संप्रभुता के गुण और दोष - letest education

संप्रभुता के गुण और दोष

ऑस्टिन अपने विचारों में हांब्स  तथा बेंथम से प्रभावित होता है तथा उसने संप्रभुता की कानूनी दृष्टिकोण की व्याख्या की है। वह संप्रभुता को कानून का एकमात्र निर्माण करने वाला स्रोत मानता है। कानून संप्रभुता का आदेश मात्र है। कानून उच्च सत्ता द्वारा अधीनस्थों के लिए बनाए गए नियम है।

संप्रभुता के गुण (properties of sovereignty)

(1) संप्रभुता निश्चित होती है

 संप्रभु एक निश्चित व्यक्ति अथवा मानव समूह होता है। यह ऐसा माना हो सकता है जिसे देखा जा सके, और बताया जा सके। संप्रभुत्व ईश्वर, देवता, जनमत या सामान्य इच्छा आदि में निहित नहीं होती है, यह स्पष्ट दिखाई देने वाले मानव अथवा मानव समूह में निहित होती है। इसी मत को ऑस्टिन ‘निश्चित मानव-श्रेष्ठ’ शब्दों में व्यक्त करता है। गार्नर का मत है, “यह निश्चित मानव श्रेष्ठ ना तो रूसो की सामान्य इच्छा हो सकती है, न जनमत और ना समस्त जानता, न निर्वाचन मंडल, न नैतिक भावना और न सामान्य बुद्धि ना ईश्वर की इच्छा जैसी कोई काल्पनिक वस्तु। यह कोई निश्चित मानव या अधिकारी होता है जिस पर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं होता।” आधुनिक लोकतांत्रिक आत्मक व्यवस्था में हम जनता को संप्रभु कहते हैं तथा कुछ विद्वानों का यह मत है की संप्रभुता संविधान में निहित है क्योंकि संविधान सर्वोच्च होता है। परंतु ऑस्टिन इस बात से सहमत नहीं होगा क्योंकि वह संप्रभुता को केवल मानव अथवा मानव समुदाय में ही निहित मानता है।

(2) संप्रभुता अविभाज्य है 

 संप्रभुता, जो निश्चित मानव श्रेष्ठ की शक्ति होती है, अविभाज्य होती है। संप्रभुता को विभाजित नहीं किया जा सकता है। संप्रभुता को विभाजित करना उसे नष्ट करना है। इसी संबंध में कैलहन के शब्दों में, “संप्रभुता एक है। इस विभाजित करना उसे नष्ट करना है।” 

(3) आज्ञा पालन स्वाभाविक है 

 निश्चित मानव श्रेष्ठ की आज्ञा का पालन समाज का एक बहुत बड़ा भाग स्वभाव: करता है। जिस समाज का वह संप्रभु होता है वह स्वभावत: हो उसकी आज्ञा पालन का अभ्यस्त होता है। 

(4) संप्रभु निरंकुश होता है 

निश्चित मानव श्रेष्ठ, जिसमें संप्रभुता का निवास होता है, सर्वोच्च होता है और अन्य किसी सत्ता के अधीन नहीं होता है। आंतरिक क्षेत्र में कोई शक्ति इससे ऊपर नहीं होती है और वहीं क्षेत्र में कोई इसे आदेश देने की स्थिति में नहीं होता है। 

(5) राज्य के लिए संप्रभुता अनिवार्य होता है 

 प्रत्येक राज्य में संप्रभु का होना अनिवार्य होता है और बिना संप्रभुता के राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके अभाव में राज्य का अस्तित्व नहीं होता है।

(6) संप्रभुता पूर्ण तथा स्थायी होता है 

ऑस्टिन संप्रभुता की व्याख्या कानूनी दृष्टिकोण से करता है। उसकी संप्रभुता असीमित, अमर्यादित, पूर्ण, स्थायी तथा अदेय होती है। 

(7) संप्रभुता का आदेश कानून है 

 संप्रभु के आदेश कानून होते हैं और वही कानून का निर्माण करता है। 

संप्रभुता के दोष(flaws in sovereignty)

आंस्टिन संप्रभुता की वैधानिक अथवा कानूनी व्याख्या करता है, परंतु उसके विचारों की कटु आलोचना की जाती है। जो कुछ इस प्रकार है — 

