संगम युग से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे जैसे —
संगम युग (Sangam era)
संगम युग, मोटे रूप से 4 ईसवी पूर्व से 3 ई० तक के दक्षिण भारत के पाण्डेय, चोल और चेर वंशों के इतिहास को इंगित करता है। अशोक के अभिलेखों में ये राजवंश से संदर्भित हुए हैं और इनका विकास मौर्य से लेकर सातवाहनों के पतन काल के बीच में हुआ। यहां दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति जान लेना आवश्यक है। आर० सी० मजूमदार ने लिखा है कि दक्षिण भारत से तात्पर्य भारत की उसे भूभाग से है जो कृष्णा और तुंगभद्रा के दक्षिण में पड़ता है और जिसकी उत्तरी सीमा तिरुपति की पहाड़ी है और जो तमिल प्रदेश कहलाता है क्योंकि यहां के लोग तमिल भाषा या भाषी है। प्राचीन दक्षिण भारतीय साहित्य जो ‘संगम साहित्य’ कहलाता है, इन राजवंशों के बारे में जानकारी प्रदान करता है।
संगम समाज, साहित्य व संस्कृति
शासन व्यवस्था (system of government)
सामन्तवादी राजतंत्र था। राजा का निर्णय अंतिम था, परंतु राजा प्रजाहित का विशेष ध्यान रखता था। पाँच महासमितियों की सहायता से वह शासन करता था, यद्यपि सलाह मानना उसके लिए अति आवश्यक नहीं था। दण्ड विधान अत्यंत कठोर था और दीवानी और फौजदारी अदालतें थीं। अंतिम अपीलें राजा द्वारा ही निर्णीत होती थी।
साम्राज्य मण्डलम, कोट्टम, नाडु और क (कु) र्रम में विभाजित था। सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। जहां स्थानीय शासन की सुविधाएँ थी। ग्राम–परिषद की एक कार्यकारिणी होती थी जिसका निर्वाचन ग्राम–परिषद् के सदस्य ही करते थे। कार्यकारिणी की अन्यन्य समितियाँ भी विभिन्न कार्यों के लिए निर्वाचित की जाती थीं।ग्राम–परिषद् न्याय का कार्य भी करती थी तथा अपने नाम की मोहर से भूमिकर एकत्र करती थी और यह कर राज्य की आय का मुख्य साधन था। राज्य द्वारा मार्ग व सिंचाई के साधनों की सुंदर व्यवस्था की जाती थी।
सामाजिक दशा (social condition)
सामान्यतः तमिल समाज दो वर्गों में विभाजित था
1–कृषि करने वाला और
2–कृषि करवाने वाला
कृषकों का निम्न वर्ग आगे चलकर, अछूत कहलाया। निम्न वर्ग में मलवर, नाग, बढ़ही, लोहार, जुलाहे भी आते थे और जब उत्तर भारत से ब्राह्मण वहाँ पहुँचे तो वे वहाँ पर अपने त्याग और तपस्या के से श्रेष्ट रूप में पूजित हुए। परंतु उनके मांस खाने व ताड़ी पीने का उल्लेख भी हुआ है।
संगम युग के सामाजिक कार्यकलाप— प्रत्येक जाति के लोग अपने पृथक—पृथक धंधे करने लगे। खान-पान और विवाह की प्रथा कठोर थी। पर, आचार–विचार में कट्रटता अधिक न होने के कारण व्यक्ति को स्वतंत्रता थी। परिवार संयुक्त था और मातृसत्तात्मक था। स्त्री जाति को भी स्वतंत्रता थी और पर्दा, बहु विवाह प्रथा आदि का प्रचलन नहीं था। स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ स्नान के उल्लेख भी मिलते थे। पर सती प्रथा और विधवाओं के दुखद स्थिति का उल्लेख भी मिलता था। साथ ही साथ उनकी नाच–गान में प्रवींणता के उल्लेख भी मिलते हैं।
संगम युग में आभूषण— पुरुषों और स्त्रियों की आभूषणों में अभिरुचि थी। नगरों में नर्तकियों और वैश्याओं के रहने के उल्लेख मिलते हैं। प्रेम–विवाहों के भी। पुरुष पगड़ी और धोती पहनते थे। महिलायें चूड़ियाँ और सुंदर आभूषण पहनती थीं, जिनमें हार, बाजूबंद और कन्दोरे प्रधान आभूषण थे।
संगम युग में खान-पान— खाने में चावल व मांस का प्रचलन था। लोग शराब भी पीते थे। उच्च वर्ग के लोग यूनानी और रोमवासी लोगों द्वारा लाई गई अच्छी सुरापन करते थे। इसके अलावा अन्य नशीली वस्तुयें भी प्रयोग में आती थीं। मनोरंजन के अनेक रूप—खेल–तमाशे आदि प्रचलित थे।
संगम युग में विश्वास अंधविश्वास— संगम साहित्य में विहार–यात्राओं, शकुन-अपशकुन में अंधविश्वास व कुछ अनोखे रीति–रिवाजों के उल्लेख मिलते हैं। उदाहरणार्थ, हमें यह ज्ञात होता है कि हाथ में बत्तियाँ लिए चौकीदार रात्रि में बड़े-बड़े शहरों में पहरा देते थे। राजा के मरने पर अंगरक्षकों का एक विशेष दल अपने को मार डालता था और पत्तर के वीर स्तंभों की स्थापना की जाती थी, और उनकी नियमित पूजा होती थी।
