भारत में समाजवाद का विकास | समाजवाद के रूप

 भारत में समाजवाद का विकास

भारत में समाजवाद के विकास को हम कुछ इस प्रकार समझेंगे कि जिसमें आपको पूरा समझ आ सके इस कारण हम समाजवाद की विभिन्न चरणों में व्याख्या करेंगे जो कुछ इस प्रकार होंगे—

प्रथम चरण (first phase)

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समय से ही भारतीय समाज में राष्ट्रीय संघर्ष हो रहे थे। यह राजनीतिक आंदोलन समाज की व्यवस्था को पूरी तरह से प्रभावित किए हुए थे। सन 1931 के करांची अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा पास किए गए प्रसिद्ध प्रस्ताव के प्राक्कथन में कहा गया है, “स्वराज से हमारा आशय देश की राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं वरन सर्वसाधारण को आर्थिक स्वतंत्रता से भी है।”

तत्पश्चात एक ऐसा मसीहा जिन्होंने अपने अस्तित्व द्वारा मानव शांति के आंदोलनों की नींव रखी तथा देश को अहिंसा की सीख दी, ऐसे महात्मा गाँधी जिन्होंने भारतीय आदर्शों और परिस्थितियों के अनुकूल समाजवाद का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार उस काल में पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, मानवेंद्र राय, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और राम मोनोहर लोहिया आदि नेताओं ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर और बाहर समाजवादी विचारधारा को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण रूप से भाग लिया।

दूसरा चरण (second phase) 

सन 1947 में देश आजाद हुआ था तथा 1950 में भारतीय संविधान की नींव रखी इसके अंतर्गत प्रजातांत्रिक समाजवाद के तत्वों को अपनाया गया। इन तत्वों को भारतीय संविधान की प्रस्तावना, नीति निर्देशक तत्वों और मौलिक अधिकारों में देखा जा सकता है। भारतीय शासन द्वारा अपनाई गई पंचवर्षीय योजनाओं का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना ही रहा है। अतः इसके अतिरिक्त नीति निर्देशक तत्व समाजवादी व्यवस्था के सामान्य सिद्धांत का उद्देश्य है।

तीसरा चरण (Third phase) 

यह काल पंडित नेहरू जी का काल था। जो भारत के प्रधानमंत्री बने। यह जीवन में सार्वजनिक रूप से समाजवाद पर विश्वास करते थे। 1955 के आबाड़ी कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘समाजवादी समाज के ढाँचे’ की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। 1962 के भावनगर अधिवेशन में इसी आशय का प्रस्ताव दोहराते हुए कहा कि, “भारत में मूल समस्या, जीवन स्तर को ऊँचा उठाना ही नहीं वरन् उत्तरोत्तर सामाजिक और आर्थिक समानता की स्थापना करना है। इस काल में समाजवाद की प्रगति भी हुई।

चौथा चरण (Forth phase)

यह काल ऐसा था जब भारत की प्रधानमंत्री एक महिला थीं। श्रीमती इंदिरा गांधी 1969 में गुटबंदी के परिणाम स्वरूप समाजवाद की दिशा को अत्यधिक महत्व दिए जाने लगा तथा इसमें महत्वपूर्ण कदम भी उठाये। 1972 के पाँचवें आम चुनाव में कांग्रेस का नारा “गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक असमानता की समाप्ति पर था।” इस प्रकार 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इस प्रकार इस काल में समाजवाद को विकसित करने में अपना कार्य जारी रखा।

निष्कर्ष—   उपरोक्त विश्लेषण के उपरांत हम इस लक्ष्य पर पहुंचते हैं कि वर्तमान समय में भी समाजवाद अपने आधुनिक रूप में विद्यमान है। जिसका माध्यम राजनीतिकता से लेकर समाज की समानता तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि अपनी वृद्धि के लिए इसके अन्य प्रयास भी जारी है। इस प्रकार भारतीय व्यवस्था को समाजवाद की स्थापना में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। समाजवाद की विकासात्मक प्रक्रिया वर्तमान में अपने कदम आगे बढ़ाए हुए हैं। 