(1) संप्रभुता के आदेश कानून नहीं 

 यह मान्यता अनुचित है कि संप्रभु के आदेश ही कानून होते हैं। कोई भी शासन सुरक्षा से मनचाहे कानून नहीं बन सकता है और न परंपरागत कानून सुरक्षा से परिवर्तित किया जा सकते हैं। वस्तुत: कानून रीति रिवाज, परंपरा तथा सामाजिक आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति होते हैं। कानून का निर्माण समाज करता है, इस संबंध में डिग्वी का कथन है, “राज्य कानून का निर्माण नहीं करता बल्कि कानून ही राज्य की स्थापना करते हैं। कानून केवल सामाजिक आवश्यकता की अभिव्यक्ति करते हैं।” 

(2) संप्रभुता अविभाज्य नहीं है 

संप्रभुता को अविभाज्य और अदेय मनाना भी त्रुटि पूर्ण है। संघात्मक राज्यों में संप्रभुता केंद्र और इकाइयों में विभाजित होता है। फ्रीमैन के शब्दों में, “संघात्मक आदर्श की पूर्णता के लिए संप्रभुत शक्ति का विभाजन अनिवार्य है।” बहुलवादियों ने संप्रभुता को विभाजित माना है। इसलिए संप्रभुता को अविभाज्य मानने में कठिनाई है।

(3) संप्रभुता संपन्न निश्चित व्यक्ति की खोज करना कठिन

ऑस्टिन संप्रभुता को निश्चित व्यक्ति में निहित मानता है। उसके अनुसार संप्रभु एक निश्चित मानव श्रेष्ठ होता है जिसकी आज्ञा का पालन समाज का एक बड़ा भाग स्वभाव: करता है, परंतु लोकतंत्र में ऐसे व्यक्ति की खोज करना संभव है। चिपमैन ग्रे के अनुसार, “समाज की वास्तविक शासको को खोज नहीं जा सकता है।” एक और तो मानव संप्रभु की खोज कठिन है तथा दूसरी ओर कोई शासन समाज के रीति-रिवाज भावनाओं व परंपराओं आदि की अवहेलना नहीं कर सकता है। 

(4) संप्रभुत्ता निरंकुश नहीं

ऑस्टिन का सिद्धांत राज्य को निशुल्क और स्वेच्छाचारी बना देता है। यदि हम एक निश्चित मानव को संप्रभु मानकर उसे संपूर्ण बंधनों से मुक्त कर दें और उसके आदेश ही कानून बन जाए तब यह निरंकुश्ता की परिभाषा होगी। इस संबंध में ब्लंशाली का कथन है, “राज्य अपने समग्र रूप में सर्व सत्ताधारी नहीं है। वह बाह्य दृष्टि से अन्य राज्यों के अधिकार तथा आंतरिक दृष्टि से अपनी प्रकृति वह नागरिक के अधिकारों से सीमित है।” 

(5) मानवता तथा विश्व शांति के विरुद्ध 

यह विचार मानवता तथा विश्व शांति की वृद्धि होने के साथ-साथ भयानक भी हैं। ऐसी राज की कल्पना, जो आंतरिक क्षेत्र में सर्वोपरि होकर बाह्य बंधनों से मुक्त हो, विश्व शांति के लिए खतरा बन सकती है। इसलिए लॉस्की इस विचार को मानवता के विरुद्ध मानता है। उसी के शब्दों में कहे तो, “अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से एक स्वतंत्र और संप्रभुत्व-संपन्न राज्य का विचार मानवीय सुख समृद्धि के लिए घातक है।” 

(6) लोकतंत्र के विरुद्ध

ऑस्टिन का सिद्धांत लोकतंत्र के विरुद्ध है। लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निहित होती है तथा जनमत के आधार पर संचालित होती है। ऑस्टिन का सिद्धांत राजनीतिक संप्रभुता की अथवा लोक संप्रभुता की अवहेलना करता है, जबकि लोकतंत्र में राजनीतिक संप्रभुता की श्रेष्ठ पाई जाती है।

महत्व अथवा निष्कर्ष 

इन सभी आलोचनाओं के बावजूद भी ऑस्टिन कि संप्रभुता सिद्धांत का विशेष महत्व है। ऑस्ट्रेलिया सिद्धांत का प्रतिपादन वैधानिक दृष्टिकोण के आधार पर किया है और इस दृष्टि से ऑस्टिन का सिद्धांत सही प्रमाणित होता है। यह सिद्धांत तर्कपूर्ण तथा न्याय संगत है। गार्नर के शब्दों में, “संप्रभुता की कानूनी प्रवृत्ति है और उसकी आलोचना अधिकांशतः गलतफहमी के कारण हुई है।”

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