उदारवादियों की विचारधारा, कार्य पद्धति तथा सफलताएं - liberal ideology

 उदारवादी (liberal)

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास कांग्रेस का इतिहास है। डॉ० पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार कांग्रेस का इतिहास ही भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष का इतिहास है। पंडित मदमोहन मालवीय जी के शब्दों में कहीं तो, “भारत ने अपनी आवाज इस महान संस्था में पाई।” कांग्रेस के 1885 से 1905 ई तक के कल को उदारवादी युग के नाम से जाना जाता है।

उदारवादियों की विचारधारा, कार्य पद्धति तथा सफलताएं - liberal ideology

उदारवादियों की विचारधाराएं

अपने प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस पूर्ण रूप से उधर राष्ट्रवादियों के नियंत्रण में भी जिनमें मूल विचारों का अध्ययन कुछ निम्नलिखित रूप से किया सकता है— 

(1) ब्रिटिश शासन के प्रति राजभक्ति

इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस का संचालन करने वाले उधर राष्ट्रवादी उच्च कोटि के देशभक्त थे, किंतु साथ ही साथ यह ब्रिटिश शासन के बड़े प्रशंसक भी थे। इस प्रकार भी अपने देश के प्रति भक्ति के साथ-साथ ब्रिटिश सम्राट के प्रति भी आस्था रखते थे। उदारवादियों को विश्वास था कि अंग्रेज हृदयहीन नहीं है, अतः उनकी निष्ठा से ही स्वाधीनता प्राप्त की जाती है। दुसरे अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी अपने सहयोगियों की सामान्य भावना को ही व्यक्त कर रहे थे, जबकि उन्होंने घोषणा की कि, “आओ, हम पुरुषों की तरह बोले और घोषणा कर दें कि हम अटूट राजभक्त हैं।’ 

(2) राजनीतिक स्वशासन की प्राप्ति

उदारवादी नेता यद्यपि क्रमिक वैधानिक सुधारो में विश्वास करते थे, परंतु अंततः ऐसे क्रमिक वैधानिक सुधारो एवं अनुनाई विनय की नीति का अंतिम लक्ष्य भारतीयों के लिए स्वशासन की प्राप्ति था। वह ब्रिटिश शासन के अंतर्गत स्वशासन की स्थापना चाहते थे। उनके विचार में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीयों को स्वशासन का पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त हो चुका था तथा अब भारत स्वशासन के लिए पूर्णतया तैयार था।

(3) अंग्रेजों की उदारता तथा न्याय प्रियता में विश्वास

उदार राष्ट्रवादियों को अंग्रेजों की न्याय प्रियता में अटूट विश्वास था। वस्तुत: इस विश्वास ने ही उनमें राज भक्ति की भावना को जन्म दिया। पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार उदारवादी नेता इस बात पर विश्वास करते थे कि अंग्रेज स्वभाव से न्याय प्रिय होते हैं। एस० एन० बनर्जी के अनुसार, “अंग्रेजों के न्याय, बुद्धि एवं दया भावना में हमारा दृढ़ विश्वास है। ब्रिटिश संसद के प्रति हमारे हृदय में बड़ी श्रद्धा है।” 

(4) ब्रिटेन के साथ संबंध को भारत के हित में समझना 

अधिकांश प्रारंभिक नेता पाश्चात्य शिक्षा एवं सभ्यता के परिणाम थे और हुए पाश्चात्य सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे। अंग्रेजी साहित्य, यातायात-संवाहन की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, स्थानीय स्वायत्त शासन उनके द्वारा ब्रिटिश राज्य की वरदान समझे जाते थे। गोपाल कृष्ण गोखले ने यह कहा था, “ब्रिटिश शासन देशवासियों की प्रगति में एक बड़ा साधन रहा है।” 

(5) क्रमिक सुधार में आस्था रखते हैं

उदारवादी राजनीतिक क्षेत्र में क्रमबद्ध विकास की धारणा में विश्वास करते थे और इस स्थिति से परिचित थे कि एक साथ ही प्रतिनिधित्यात्मक शासन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। तात्कालिक रूप से हुए प्रशासन में आवश्यक के अनुसार सुधारो, विधायी परिषदों, सेवाओं, स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं और रक्षा सेवाओं में सुधार से ही संतुष्ट थे। इस प्रकार से उदारवादी नेता क्रमिक, वैधानिक और प्रशासनिक सुधार चाहते थे, और वह क्रांतिकारी परिवर्तन की विरुद्ध थे।