समाजवाद के रूप (forms of socialism)

(1) लोकतांत्रिक समाजवाद

लोकतांत्रिक समाजवाद साम्यवाद व अराजकतावाद से पूर्णतया भिन्न है। यह समाज के अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक संयत तथा परिष्कृत है। यह विचारधारा धन के समान वितरण तथा सार्वजनिक कल्याण पर बल देती है। लोकतांत्रिक समाजवाद दो शब्द से बना है। लोकतंत्र व समाजवाद अतः यह एक ऐसी विचारधारा है जिससे समाजवादी आदर्श की प्राप्ति लोकतांत्रिक साधनों से ही की जा सकती है। जिसका उद्देश्य लोकतांत्रिक साधनों द्वारा ही समाजवाद की स्थापना करना है।

(2) श्रेणी समाजवाद

20वीं शताब्दी में इंग्लैंड में समाजवाद के एक नए रूप अथवा संप्रदाय का जन्म हुआ जो श्रेणी समाजवाद था। अतः इसके प्रवर्तक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोधी हैं। यह पूर्णतः समाजवाद के पक्ष में है। इसके मुख्य प्रवर्तकों में ए० जे० पेटी, ए० आर० एच०, जे०एस०हाब्सन, आर० एस० टॉनी आदि का विशेष योगदान है। श्रेणी का मुख्य कार्य श्रमिकों के हितों की रक्षा, मजदूरी की दर्वश्रम संबंधी बातें तथा उत्पादन संबंधी मापदंड निश्चित करें।

(3) श्रम संघवाद

श्रम संघ का तात्पर्य यह है कि labour union जिसका संबंध एक ही समान व्यापार के श्रमिकों का संघ है। जो समान हितों में जुड़ा होता है। यह एक ऐसा आर्थिक आंदोलन है जिसका उद्देश्य विभिन्न साधनों द्वारा राजनीति सत्ता प्राप्त करना है। यह एक सामाजिक क्रांति है। जिसका कार्य पूंजीवाद का विरोध कर राज्य और सरकार पर प्रतिबंध लगाकर समाज के संचालन संघ के हाथ में देने की इच्छा होना।

(4) साम्यवादी रूप 

यह एक आर्थिक विचारधारा है तथा जिस पर कार्ल मार्क्स के विचारों का प्रभाव है। अतः यह मार्क्सवाद का संशोधित रूप है जिसका मुख्य उद्देश्य पूंजीवाद का अंत कर श्रमिकों के हाथों में उत्पादन के सभी साधनों को देना तथा वर्ग रहित तथा राज्य रहित समाज का निर्माण करना है।

(5) अराजकतावाद

यह अत्यधिक प्रभावशाली विचारधारा है। यह सिद्धांत राज्य को अनावश्यक बुराई मानता है। इसकी वास्तविकता तो यह है कि यह एक राज्य विहीन, वर्ग विहीन, नियंत्रण विहीन समाज की स्थापना का आदर्श प्रस्तुत करता है। यह सिद्धांत शक्ति पर आधारित शासन के विरुद्ध है।

(6) वैज्ञानिक समाजवाद

कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद है जो एक व्यवहारिक दर्शन है। यह एक वैज्ञानिक समाजवाद है। इसमें दर्शन, अर्थशास्त्र को इतिहास का पूरा प्रयोग हुआ है। जो एक क्रमबद्ध समाजवादी दर्शन है।

निष्कर्ष—    उपरोक्त अध्ययन के उपरांत हम इस लक्ष्य पर पहुंचते हैं कि समाजवाद की जड़ी अत्यधिक गहरी वह फैली हुई है जिसको कटपना अत्यधिक कठिन है।


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