व्यवस्थापिका से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे जैसे —
1. व्यवस्थापिका का संगठन
2. द्विसदनात्मक व्यवस्था के गुण
3. द्विसदनात्मक व्यवस्था के दोष
4. द्विसदनात्मक व्यवस्था के विपक्ष में विपक्ष
5. द्विसदनात्मक व्यवस्था के विपक्ष में तर्क
व्यवस्थापिका का संगठन (legislative organization)
व्यवस्थापिका की संगठन के आधार पर दो रूप होते हैं— एक-सदनीय (Unicameral) तथा द्वि-सदनीय (Bicameral)। एक सदनीय व्यवस्था के अंतर्गत व्यवस्थापिका में एक ही सदन होता है और द्वि-सदनीय व्यवस्था में दो स्थान होते हैं। व्यवस्थापिका में एक सदन हो अथवा दो सदन, इस विषय पर विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद है। कुछ विद्वान एक सदनीय व्यवस्था का समर्थन करते हैं और कतिपय विद्वान द्वि-सदनीय व्यवस्था को उपयुक्त समझते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से द्विसदनीय व्यवस्थापिका को ही अधिकांश देशों में अपनाया गया है, उदाहरण के तौर पर— ग्रेट ब्रिटेन में लार्ड सभा एवं कॉमनस सभा तथा भारत में राज्यसभा एवं लोकसभा।
द्विसदनात्मक व्यवस्था के गुण (पक्ष)
(1) प्रथम सदन की जन्म पुस्तक पर रोक लगाता है
एक सदनीय व्यवस्थापिका में सदन प्राय हो स्वेच्छाचारी कानून का निर्माण कर सकता है। इस दृष्टि से दूसरा सदन पहले सदन की रोकथाम को रोकने में सहायक होता है। जहां सांसद आत्मक शासन प्रणाली होती है, वहां पर निम्न सदन में तो सरकार का बहुमत होता है अतः वह निम्न सदन में किसी भी प्रकार के कानून का निर्माण करा सकती है। अतः उसे समय उच्च सदन ही सरकार की गलत नीतियों पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है। उदाहरण के तौर पर— भारत में राज्यसभा लोकसभा की अनुचित नीतियों पर नियंत्रण रखती है।
(2) विवेकहीन कानूनों पर नियंत्रण
निम्न सदन जल्दबाजी में विवेकहीन कानूनों का निर्माण कर सकता है। दूसरे सदन के वृद्ध,योग्य और अनुभवी सदस्य इस प्रकार के विवेकहीन कानूनों के निर्माण पर नियंत्रण रखते हैं। ब्लंश्ली के अनुसार, “जिस प्रकार दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें अधिक अच्छा देख सकती हैं, उसी प्रकार एक सदन की अपेक्षा दो सदन किसी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर अच्छी तरह विचार कर सकते हैं।
(3) जनमत के निर्माण में सहायक
प्रथम सदन विधेयक पारित करके दूसरे सदन में भेज देता है। वहाँ पर भी विधेयक पर तीन वाचन होते हैं। इस बीच जनता को उस विधेयक पर अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिल जाता है। जनता विधेयक के विभिन्न पहलुओं तथा गुण- दोषों पर विचार करती है। इससे जनमत का निर्माण होता है।
(4) योग्य तथा अनुभवी व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व
द्वितीय सदन में प्राय: योग्य, अनुभवी तथा विद्वान व्यक्तिय सम्मिलित होते हैं, जो राजनीतिक दलबंदी से दूर रहते हैं। कार्यपालिका अध्यक्ष— राजा अथवा राष्ट्रपति ऐसे व्यक्तियों को मनोनीत करके देश के लिए इनकी सेवाएँ प्राप्त करता है।
(5) कार्यभार में कमी
द्वितीय सदन की उपस्थिति से निम्न-सदन का कार्यभार कम हो जाता है। बहुत से विधेयक सीधे उच्च सदन में भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
(6) अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व
द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
(7) संघात्मक शासन के लिए आवश्यक
संघात्मक शासन के लिए द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका होनी आवश्यक है; क्योंकि एक सदन जनता का और दूसरा सदन संघ के राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है।