उदारवादियों की कार्य पद्धति

उदारवादी संवैधानिक साधनों की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे हिंसा की विरोधी थे और किसी रूप में सरकार के साथ किसी संघर्ष में नहीं पढ़ना चाहते थे। वे राजभक्ति थे तथा शासन के साथ सहयोग करना चाहते थे। उनके द्वारा अपनी मांगू का औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रार्थना पत्रों, स्मृति पत्रों तथा प्रतिनिधि मंडलों का मार्ग अपनाया गया, जिसे आलोचकों द्वारा ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ का नाम दिया गया। परंतु समय और परिस्थितियों के अनुसार उदारवादियों द्वारा राजनीतिक खेल में समझौता तथा लेनदेन जैसी तकनीकों का भी प्रयोग किया गया।

  पं० मदन मोहन मालवीय ने कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में कहा था, “हमें सरकार से बार-बार निवेदन करना चाहिए कि वह हमारी मांगों पर शीघ्रता से विचार करें तथा फिर हम अपनी इन सुधार संबंधी मांगों को स्वीकार कराने पर जोर दें।” उदारवादियों के कार्य पद्धति के संबंध में डॉक्टर इक़बाल नारायण का कथन है कि, “उदारवादी वस्तुतः क्रमबद्ध विकास की धारणा में विश्वास करते थे तथा तात्कालिक रूप से हुए प्रशासन में आवश्यक सुधारो, विधायी, परिषदों की स्थापना, स्थानीय स्वशासन आदि जैसी बातों को ही उठाने के पक्षधर थे।” दादा भाई नौरोजी के अनुसार, “शांतिप्रिया विधि ही इंग्लैंड के राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक इतिहास का जीवन और आत्मा है। इसलिए हमें भी उस सभ्य, शान्तिमय, नैतिक शक्ति रुपी अस्त्र को प्रयोग में लाना चाहिए।” 

उदारवादियों की सफलताएं

(1) ब्रिटिश शासन के देशों को स्पष्ट करना

कांग्रेस के द्वारा अपनी स्थापना के समय से ही ब्रिटिश शासन के विभिन्न दोषों की तरफ संकेत दिए गए। नौकरशाही की बुराइयों को सामने लाया गया। उन्होंने उग्रवादी आंदोलनकारी को विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए एक शक्तिशाली अस्त्र प्रदान किया। मैक्डोनाल्ड के शब्दों में, “कुछ ही दिनों में कांग्रेस सरकार का प्रतिपक्ष बन गई; किंतु यह कोई मित्रता पूर्ण ब्रह्म से डाटा प्रतिपक्ष ना बन सकी अपितु एक ऐसी प्रतिपक्ष बनी जिसे सरकार की हैसियत तथा अधिकार को चुनौती दी।” 

(2) भारतीय परिषद अधिनियम, 1892 ई० 

उदारवादियों की सफलता को 1892 ई० के भारतीय पर परिषद् अधिनियम के संदर्भ में भी लिया जा सकता है। यद्यपि यह भारतीयों को संतुष्ट न कर सका, लेकिन फिर भी देश के संवैधानिक विकास की दशा में यह एक निश्चित प्रगतिशील कदम था। 

(3) भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान 

उदारवादियों ने भारतीय जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान की तथा उनमें प्रजातंत्र तथा स्वतंत्रता के विचारों का विचार बीजा रोपण किया। उन्होंने शासन, राष्ट्र, समाज तथा धर्म आदि से संबंधित समस्याओं के ऊपर विचार- विमर्श करने का एक मंच प्रदान किया। इससे जनमत भी भावना जागृत हो गई। 

(4) भारतीय राष्ट्रीयता के जनक

उदारवादियों के कार्य तथा नीतियां तात्कालिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण होते हुए भी ऐसे थे, जिनके भविष्य में महत्वपूर्ण परिणाम सामने आए। उन्होंने देशवासियों को शिक्षा दी की हुए सांप्रदायिक तथा प्रांतीय भावनाओं से ऊपर उठकर सामान्य राष्ट्रीयता की भावना से कार्य करें।

(5) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का आधार तैयार करना

यद्यपि उदारवादियों को प्रत्यक्ष रूप से कोई सफलता प्राप्त न हो सकी लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने भविष्य में होने वाले आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर ही ली थी। यदि उबर प्रारंभिक काल में ही पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करने लगते अथवा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सक्रिय प्रतिरोध की नीति को अपनाते तो संभावित हो उनके आंदोलन को शासन काल में ही कुचल दिया जाता और स्वतंत्रता की दिशा में आगामी रणनीति पथापेक्षित रूप में सफलता न हो पाती। के० एम० मुंशी के शब्दों में कहीं तो, “यदि पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस के रूप में एक अखिल भारतीय संस्था देश के राजनीतिक क्षेत्र में कार्यरत ना होती तो ऐसी अवस्था में गांधी जी का कोई महान आंदोलन सफल न होता।” 

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