जाति व्यवस्था में परिवर्तन
आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन हुए हैं जो समाज में सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रभावित हुए हैं। ये परिवर्तन आधुनिकीकृत भारतीय समाज की दृष्टि से आए हैं और समाज में सामाजिक समानता और सामाजिक न्याय की दिशा में कदम उठाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां कुछ मुख्य पहलुओं पर ध्यान दिया गया जिन्हें आप यहां पढ़ सकते हैं—
आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था में हो रहे परिवर्तन
(1) सामाजिक संस्तरण में परिवर्तन
आधुनिक काल में भारत में पाए जाने वाले परंपरागत जाती पर आधारित सामाजिक संकरण में परिवर्तन हुआ है। अब किसी व्यक्ति को केवल उसके जाति के आधार पर ही मानता नहीं प्रदान की जाती बल्कि समाज में धन, शिक्षा, पद एवं प्रतिष्ठा के आधार पर ही व्यक्ति का मूल्यांकन होता है। गांव में भी जाति पर आधारित संस्तरण काफी सीमा तक परिवर्तित हो रहा है।
(2) व्यवसाय के चयन में स्वतंत्रता
पहले प्रत्येक व्यक्ति वही व्यवसाय करता था जो उसकी जाति के लिए निर्धारित होता था, परंतु वर्तमान युग में जाति की इस विशेषता का पर्याप्त लोप हो रहा है। अभिव्यक्ति इस व्यवसाय को ग्रहण कर लेते हैं, जो उनके अनुकूल होता है। शिक्षा एवं व्यक्तिगत गुना के महत्व के कारण जाति का परंपरागत व्यवसाय से अटूट संबंध अब काफी शिथिल हो गया है। विभिन्न जातियां भी अपने सदस्यों पर अब इस दृष्टि से नियंत्रण रखने का प्रयास नहीं करती है। सरकारी एवं निजी नौकरियों में नियुक्ति जाति के आधार पर न होकर व्यक्ति की योग्यता एवं निर्धारण परीक्षण के आधार पर होता है।
(3) अंतर्विवाह संबंधी नियमों का शिथिलीकरण
जाति व्यवस्था में अपनी ही जाति में विवाह संबंधों की स्थापना होती रही है तथा जाति के बाहर विवाह करना अनुचित माना जाता था। परंतु अब इस बंधन का आए दिन उल्लंघन होता है। पहले जाति के बाहर विवाह करने वाले को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था, परंतु अब अंतरजातीय विवाह पर्याप्त संख्या में हो रहे हैं और इस प्रकार की विवाह करने वालों का समाज आदर करता है।
(4) खानपान एवं सामाजिक सहवास संबंधी नियमों की शिथिलता
जाति व्यवस्था की मुख्य विशेषता खान-बन करते समय कुछ नियमों और निषेधों का पालन करना रही है। व्यक्ति किसके साथ भोजन कर सकता है और किसके साथ नहीं आदि नियमों का पालन करना आवश्यक होता था। परंतु वर्तमान समय में खानपान के नियमों की खुलेआम अवहेलना होने लगी है। आज उच्च जाति के व्यक्ति निम्न जाति के व्यक्तियों के साथ बिना किसी संकोच के खाप पी सकते हैं। सार्वजनिक होटल और जलपान-गृहो में तो जाति-पाति पूछने का प्रश्न ही नहीं है।
(5) पेशों के आधार पर वर्गों की स्थापना
पहले जाति के आधार पर व्यक्ति पैसे या व्यवसाय का चयन करते थे, परंतु वर्तमान समय में पेशों के आधार पर वर्गों की स्थापना हो गई है। क्योंकि एक ही व्यवसाय को विभिन्न जातियों के सदस्य करने लगे हैं; अतः जाति का व्यवसाय से परंपरागत संबंध टूट गया है तथा जाति की अपेक्षा व्यवसायिक संगठन को अधिक महत्व दिया जाने लगा है।
(6) जातीय संगठनों का लोप
पहले प्रत्येक जाति का एक संगठन होता था जिसे जातीय पंचायत कहा जाता था। यह जाती है पंचायत अपने सदस्यों पर प्रत्येक प्रकार का नियंत्रण रखती थी। जाति के नियमों की अवहेलना करने वालों को जातीय पंचायत द्वारा दंडित किया जाता था। परंतु वर्तमान युग में जातीय पंचायत के आदर्शों की अवहेलना की जा रही है; अतः अब उनका कोई महत्व नहीं रहा है। इस प्रकार जातीय संगठन, समाज से लुप्त होते जा रहे हैं।
(7) अस्पृश्यता का लोप
एक समय था कि भारतीय समाज में अस्पृश्यता का बोलबाला था और अस्पर्श किसी भी सार्वजनिक स्थान में प्रवेश नहीं कर पाते थे। न तो उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार था और ना ही किसी शिक्षा संस्था में शिक्षा ग्रहण करने का। दक्षिण भारत में जाति का स्वरूप इतना कठोर था कि उच्च जाति के हिंदू और अस्पृश्यो की परछाई तक से बचने का प्रयास करते थे। परंतु अब सरकार द्वारा अस्पृश्यता को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है और इसको प्रोत्साहन देने पर जुर्माना तथा सजा का प्रावधान भी रखा गया है। इस प्रकार और अस्पृश्यता का देश से पूर्णतया लोग होता जा रहा है।
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