(8) स्वतंत्रता की रक्षा
द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के अंतर्गत जनता को स्वतंत्रता की रक्षा की संभावनाएँ और भी प्रबल हो जाती हैं, क्योंकि उच्च सदन के योग्य एवं अनुभवी सदस्य व्यक्ति की मर्यादित एवं बहुमुखी स्वतंत्रता के पक्षधर होते हैं। लॉर्ड एक्टन के विचार से दूसरा सदन स्वतंत्रता की रक्षा हेतु प्रमुख साधन के रूप में सहायक होता है।
द्विसदनात्मक व्यवस्था के दोष (विपक्ष)
(1) लोकतंत्र के विरुद्ध
द्वि-सदनीय प्रणाली लोकतांत्रिक सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि जनमत एक ही होता है, दो नहीं। दूसरे शब्दों में, एक विषय पर एक ही समय जनता की दो इच्छाएं कदापि नहीं हो सकती।
(2) द्वितीय सदन आवश्यक
दूसरा सदन अनावश्यक और निरर्थक होता है। एबीसीएज के अनुसार, “द्वितीय सदन का क्या लाभ है? यदि दूसरा सदन पहले सदन से सहमत है तो निरर्थक है और यदि उसका विरोध करता है तो हानिकारक है। उच्च सदन या तो निम्न सदन से सहमत होगा या उसका विरोध करेगा। बताओ यह प्रत्येक दशा में निरर्थक है।”
(3) संघर्ष का भय
द्वितीय सदन संघर्ष को प्रोत्साहन देता है तथा दोनों सदनों के पारस्परिक संघर्ष के कारण शासन संचालन में शिथिलता उत्पन्न होने लगती है।
(4) संघ राज्यों के लिए भी अनावश्यक
विभिन्न आलोचकों का विचार है कि द्वितीय सदन संघ राज्यों के लिए भी ना तो उपयोगी है और ना ही किसी भी दृष्टि से आवश्यक है। लास्की के अनुसार, “यह गलत है कि संघ की रक्षा के लिए दूसरा सदन कोई प्रभावशाली गारंटी नहीं है।” रॉबर्टसन के अनुसार, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, द्वितीय सदन के पक्ष में कोई सैद्धांतिक तर्क नहीं है।”
(5) संगठन में कठिनाईयां
द्वितीय सदन के संगठन में बड़ी कठिनाई होती है। विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार से द्वितीय सदन का संगठन किया जाता है। इंग्लैंड में दूसरा सदन एक वंशानुगत संस्था है, कनाडा में मनोनीत संस्था है और भारत में इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है।
(6) अनावश्यक देरी होना
कभी-कभी किसी विषय विशेष पर शीघ्र कानून बनाने की आवश्यकता होती है, परंतु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में दोनों सदनों में विधेयक पर पृथक पृथक विचार होने से अनावश्यक समय का बर्बादी होती है। ऐसी स्थिति में अपेक्षित विधायक की निर्धारित समय सीमा के अंतर्गत कल्पना नहीं की जा सकती।
(7) उत्तरदायित्व का अभाव
कुछ आलोचकों का मत है कि द्विसदनीय व्यवस्था में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है, क्योंकि उसके समक्ष विकल्प के रूप में दूसरा सदन विद्यमान रहता है।
निष्कर्ष (Conclusion)
इन सभी विषयों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि एक सदनीय एवं द्विसदनीय दोनों प्रकार की विधायकों में गुण और दोष दोनों ही हैं। फिर भी द्विसदनीय प्रणाली को ही अधिकांश देशों ने ग्रहण किया है। वर्तमान समय में प्रतिनिध्यात्मिक लोकतंत्र के लिए द्विसदनात्मक विधानमंडल नितांत आवश्यक माना जाता है, क्योंकि यह प्रथम सदन की मनमानी पर आवश्यक प्रतिबंध लगा सकता है। इस संबंध में रैम्जे म्योर ने ठीक ही लिखा है कि, “दूसरे सदन का महत्वपूर्ण प्रयोग यह है कि उसमें राजनीति राष्ट्रीय नीति के प्रश्नों पर ठंडे वातावरण में शांति के साथ विचार होता है, जो कि निम्न सदन में संभव है।”
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