कंपनी को मराठा सहायता मिली, जिससे वह युद्ध को अपनी बढ़िया के लिए फर्जी रूप से जीत सका।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण
(1) पारस्परिक सन्देह
सन् 1784 में टीपू सुल्तान तथा अंग्रेजों के बीच मंगलौर की संधि के अनुसार शांति स्थापित हो गई थी, परंतु यह शांति अस्थायी सिद्ध हुई। यथार्थ में टीपू सुल्तान तथा अंग्रेजों दोनों को ही एक दूसरे पर विश्वास नहीं था। इसी कारण दोनों ही शांतिपूर्ण ढंग से एक दूसरे की विरुद्ध युद्ध की तैयारी कर रहे थे। इन परिस्थितियों में युद्ध को नहीं रोका जा सकता था।
(2) टीपू सुल्तान का फ्रांसीसियों से गठबंधन
यूरोप में सन 1789 में फ्रांस की राज्य क्रांति प्रारंभ हो जाने के कारण इंग्लैंड को आशंका थी कि उनका किसी भी समय फ्रांस से संघर्ष आरंभ हो सकता है। टीपू सुल्तान रेजो पर जवाब डालने के उद्देश्य से इस स्थिति का लाभ उठाना जाता था। उसने फ्रांसीसी सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से सन 1787 ईस्वी में अपने राजदूत भी फ्रांस भेज दिए। इससे टीपू सुल्तान को कोई लाभ हुआ अथवा नहीं, परंतु अंग्रेजों की हृदय में संदेह अवश्य पैदा हो गया।
(3) लार्ड कार्नवालिस का टीपू को अकेला छोड़ने का प्रयास
टीपू सुल्तान के फ्रांसीसियों के गठबंधन करने के प्रयासों को देखकर लॉर्ड कार्नवालिस ने भी उसे अन्य राजनीतिक शक्तियों से अलग करके अकेला करने का प्रयास किया। उसने मराठों और हैदराबाद के निजामो को लालच देकर अपना समर्थन बना लिया उसने इन दोनों से अलग-अलग संधियां भी कर ली।
(4) टीपू सुल्तान ट्रावनकोर के राजा पर आक्रमण
टीपू सुल्तान का विचार की उसका समुद्र तक पहुंचना बहुत आवश्यक था, क्योंकि इस स्थिति में वह फ्रांसीसियों को सहायता प्राप्त कर सकता था। गुंटूर के हाथ से निकल जाने पर उसने समुद्र तक पहुंचाने के विचार से ट्रावनकोर के हिंदू राजा पर आक्रमण कर दिया। वहां के ही शासन को अंग्रेजों की संरक्षता प्राप्त थी अतः अंग्रेजों ने उसकी सहायता की और इस प्रकार सन 1790 ई० में तृतीय मैसूर युद्ध आरंभ हुआ। यह युद्ध सन् 1792 ई० में समाप्त हुआ।
(5) गुन्टूर का मामला
गुन्टूर के मामले के कारण भी अंग्रेजों और टीपू की मतभेदों में और कटुता आ गई। हैदराबाद के निजाम तथा टीपू सुल्तान दोनों के लिए वह समुद्र तट तक पहुंचाने का एक ही साधन था। द्वितीय मैसूर युद्ध की समाप्ति के समय वार्न हेस्टिंग्स ने हैदराबाद के निजाम को यह प्रदेश वापस कर दिया था। परंतु लार्ड कार्नवालिस ने अब इस प्रदेश का महत्व समणकर हैदराबाद के निजाम से प्रदेश को वापस ले लिया। इसके बदले में हैदराबाद की निजाम कोई और आश्वासन दिया गया कि टीपू सुल्तान ने निजाम के जिन प्रदेशों पर विजय प्राप्त कर ली है, अंग्रेज उन्हें वापस दिलाने का प्रयास करेंगे।
तृतीय मैसूर युद्ध (Third Anglo-Mysore War) युद्ध की घटनाएं
इस युद्ध में हैदराबाद के निजाम तथा मराठों ने अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अंग्रेजों के साथ सहयोग किया। आरंभ में अंग्रेजों को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। जनरल मीडोज 1 वर्ष निरर्थक करके भी कुछ प्राप्त न कर सका ऐसी स्थिति में कार्नवालिस चिंतित हो उठा तथा क्रोध से चिल्लाया, “हमने समय को दिया हमारे प्रतिद्वंद्वी ने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि कर ली। यह दोनों ही बातें युद्ध में अत्यंत महत्व पूर्ण होती है।”
