भारत में जनजाति आंदोलन के कारण
(1) सभ्य समाजों से संपर्क
जनजातीय आंदोलन का प्रमुख कारण जनजातीय लोगों का शब्द समझो से संपर्क होना है। ऐसे संपर्क ने उन्हें प्रगतिशील लोगों के जीवन प्रतिमानों से परिचित करवाया और उनमें उनके अधिकार पूर्व जीवन के बारे में जागरूकता उत्पन्न की। इसके फलस्वरूप जनजातीय लोगों ने अपने समाज में व्याप्त कमियों को अनुभव किया और उन कमियों को दूर करने की दिशा में संगठित प्रयास के महत्व को समझा इसका परिणाम यह हुआ कि जनजातीय लोगों भी अन्य सभी समाजों के लोगों की भांति धीरे-धीरे संगठित हुए और इस आंदोलन को जन्म दिया।
(2) अंग्रेज मिशनरियों से संपर्क
भारत किस जनजाति लोगों के सभी समाज से संपर्क की एक महत्वपूर्ण कड़ी अंग्रेजी मिशनरी रहे हैं। प्रारंभिक स्तर पर इन्हीं अंग्रेज मिशनरियों या पादरियों ने केवल ईसाई धर्म के प्रचार हेतु विभिन्न जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश किया क्योंकि वह जानते थे कि बिल्कुल ही अनपढ़, असभ्य और पिछड़ी जनजाति लोगों को नाना प्रकार की सुविधाओं का प्रलोभन दिखाकर ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिए अधिक सफलता से राजी किया जा सकता है। में मिशनरी और पादरियों ने अपने पृथ्वी को उद्देश्य को छुपाते हुए इन्हें जनजातीय क्षेत्रों में नाना प्रकार के सेवा कार्यों का आयोजन किया, खैराती दवा खाने या अस्पताल खोले, स्कूलों की स्थापना की और पढ़ने लिखने की नाना प्रकार की सामग्री को उपलब्ध कराया और साथ ही ईसाई धर्म के गुना का प्रचार किया। असम की जनजातीय लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार तो किया, पर साथ ही शिक्षा के विस्तार में से उनमें जो नई जन-जागृति पैदा हुई, उसने आंदोलन को एक वास्तविक आधार प्रदान किया।
(3) संस्कृतिकरण
संस्कृतिकरण भी जनजाति आंदोलन का एक महत्वपूर्ण कारण माना जाता है। जनजातियों का संपर्क एक और तो हिंदू संस्कृति से हुआ और दूसरी और पाश्चात्य संस्कृति से। सभी जानते हैं कि यह दोनों संस्कृति की विरोधी धारा आए हैं। जब किसी जनजाति के लोग कुछ हिंदू संस्कृति को अपनाते हैं और कुछ पाश्चात्य संस्कृति को, तो इन दोनों पाटो के बीच जनजातीय जीवन का स्वाभाविक स्वरूप चटपटा उड़ता है और उनकी संभोग अनुकूलन की अनेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। यह समस्याएं जनजाति है आंदोलन को जन्म देती है।
(4) नवीन शासन-व्यवस्था
ब्रिटिश शासन काल से पहले प्रत्येक भारतीय जनजाति क्षेत्र में स्थानीय स्वशासन होता था और जनजातीय लोग ही उसके सर्वेसर्वा होते थे, क्योंकि अपनी प्रथम परंपरा के अनुसार शासन प्रबंध चलता था। उन पर किसी बाहरी शासन का दबाव या नियंत्रण नहीं होता था परंतु ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद से उनकी यह स्थानीय स्वायत्तता समाप्त होने लगे। नाना प्रकार की सरकारी कानूनी और औपचारिकताओं ने उन्हें चारों ओर से जाकर लिया।
(5) आर्थिक शोषण
भारत में जनजाति आंदोलन का मुख्य कारण सरकारी और ब्याज कार्य तौर पर जनजातीय लोगों का आर्थिक शोषण है। जनजातीय क्षेत्र में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर आज सरकारी नियंत्रण है। सरकारी संस्थाएं इन साधनों का भरपूर उपयोग जनजाति समुदाय के विकास के लिए उतना नहीं करती, जितना व्यावसायिक लाभ कमाने के लिए करती है। किसी जनजातीय लोगों की आर्थिक स्थिति में कोई लेखनी सुधार नहीं होता है और उन्हें गरीबी, भुखमरी आदि का निरंतर सामना करना पड़ता है।
(6) दोषपूर्ण वन-नीति
केंद्र से राज्य सरकार दोनों के द्वारा गलत हुआ दोषपूर्ण वन नीति लागू करना भी जनजातीय आंदोलन का एक महत्वपूर्ण कारण है जो आर्थिक शोषण का ही अन्य स्वरुप बनकर प्रकट होता है। असम की भारतीय जनजातीय जंगलों में या जंगलों के आसपास निवास करती है। वन संपदा ही उनकी सबसे बड़ी संपत्ति है। इसका महत्व न केवल आर्थिक है बल्कि भावनात्मक भी है क्योंकि जनजातीय लोग अपने क्षेत्र के प्रत्येक पेड़ पौधे, पशु पक्षी को पहचानते हैं, उन्हें प्यार करते हैं, अनेक पेड़ पौधों की पूजा करते हैं और उन्हें भेंट भी चढ़ाते हैं।
(7) धर्म परिवर्तन
जनजातीय समाजों में धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया ने भी जनजाति आंदोलन को बढ़ावा दिया है और वह इस रूप में कि धर्म परिवर्तन से उनके मूल स्वरूप और अस्तित्व के लिए ही खतरा उत्पन्न हो गया है। जनजातीय लोगों ने अपने मूल धर्म को छोड़कर या तो हिंदू धर्म को अपनाया अथवा ईसाई धर्म को और इस धर्म परिवर्तन का उनका उद्देश्य नाना प्रकार की आर्थिक सामाजिक शोषण से मुक्ति माना था। इससे दोहरी वफादारी की समस्या उत्पन्न हो गई—हुए ना तो पूरी तरह से अपने मूल धर्म को त्याग सके और ना ही पूरी तरह से पराये धर्म को अपना सके।
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