संस्कृति से संबंधित जिन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे वे कुछ इस प्रकार होंगे —
संस्कृति (Culture)
संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा
संस्कृति का अर्थ ;मनुष्य प्राकृतिक वातावरण में अनेक सुविधाओं का उपयोग करता है तो दूसरी ओर उसे अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। परंतु मनुष्य ने आदिकाल से प्राकृतिक बढ़ाओ को दूर करने के लिए व अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए अनेक साधनों की खोज की है। इन खोजे गए उपायों को मनुष्य ने आगे आने वाली पीढ़ी को भी हस्तांतरित किया। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त ज्ञान और कला का और अधिक विकास किया है। इस प्रकार के ज्ञान व अनुभव के अंतर्गत यंत्र, प्रविधियां, प्रथाएं, विचार और मूल्य आदि आते हैं। यह मूर्त और अमूर्त वस्तुएं संयुक्त रूप से संस्कृति कहलाती है। इस प्रकार वर्तमान पीढ़ी ने अपने पूर्वजों तथा स्वयं के प्रयासों से जो अनुभव वह व्यवहार सीखा है उसी को संस्कृत कहते हैं और वही संस्कृति है।
संस्कृति की परिभाषा
संस्कृति को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया हैं।
मैकइवर के अनुसार— “संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनंद में पाए जाने वाले रहन-सहन और विचार के ढंगों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”
मैलिनोव्क्सी के अनुसार — “संस्कृति प्राप्त आवश्यकताओं की एक व्यवस्था और उद्देश्यात्मक क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।”
टायलर के अनुसार — “संस्कृति वह जटिल संपूर्ण व्यवस्था है जिसमें समस्त ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता के सिद्धांत, विधि -विधान, प्रथाएं एवं अन्य समस्त योजनाएं संबंधित है जिन्हें व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है और उन्हें निभाता है।”
रैडफिल्ड के अनुसार — “संस्कृति ऐसी परंपरागत विश्वासों के संगठित समूह को कहते हैं जो कला एवं कलाकृतियों में प्रतिबिंबित होते हैं तथा जो परंपरा द्वारा चलते रहते हैं और किसी मानव समूह की विशेषताओं को चित्रित अथवा दर्शाते हों।”
परिभाषाओं का सार
इन सभी परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति में दैनिक जीवन में पाई जाने वाली समस्त वस्तुएं आ जाती हैं। मनुष्य भौतिक, मानसिक तथा प्राणी शास्त्रीय रूप में जो कुछ पर्यावरण से सीखना है उसी को संस्कृति कहा जाता है।
संस्कृति की विशेषताएं
विभिन्न विद्वानों द्वारा स्पष्ट किए गए संस्कृति के अर्थ के आधार पर संस्कृति की विशेषताएं कुछ इस प्रकार होती हैं—
(1) सीखा हुआ आचरण ( संस्कृति से कुछ ना कुछ सिखता है)
व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया में कुछ ना कुछ सीखना ही रहता है। यह सीखे हुए अनुभव विचार प्रतिमान आदि ही संस्कृति के तत्व होते हैं। इसलिए संस्कृति को सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है। कपड़े पहनना, अभिवादन करना , नाचना- गाना आदि सीखे हुए व्यवहार के उदाहरण हैं।इस संबंध में ध्यान रखने की एक बात यह है कि मनुष्य समाज में रहकर अज्ञात रूप से भी अनेक बातें सिखाता है जिनको सीखने का बहुत स्वयं प्रयत्न नहीं करता। परिवार में रहकर व्यक्ति अनेक बातें अपने माता-पिता तथा अन्य व्यक्तियों से धीरे-धीरे सीखता है तथा अनेक बातें ऐसी होती हैं जिनकी उसको समुचित रूप से शिक्षा दी जाती है। मनुष्य जो कुछ भी ज्ञात- अज्ञात रूप से समाज से सीखता है वह सब संस्कृत में सम्मिलित होता है।
(2) संगठित प्रतिमान के रुप में विशेषता