आर्थिक दशा (economic condition)
देश धन-धान्य से पूर्ण था । वहाँ की दीर्घकालीन शक्ति का फल वहाँ की व्यापार की उन्नति से स्पष्ट होता है। व्यापारिक उन्नति अंतर बाहरी दोनों क्षेत्रों में हुयी। प्रधान पेशा कृषि था। इसके अलावा, पशुपालन, मछली पकड़ना, व्यापार करना, वस्तु बोनना इत्यादि भिन्न-भिन्न व्यवसायों के साथ-साथ वहाँ उत्तम प्रकार की ऊनी, सूती तथा रेशमी वस्त्र तैयार होते थे। भिन्न-भिन्न प्रकार के 26 कपड़ों का उल्लेख इतिहास में आया है। मखमल विशेष सुंदर बनती थी। कुछ वस्त्र ऐसे महीन होते थे कि उनको ‘वायु का ताना’ या ‘ दूध की वाष्प ’ कहा जाता था। यह लोग अनेकों धातुओं का प्रयोग करते थे। लोहे का इनको ज्ञान था। सोने के आभूषण भी बनाते थे। नमक बनाया जाता था। हाथी दाँत की विभिन्न वस्तुएँ बनती थी। मछली पकड़ने का व्यवसाय भी होता था। दक्षिण से उत्तर को जाने वाले व्यापारिक मार्ग बड़े सुरक्षित थे। इन मार्गों पर साधारण रूप से व्यापारी गिरोह बनाकर चलते थे।
विदेश में भी तमिल प्रदेश का बहुत व्यापार होता था। पश्चिम में मिस्त्र, रोम, इराक तथा पूर्व में मलाया प्रायद्वीप और इस ओर के अन्य द्वीपों से बड़ा ही उन्नत व्यापार था। चीन और फिलिस्तीन से भी व्यापार होता था। इस प्रकार विदेशों से अनेक मात्रा में धन आने लगा। तमिल देश विदेशी धन से मालामाल हो गया, परंतु गरीब और अमीर के बीच खाई गहरी थी।
धार्मिक दशा (religious condition)
आरंभिक समय में इन प्रदेशों में भिन्न-भिन्न संप्रदाय थे। एक समुदाय अपने मृतकों की समाधियों पर बड़े-बड़े पाषाण खड़े करता, तो दूसरे समुदाय वाले दर्शन के उच्चतम सिद्धांतों पर चलते थे। कई प्रकार के देवी देवताओं का पूजन करने की प्रथा चलती थी। प्राचीन काल में लोग वृक्ष, नाग और मत्स्य पूजा करते थे। चोल और पाण्ड्य नरेशों ने अनेक यज्ञ–अनुष्ठान भी किए थे। कालांतर में भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रभाव से बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म भी तमिल प्रदेशों में मान्यता प्राप्त करने लगे। चंद्रगुप्त मौर्य के जैन धर्म अपनाने पर जैन धर्म दक्षिण में जोरों से प्रचलित हुआ। पाण्ड्यनरेशों ने भी जैन मार्ग को स्वीकार कर लिया, परंतु आगे चलकर यह धर्म वहाँ पर विलुप्त होने लगा। अशोक और अन्य प्रचारकों ने तमिल प्रदेश में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अत्यधिक प्रयत्न किये और वहाँ बौद्ध धर्म के बहुत से केंद्र स्थापित हुए जिनमें नागपट्टिनम और कांजीवरम मुख्य थे। संगम युग में गाँवों के मंदिर सामाजिक क्रियाकलापों के केंद्र भी थे।
साहित्य (Literature)
इस समय दक्षिण में काफी साहित्य का सृजन हुआ जो संगम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 3 ई० पू० में तोल्कपियर नामक व्याकरणाचार्य हुआ,और इसी के काल से संस्कृत भाषा ने तमिल भाषा को स्पष्ट रूप से प्रभावित करना आरंभ किया। 2 ई० पू० तिरूवल्लुवर नामक विद्वान ने 133 परिच्छेद की सर्वप्रथम एक पुस्तक की रचना की थी जो संस्कृत के प्रभाव से रहित थी और जो तमिल भाषा का सबसे पहले ग्रंथ कहलाती है। यह ग्रंथ राजनीतिशास्त्र से संबंध रखता है। और इसका तमिल महाकाव्यों की दृष्टि से अत्यंत उच्च स्थान है। इसके पांच बड़े महाकाव्य आज भी पाए जाते हैं जिनमें ‘ शिल्पधिकारम ’ और ‘ मणीमेकनम ’ प्रसिद्ध काव्य है। इन साहित्य के अधिकांश भाग की रचना जैन और पंडितों द्वारा संपन्न हुई थी। इस युग के तमिल साहित्य में ऐसे बारीक कपड़ों का जिक्र हुआ है, जिनकी उपमा सांप की केंचुली (अहनिर्मीक) तथा दूध की भाप से दी गई है।
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