हुमायूँ का चरित्र | हुमायूँ जीवन पर्यंत लड़खड़ाता रहा

हुमायूँ का चरित्र | हुमायूँ जीवन पर्यंत लड़खड़ाता रहा

हुमायूँ‌ (Humayun) 

आज हम चर्चा करेंगे हुमायूं के बारे में जिसमें चर्चा यह होगी कि हुमायूं में कितने दोष थे और उसका हृदय कितना उदार था। हुमायूं जीवन पर्यन्त लड़खड़ाता रहा और लड़खरा कर ही उसकी मृत्यु हो गई। हुमायूं के चरित्र में अनेक दोष थे, जिनके कारण उसने अपनी कठिनाइयों को और भी बड़ा लिया था।  उसके चारित्रिक दोषों का विवरण कुछ इस प्रकार है—

(1) उदारता (हृदय से उदार)

हुमायूं स्वभाव से उदार था, किंतु यह उदारता उसके लिए घातक सिद्ध हुई इस उदारता के कारण उसने अपने राज्य को अपने भाइयों के मध्य बांट दिया।

(2) अदूरदर्शिता (दूरदर्शिता का अभाव)

हुमायूँ के चरित्र में दूरदर्शिता का अभाव था। वह किसी भी कार्य को बिना सोचे-समझे ही किया करता था। उसने अपने साम्राज्य का बँटवारा अपने भाइयों में किया, किंतु उसके भयंकर परिणामों को ध्यान में नहीं रखा; तथा बहादुरशाह के प्रति उसने जिस नीति का अनुसरण किया, उसके परिणामों पर उसने विचार नहीं किया। शेरखाँ और बहादुर शाह को पूरी तरह से न कुचलकर क्षमा कर देने की नीति के कारण ही, अंततः हुमायूँ को शासन से बेदखल होकर 15 वर्ष निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा। अंततः अदूरदर्शी होने के कारण उसे अनेक बार असफलताओं का मुँह देखना पड़ा।

(3) विलासप्रियता चरित्र 

हुमायूँ का चरित्र विलासिता से परिपूर्ण था। मिर्जा हैदर ने लिखा है, “हुमायूँ बादशाह बाबर के पुत्रों में सबसे बड़ा, सबसे महान, सबसे अधिक विश्रुत था। परंतु विलासी एवं दुराचारी व्यक्तियों की संगति के कारण उसमें कुछ दोष आ गए थे। इन दोषों में अफीम का प्रयोग भी था। सम्राट में जितने दोष बताए जाते हैं, वह सब इसी के कारण आ गए थे।” हुमायूँ ने चुनार तथा गौड़ के दुर्गों पर अधिकार करने के बाद आमोद-प्रमोद में अपना समय व्यतीत किया, जिससे शेरखाँ को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला व चौसा और कन्नौज के युद्धों में हुमायूँ को पराजय उठानी पड़ी। एक छोटी सी सफलता मिलते ही वह अफीम के नशे में डूब जाता था और भविष्य से पूरी तरह बेखबर हो जाता था। इस प्रकार विलासप्रियता हुमायूँ का प्रमुख चारित्रिक दोष था, जिससे कि उसे अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा।

(4) विचारों में अस्थिरता

हुमायूँ अस्थिर विचारों का व्यक्ति था। इसी कारण वह शेरखाँ व बहादुरशाह जैसे शत्रुओं का सामना करने में असफल रहा। मैलिसन ने लिखा है, “वह चंचल, विचारहीन तथा अस्थिर था। उसमें कर्तव्य की ओर झुकने की कोई भी बलवती भावना न थी। उसकी उदारता अपव्ययिता में तथा अनुराग दुर्बलता में परिवर्तित हो जाता था। वह किसी भी एक दिशा में अपने विचारों को कुछ समय के लिए पूर्ण रूप से स्थिर नहीं रख सकता था।” वह फ्रांस के शासक लुई सोलहवे के ही समान अस्थिर विचारों का था और उसमें दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव था।

(5) हूमायूं का सिद्धांतहीनता होना

हुमायूँ कुछ अर्थों में सिद्धांतहीन भी था तथा बुध्दिबल का उसमें अभाव था, जैसा कि मैलिसन महोदय ने लिखा है,“ हुमायूँ वीर, प्रसन्नचित्त, बुद्धिमान, एक अच्छ साथी, उच्च शिक्षित, उदार व दयालु होने के कारण स्थायी सिद्धांतों पर एक राजवंश की स्थापना करने के लिए अपने पिता बाबर से भी काम योग्य था।” अपने इसी अवगुण के कारण वह राज्य का संगठन करने में असफल रहा।

(6) चाटुकारिता का अभाव 

हुमायूँ अपने शत्रुओं की चापलूसी का शिकार हो जाता था। इसी अवगुण के कारण वह शेरखाँ, बहादुरशाह, हिन्दूबेग आदि अनेक शत्रुओं का शिकार हुआ। इस चाटुकारिता के अवगुण के कारण ही हुमायूँ कभी सफल न हो सका।

(7) सैनिक गुणों का अभाव

हुमायूँ के चरित्र में एक योग्य सैनिक के गुणों का पूर्ण अभाव था, जिसके कारण उसे विदेश में भागना पड़ा। बहादुरशाह को युद्ध में परास्त कर हुमायूँ ने उसका पीछा नहीं किया, वह उसकी एक बड़ी भूल थी। उसे बहादुर शाह की समस्या को सदैव के लिए समाप्त कर देना चाहिए था। भविष्य में आगे चलकर उसके शत्रु ने उसे भारत से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया।

(8) शासन के प्रति उदासीन

हुमायूं में कर्तव्य परायणता का अभाव था तथा उसका चरित्र दुर्गुणों से परिपूर्ण था। शान कार्यों में उसकी रुचि अधिक नहीं थी, क्योंकि प्रत्येक शासन संबंधी कार्यों में वह ज्योतिषों और दरबारियों की सलाह लिया करता था। हैवल ने लिखा है— हुमायूं ललित कला का एक निर्बल प्रेमी था, क्योंकि वह सदैव राज्य संबंधी कार्यों में दरबार की सम्मति लेता था, किंतु इन सब से सोच विचार के बाद भी ग्रह एवं नक्षत्र सदैव ही उसके विरोधी रहे।"

निष्कर्ष (सार) 

    उपर्युक्त कारणों से वह अपने पिता द्वारा सौंप गए राज्य पर अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। 15 वर्षों के कठोर संघर्ष के पश्चात जुलाई 1555 ईस्वी में वह पुनः गद्दी पर बैठा लेकिन 24 जनवरी, 1556 ई को हुमायूं सीढ़ियों से फिसल कर गिर गया और गंभीर चोट लगने के कारण 27 जनवरी, 1556 ई० को उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार जीवन भर कठिनाइयों में लुढ़कते रहने वाले सम्राट का लुढ़क कर ही अंत हो गया। अतः लेनपुल का यह कथन सही ही है, “हुमायूं जीवन पर्यंत लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाकर ही उसकी मृत्यु हो गई। “हुमायूं के संबंध में यह कथन भी पूर्णतः सार्थक प्रतीत होता है, "हुमायूं स्वयं अपना ही शत्रु था।"अथवा हुमायूं का जीवन असफलताओं की कहानी है।”

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