जनजाति का अर्थ और परिभाषा
जनजाति का अर्थ सामान्यतया ऐसे लोगों से हैं जो किसी निश्चित भू-भाग पर निवास करते हैं तथा विकास की दृष्टि से काफी पिछड़े हुए होते हैं। इनका निवास-स्थान सामान्यतया पहाड़ी या पठारी क्षेत्र होते हैं। इनके अपने ऐसे रीति-रिवाज होते हैं जो ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से काफी सीमा तक भिन्न होते हैं। इसे हम ऐसा क्षेत्रीय समूह का सकते हैं जो सामान्य भाषा, सामाजिक नियमों एवं आर्थिक कार्यों इत्यादि में समानता के आधार पर एक सूत्र में बँधा हुआ है। अगर अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जनजाति ऐसे लोगों का समूह है जो कि किसी निश्चित भू-भाग (सामान्यतः जंगल, पिछड़ी या पहाड़) पर निवास करते हैं, जिनकी एक संस्कृति होती है तथा जो आज भी आर्थिक दृष्टि से काफी अत्यधिक पिछड़े हुए हैं।
इम्पीरियल गजेटियर ने जनजाति को इन शब्दों में परिभाषित किया गया है, “जनजाति परिवारों का वह संकलन है जिसका एक अपना सामान्य नाम होता है जो सामान्य भाषा बोलता है तथा जो सामान्य प्रदेश में रहता है या रहने का दावा करता है और सामान्यतया अंतर्विवाही होता है, भले ही आरंभ में ऐसा ना करता रहा हो।” यह परिभाषा जनजाति को अत्यंत सामान्य रूप में प्रतिपादित करती है तथा इसीलिए यह परिभाषा भारतीय संदर्भ में उपयुक्त नहीं है।
ऐसी ही परिभाषा ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में इन शब्दों में दी गई है, “जनजाति विकास के आदिम अथवा वर्बर आचरण में लोगों का एक समूह है जो एक मुखिया की सत्ता को स्वीकार करता है तथा सामान्यतया अपना एक समान पूर्वज मानता है।” इन दोनों परिभाषाओं में जनजाति के जो लक्षण बताए गए हैं वे जाति में भी स्पष्टतः देखे जा सकते हैं। अतः यह दोनों परिभाषाएँ अधिक मान्य नहीं हैं। लुसी मेयर जैसे विद्वानों ने जनजाति को समान संस्कृति वाली जनसंख्या का एक स्वतंत्र राजनीतिक विभाजन माना है। इस प्रकार की परिभाषा भी जनजाति का अर्थ स्पष्ट करने में सक्षम नहीं है।
(Janjati ki paribhasha) प्रमुख विद्वानों ने जनजाति की परिभाषाएंँ निम्न प्रकार से दी हैं—
1— गिलिन एवं गिलिन के अनुसार
“स्थानीय आदिवासियों के किसी भी ऐसे संग्रह को हम जनजाति कहते हैं जो एक सामान्य क्षेत्र में निवास करता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो तथा सामान्य संस्कृति के अनुसार व्यवहार करता हो।”
2— मजूमदार के अनुसार
जनजाति एक सामूहिक संगठन है जिसमें सदस्य एक ही भू-क्षेत्र में निवास करते हैं, एक ही भाषा बोलते हैं, और विवाह, वृत्ति, या व्यवसाय के कुछ निषेधों का पालन करते हैं।
इस समूह के लोगों के बीच में एक सामान्य नाम होता है, और उनमें परस्पर आदान-प्रदान एवं दायित्वों की पारस्परिकता की एक सुनिश्चित व्यवस्था विकसित हो गई है।
मजूमदार एवं मदन के अनुसार भारत में जनजाति, जाति, संप्रदाय, प्रजाति, वर्ग आदि अनेक प्रकार के सामाजिक समूह पाए जाते हैं। इनमें जनजाति का आदिम समुदायों में तथा जाति का हिंदू समाज में प्रमुख स्थान है। जाति एवं जनजाति शब्द को अनेक विद्वानों ने पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया है।
जिसके परिणामस्वरुप अनेक जनजातियों की जातियाँ और अनेक जातियों को जनजातियाँ बता दिया जाता है। इसके अनुसार नातेदारी संबंध, क्षेत्रीय आवास, एक भाषा, संयुक्त स्वामित्व, एक राजनीतिक संगठन, आंतरिक संघर्ष का अभाव आदि जनजातियों की प्रमुख विशेषताएँ बताई जाती हैं। अनेक मानवशास्त्रियों ने इनमें से कुछ विशेषताओं को जनजाति की विशेषताएँ मानने से स्पष्ट इनकार किया है। उदाहरणार्थ, रिवर्स ने क्षेत्रीय आवास को जनजाति का प्रमुख लक्षण नहीं माना है, जबकि पैरी ने इन विशेषताओं पर काफी जोर दिया है और इतना कहा है कि घुमंतू जनजातियों भी एक निश्चित क्षेत्र के अंतर्गत ही घूमती रहती हैं। रैडक्लिफ ब्राउन ने ऑस्ट्रेलियाई जनजातियों के विभिन्न वर्गों के बीच आपसी लड़ाई के उदाहरण भी दिए हैं।
जनजाति की विशेषताएँ
टी० वी० नायक ने भारत की अनेक जनजातियों (जैसे— भील, मारिया आदि) का अध्ययन किया है तथा जनजातियों की निम्नलिखित सात प्रमुख विशेषताओं अथवा कसौटियों का उल्लेख किया है—