टीपू सुल्तान के युद्ध कौशल की इससे अधिक प्रसंसा नहीं की जा सकती। वह विवश होकर लार्ड कार्नवालिस ने वर्ष स्वयं ही सेना का संचालन किया। सन् 1791 में बैंगलोर पर अधिकार करने के बाद वह टीपू सुल्तान की राजधानी श्रीरंगपट्टनम के अत्यंत निकट पहुंच गया। इसी बीच वर्षा ऋतु आरंभ हो गई तथा अंग्रेजों की रसद समाप्त हो गई, अतः गवर्नर जनरल की कुछ समय के लिए युद्ध स्थगित करना पड़ा तथा पीछे हटना पड़ा। बरसात के उपरांत दिसंबर में पुनः युद्ध की शुरुआत हुई और टीपू सुल्तान ने आगे बढ़कर कोयंबटूर पर कब्जा। इस समय के चलते सिरार्गा पीठ युद्ध का दौर शुरू हुआ, जो ब्रिटिश और महसूस सुल्तानी सेवा के बीच हुआ इस युद्ध में मराठों और निजाम निरंतर टीपू सुल्तान का समर्थन कर रहे थे।
तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध के परिणाम
तृतीय मैसूर युद्ध की समाप्ति मार्च 1992 की श्रीरंगपट्टनम की संधि के साथ हुई। इस संधि की प्रमुख धाराएंक कुछ इस प्रकार थी —
(1) टीपू को लगभग अपनी आधे राज्य से वंचित होना पड़ा। इस राज्य को मराठों,निजाम और अंग्रेजों ने आपस में बाँट लिया। अंग्रेजों को पश्चिम में मालाबार, दक्षिण में डिण्डीगुल तथा पूर्व में बारामहल में प्रदेश मिले। इन भागों को एक करके अंग्रेजों ने मैसूर को तीन ओर से घेर लिया।
(2) टीपू ने कुर्ग के राजा की स्वतंत्रता को स्वीकार किया। कुर्ग के शासक ने बाद में अंग्रेजों की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।
(3) टीपू ने लगभग 30 लाख पौण्ड युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में दिए।
(4) उसके दो पुत्रों को अंग्रेजों ने अपने पास बंधक के रूप में रख लिया।
आलोचना (Criticisms)
अनेक इतिहासकारों ने टीपू के प्रति अपनाई गई लार्ड कार्नवालिस की नीति की कटु आलोचना की है। उनका कथन है कि यदि अंग्रेजों ने सन् 1792 में टीपू का पूर्ण विनाश कर दिया होता तो अंग्रेजों को कुछ समय के उपरांत चौथ मैसूर युद्ध न लड़ना पड़ता। परंतु इस प्रकार से उन परिस्थितियों की ओर से आँख बंद कर लेते हैं जिन्होंने कार्निवालिस को युद्ध बंद करने के लिए बाध्य किया। सर्वप्रथम तो मराठों और निजाम पर अधिक समय तक विश्वास नहीं किया जा सकता था, वह किसी भी समय अपना समर्थन बदल सकते थे। इसके अतिरिक्त कंपनी के संचालक भी प्रादेशिक उत्तरदायित्व बढ़ाने की नीति के समर्थन नहीं थे। फ्रांस की क्रांति आरंभ हो जाने के कारण किसी भी समय टीपू को फ्रांसीसी सहायता प्राप्त हो सकती थी।
विद्वानों का कथन है की अंग्रेजी सेना में रोग फैल रहा था। उसके साथ ही यदि लॉर्ड कार्नवालिस टीपू के संपूर्ण प्रदेश को विजित कर लेता तो उसे मराठों तथा निजाम को भी अधिक प्रदेश देने पड़ते। इस प्रकार वह व्यर्थ ही एक शक्ति को समाप्त करके दो व्यक्तियों को शक्ति संपन्न बना देता जो कालांतर में काफी खतरनाक सिद्ध हो सकती थी। यथार्थ में कार्नवालिस ने सावधानी की नीति का अनुसरण कर अत्यंत दूरदर्शिता का परिचय दिया। उसका यह कथन नितांत सत्य है, “हमने अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाए बिना अपने शत्रु को पूर्ण रूप से कुचल दिया।”
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