संस्कृति में सीखे हुए आचरण संगठित प्रतिमानों के रूप में होते हैं। संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के आचरणों की इकाइयों में एक व्यवस्था और संबंध होता है। किसी भी मनुष्य का आचरण उसके पृथक-पृथक आचरणों की सूची नहीं होती । उदाहरण के लिए बच्चा परिवार में जन्म लेता है। परिवार में उसे प्रारंभ से ही उसकी संस्कृति का ज्ञान कराया जाता है। बच्चे को बोलना, चलना - फिरना , व्यवहार करना आदि ऐसे प्राथमिक आचरण है, जो आजीवन चलते रहते हैं। हमारे मस्तिष्क में इन सब वर्गों के व्यवहारों की जो एक संगठित रूपरेखा या स्वरूप है उसी को ही हम प्रतिमान कहते हैं। संस्कृति के अंतर्गत सीखे हुए व्यवहारों के इसी प्रकार के संगठित प्रतिमान सम्मिलित होते हैं।
(3) संस्कृति हस्तांतरण होती है
संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित हो जाती है। संस्कृति का अस्तित्व हस्तांतरण के कारण स्थाई बना रहता है । हस्तांतरण की यह प्रक्रिया निरंतर होती रहती है। संस्कृति का हस्तांतरण माता-पिता, वयोवृद्धों, अध्यापकों आदि के द्वारा होता है। यहां हस्तांतरण का आशय केवल यही है कि एक पीढ़ी अपनी आचरण को दूसरी पीढ़ी को सिखा देती है अर्थात यह एक पीढ़ी से दूसरी में स्वत: हस्तांतरित होते रहते हैं। यह हस्तांतरण या सीखना अज्ञात या आकस्मिक रूप में भी हुआ करता है। इस प्रकार , संस्कृति की यह एक और विशेषता है कि वह युगों से हस्तांतरित होती रहती है।
(4) पार्थिव या अपार्थिव दोनों तत्वों का विद्यमान रहना
संस्कृति के अंतर्गत दो प्रकार के तत्व आते हैं। एक पार्थिव और दूसरे अपार्थिव। यह दोनों ही तत्व संस्कृति का निर्माण करते हैं । अपार्थिव स्वरूप को हम आचरण या क्रिया का सकते हैं, अर्थात जिन्हें छुआ या देखा न जा सके , या जिनका कोई स्वरूप नहीं। जैसे— बोलना, गाना ,अभिवादन करना आदि। जिन पार्थिव या साकार वस्तुओं का मनुष्य सृजन करता है वे पार्थिव तत्वों के अंतर्गत आता है। जैसे— रेडियो, मोटर, टेलीविज़न ,कुर्सी, मेज आदि अनेक वस्तुएं हैं।
(5) संस्कृति हमेशा परिवर्तनशीलता होती
संस्कृति सदा परिवर्तनशील है। इसमें परिवर्तन होते रहते हैं, चाहे वे परिवर्तन धीरे हो या आकस्मिक रूप में ।वास्तव में , संस्कृत मनुष्य की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों का नाम है। चुंकि समाज में परिस्थितियाँ सदा एक - सी नहीं रहती इसलिए आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों में भी परिवर्तन करना पड़ता है। पहले तलवार से युद्ध किया जाता था,परंतु अब बंधुकों, तोपों, बमों द्वारा यह काम किया जाता है । पहले लोग बैलगाड़ियों से और पैदल यात्रा करते थे , अब वह हवाई जहाज, मोटर से यात्रा करते हैं। जब इस प्रकार की पद्धतियाँ समाज द्वारा स्वीकृत हो जाती है और आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित कर दी जाती है तो संस्कृत में परिवर्तन हो जाता है। यह तो स्पष्ट ही है कि प्रत्येक समाज में रहन-सहन में ऐसा कुछ- ना-कुछ परिवर्तन होता ही रहता है। अतः यह कहना कठिन ही है की संस्कृति सदा परिवर्तनशील है।
(6) आदर्शात्मक की विशेषताएं
संस्कृत में सामाजिक विचार, व्यवहार - प्रतिमान आदि आदर्श रूप में होते हैं । उनके अनुसार कार्य करना सुसंस्कृत होने का प्रतीक माना जाता है। सभी मनुष्य संस्कृति के आदर्श प्रतिमानों के अनुसार अपने जीवन को बनाने का प्रयास करते हैं। इसलिए संस्कृति की प्रकृति आदर्शात्मक होती है।
(7) सामाजिकता का गुण की विशेषताएं
संस्कृति का जन्म समाज में तथा समाज के सदस्यों द्वारा होता है। इसलिए यह कहा जाता है कि मानव स्वयं अपनी संस्कृति का निर्माता होता है । मानव समाज के बाहर संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। पशु समाज संस्कृति विहीन समाज है क्योंकि इसमें किसी प्रकार की संस्कृति नहीं होती है।
(8) संस्कृति में भिन्नता पाई जाती है
प्रत्येक समाज की संस्कृति भिन्न होती है अर्थात् प्रत्येक समाज की अपनी पृथक प्रथाएँ , परंपराएँ ,धर्म, विश्वास, कला का ज्ञान आदि होते हैं । संस्कृत में भिन्नता के कारण ही विभिन्न समाज में रहने वाले लोगों का रहन-सहन, खान-पान, मूल्य, विश्वास एवं रीति- रिवाज भिन्न-भिन्न होते हैं।
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