(1) जनजाति कहलाने के लिए, किसी भी समुदाय में न्यूनतम प्रकार्यात्मक निर्भरता होनी चाहिए। इसका मतलब है कि उस समुदाय के सदस्यों को आपसी सहयोग और सामूहिक उत्कृष्टता की दिशा में सामृद्धि के लिए मिलजुलकर काम करना चाहिए।
(2) जनजाति आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी होनी चाहिए अर्थात् उसकी अर्थव्यवस्था अल्पविकसित होनी चाहिए।
(3) भौगोलिक दृष्टि से जनजाति की अन्य लोगों से पृथकता होनी चाहिए।
(4) प्रत्येक जनजाति के सदस्यों के बीच एक सामंजस्यपूर्ण और सामूहिक बोली होनी चाहिए। इसका अर्थ है कि उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति, और सांस्कृतिक पहचान को साझा करने का एक माध्यम होना चाहिए, जिससे सदस्यों के बीच सामंजस्य और समर्थन का भाव बना रहे।
(5) राजनीतिक दृष्टि से प्रत्येक जनजाति संगठित होनी चाहिए तथा उसकी एक प्रभावशाली जनजाति पंचायत होनी चाहिए।
(6) जनजाति के सदस्यों में परिवर्तन की अभिलाषा न्यूनतम होनी चाहिए अर्थात उनमें रूढ़िवादिता तथा प्रथाओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति होनी चाहिए।
(7) जनजाति के लोगों का सामाजिक जीवन परंपरागत नियमों से संचालित होना चाहिए।
डी०एन० मजूमदार ने भारत की अनेक जनजातियों का क्षेत्रीय अध्ययन किया था। वे भारत के अग्रणी मानव शास्त्रियों में से थे, इसलिए हमने उन्हें की परिभाषा को भारतीय जनजातियों के लिए अपनाया है। उनकी परिभाषा भारतीय जनजातियों के संदर्भ में न केवल लागू होती है अपितु उन्हें समझने में भी पूर्णतया उपयुक्त है। मजूमदार की उपयुक्त परिभाषा के आधार पर जनजाति के निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं उभरकर सामने आती है—
(1) प्रत्येक जनजाति का एक विशिष्ट नाम होता है और वह उसी नाम से जानी जाती है, जैसे-संथाल, गारो,थारू खासी आदि।
(2) जनजाति परिवारों या परिवारों के समूह का संग्रह होता है। परिवारों के समूह का यहां आशय उन परिवारों से है जो कोई विशेष गोत्र या टोटम द्वारा एक सूत्र से बँधे होते हैं।
(3) निश्चित भू क्षेत्र जनजाति की परिभाषा में अति महत्वपूर्ण तत्व है। जो जनजाति घुमंतू होती हैं, वह भी प्रायः हो एक भौगोलिक क्षेत्र में ही भ्रमण करती है और उस क्षेत्र से उसे लगाव होता है। प्रत्येक जनजाति अपने आवासीय प्रसार के क्षेत्र को अपनी भूमि समझती है। उदाहरणार्थ, असम के चाय बागानों मैं काम करने वाले संथाल बिहारी और बंगाल के किन्हीं विशेष क्षेत्र को ही अपना घर बताते हैं।
(4) प्रत्येक भारतीय जनजाति के लोग अपनी या अपने पड़ोसियों की एक समान भाषा बोलते हैं।
(5) प्रत्येक जनजाति में विवाह, व्यवसाय और पैसे के संबंध में कुछ परंपरागत निषेध पाए जाते हैं।
(6) जनजाति के सदस्य एक दूसरे के साथ परंपरागत आधार पर लेन देन और पारस्परिक दायित्वों के बंधनों में बँधे होते हैं।
उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त भारतीय जनजातियों की कुछ अन्य विशेषताएं भी हैं जिन्हें निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) जनजाति के सभी सदस्य आपस में नातेदार तो नहीं होते अपित यू प्रत्येक भारतीय जनजाति में नातेदारी प्रथा एक सशक्त संगठनात्मक, नियंत्रणात्मक एवं एकात्मक सिद्धांत के रूप में क्रियाशील रहती है।
(2) जनजातीय अंतर्विवाही होती है और कुलों एवं उपकुलों में बटी रहती है।कुल स्वजन समूह होने के नाते बहिर्विवाही होते हैं।
(3) सामूहिक स्तर पर अंतर्जनजातीय संघर्ष भारतीय जनजातियों का लक्षण नहीं है।
(4) संपत्ति का संयुक्त स्वामित्व जनजातियों में पाए जाने वाले स्वामित्व का एकमात्र रूप नहीं है यद्यपि इसका प्रचलन कुछ जनजातियों में पाया जाता है।
(5) प्रत्येक जनजाति का एक आंतरिक राजनीतिक संगठन होता है जो विविध स्तरीय पंचायतों पर आधारित होता है।
(6) जनजातियों में युवागृह की संस्था पाई जाती है।
(7) लड़कों एवं लड़कियों के लिए सामान्यतया स्कूली शिक्षा का अभाव पाया जाता है।
(8) जनजातियों में जन्म, विवाह एवं मृत्यु संबंधी विशिष्ट प्रथाएं पाई जाती हैं जो हिंदुओं और मुसलमान से भिन्न होती हैं। इनका नैतिक विधान भी हिंदुओं और मुसलमान से भिन्न है।
(9) धार्मिक विश्वासों एवं कर्मकांड की दृष्टि से भी जनजातियों की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं जो जनजाति एवं निम्न जातियों के हिंदुओं के बीच अंतर तक बता सकती हैं।
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