धर्मनिरपेक्षतावाद (secularism)
धर्मनिरपेक्षतावाद क्या है? प्रत्येक सभ्यता के प्रारंभिक काल में धर्म का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आज भी धार्मिक सिद्धांतों तथा परंपराओं का अनेक समाजों में महत्वपूर्ण स्थान है। इन धार्मिक सिद्धांतों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सदैव ही महत्व दिया जाता है। राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में धर्म के महत्व को सदैव वहीं स्वीकार किया ज्यादा रहा है ऐतिहासिक बात का साक्षी है कि धर्म के नाम पर अनेक युद्ध लड़े गए हैं। धर्म और राजनीति को एक साथ मिलकर प्रशासन का कार्य करने की नीति सदैव ही प्रत्येक देश में पाई गई है। राज धर्म को समझ में सर्वोपरि स्थान मिलता है। इस प्रकार इतिहास की आरंभ से ही प्रत्येक देश में धर्म प्रभावित राज्यों का होना पाया जाता है, किंतु धर्म व राजनीति को मिलकर राज्य करने के भयंकर परिणाम निकले हैं। धर्म या ईश्वर के नाम पर इतना रक्तपात हुआ है जितना अन्य किसी भी नाम या बात पर नहीं हुआ है।
धर्मनिरपेक्षतावाद का नामकरण
वास्तव में, पश्चिमीकरण की प्रक्रिया में धर्मनिरपेक्षतावाद की भावना भी निहित है क्योंकि उसमें सामान्यवादी मूल्यों को महत्व दिया। धर्म के प्रति उदासीनता आ जाने से प्राचीन धार्मिक रीति रिवाज प्रभावहीन होने लगे। पेशो के आधार पर संगठन बनने लगे। जाति के बंधन ढिले पड़ गए। रंग, जाति, लिंग भेद को बुलाकर व्यक्तिगत प्रक्रिया को ध्यान में रखकर व्यक्तियों को ऊंचे पद या सामाजिक स्थिति प्रदान की जाने लगी। इस प्रकार, धर्म के स्थान पर योग्यता को प्राथमिकता देने का नाम ही ‘धर्मनिरपेक्षतावाद’ पड़ा। दूसरे शब्दों में धर्मनिरपेक्षतावाद उसे भावना का नाम है जिसके द्वारा पूर्व प्रचलित धार्मिक मान्यताओं को परिवर्तित करके धर्म को प्रभावहीन कर दिया गया है और धर्म, लिंग, जाति का भेदभाव मतकर योग्यता को ही प्राथमिकता दी गई है।
धर्मनिरपेक्षतावाद का अर्थ एवं परिभाषा
धर्मनिरपेक्षतावाद का अर्थ लौकिक विचारधारा के महत्व में वृद्धि होना है। धर्मनिरपेक्षता बाद में धार्मिक व अन्य पक्ष एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं तथा लोगों के चिंतन में तर्क की प्रधानता हो जाती है। एम०एन० श्रीनिवास के अनुसार, “धर्मनिरपेक्षतावाद शब्द से यह तात्पर्य है कि जो कुछ पहले धार्मिक माना जाता था, अब वह वैसा नहीं माना जा रहा है और इसका तात्पर्य विभेदीकरण की एक प्रक्रिया से भी है जो कि समाज के विभिन्न पहलुओं आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी और नैतिक के प्रति संबंध में अधिक से अधिक पृथक होने में दिखाई पड़ती है।
श्रीनिवास की धर्मनिरपेक्षतावाद की परिभाषा से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि धर्म के स्थान पर तर्क के आधार पर किसी घटना की व्याख्या करना ही धर्मनिरपेक्षतावाद है। इसके परिणाम स्वरुप समाज के विभिन्न पक्ष एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं। राजनीति का धर्म से पृथक होना धर्मनिरपेक्षतावाद का एक मूल मंत्र है। भारतीय समाज के लिए यह प्रक्रिया भी, पश्चिमीकरण की प्रक्रिया की तरह, एक बाहरी प्रक्रिया है। यह वस्तुतः पश्चिमीकरण की जुड़वा प्रक्रिया है।
धर्मनिरपेक्षतावाद की प्रमुख विशेषताएं
(1) विभिन्न शास्त्रों का महत्व
धर्मनिरपेक्षतावाद से पूर्व मनुष्य के जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म का स्थान सर्वोपरि था। धर्म के नाम पर ही व्यक्ति की आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन का अध्ययन किया जाता था। धर्म के नाम पर ही व्यक्ति की आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन का अध्ययन किया जाता था। दूसरे शब्दों में, धर्मशास्त्र ही सभी शास्त्रों की जड़ों में समाया हुआ था, किंतु धर्मनिरपेक्षता वाद की भावना का जन्म हो जाने से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का अध्ययन विभिन्न शास्त्रों द्वारा किया जाने लगा। इसी विभेदीकरण के कारण अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र आदि सामाजिक विज्ञानों का जन्म हुआ।
(2) धर्म के प्रभाव में कमी
भारत विभिन्न प्रकार की मान्यताओं का देश रहा है। विभिन्न धार्मिक समुदायों ने भारतीय जनता को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर दिया था किंतु धर्मनिरपेक्षतावाद की भावना ने समाज में धर्म के प्रभाव को कम किया है। अब इस परिवर्तित भावना के परिणाम स्वरुप समाज में धन का महत्व बड़ा है। धनवान व्यक्ति में ही सभी गुना का समावेश माना जाता है। धर्मनिरपेक्षतावाद एक ऐसी भावना है जिसने प्राचीन धार्मिक रुढियों को प्रभावहीन बनाया है।
(3) वैज्ञानिक आविष्कारों का महत्व
धर्मनिरपेक्षतावाद की प्रमुख विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया में विज्ञान के अध्ययन को महत्व दिया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सभी क्षेत्रों पर विकास किया जाता है इसलिए जीवन के सभी क्षेत्रों में धर्म का महत्व घट रहा है। अन्य शब्दों में यह कहा जाता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धर्मनिरपेक्षतावाद का स्थान महत्वपूर्ण हो जाता है।
(4) तर्क एवं विवेक की प्रधानता
अभी तक व्यक्ति धर्म की बातों को आंखें बंद करके मानता था और धर्म की बातों का विरोध करना पाप माना जाता था किंतु धर्मनिरपेक्षतावाद की भावनाओं से प्रभावित होकर व्यक्ति की बौद्धिक विकासशीलता में वृद्धि हुई है। अब व्यक्ति प्रत्येक बात को सोच विचार करके ही ग्रहण करता है। इस प्रकार, धर्मनिरपेक्षतावाद की प्रक्रिया से विवेकशील को प्रोत्साहन मिला है और जनता में तार्किक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण आया है।
(5) लोक हितकारी राज्य की कल्पना
धर्मनिरपेक्षतावाद की भावना में किसी भी धर्म को प्राथमिकता नहीं दी जाती है। इसलिए राज्य का दृष्टिकोण अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम हिट करना हो जाता है। इस प्रकार, लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षता की भावना लोक हितकारी राज्य की भावना को जन्म देती है।
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