कृषक समाज क्या है? अवधारणाएं तथा विशेषताएं

कृषक समाज (farming society) 

ग्रामीण समुदायों के अध्ययनों में ‘लघु समुदाय’ की अवधारणा की तरह एक अन्य अवधारणा का भी प्रयोग किया गया है जिसे कृषक समाज कहा जाता है। क्योंकि गांव में अधिकांश तो कृषक ही निवास करते हैं तथा कृषि उनकी प्रमुख जीवन पद्धति होती है, इसलिए गांवों को कृषक समाज कहा गया है। 

कृषक समाज की अवधारणा

रोबर्ट रेडफील्ड ने ग्रामीण समुदाय के विश्लेषण के लिए अन्य अवधारणा को सामने रखा। यह अवधारणा ‘कृषक समाज’ की है। इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग उन्होंने अपने ‘टेपोजलान’ के अध्ययन में किया। आज अनेक अन्य समाज शास्त्रियों ने इस अवधारणा द्वारा अपने अध्ययन करके इसे और अधिक परिष्कृत करने में सहायता प्रदान की है । कृषक समाज की अवधारणा को समझने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि कृषक किसे कहते हैं?

1— फिर्थ के अनुसार — “लघु उत्पादकों को यह समाज जो कि केवल अपने निर्वाह के लिए ही खेती करता है , ” कृषक कहा जाता है।

2— रेडफील्ड के अनुसार—“कृषक उन्हें कहा जाता है जो की खेती अपने निर्वाह के लिए करते हैं , कृषि ही उनके जीवन का आधार है तथा इसका उद्देश्य व्यापार तथा मुनाफा नहीं है। हम ऐसा कह सकते हैं कि वह कृषि करने वाला जो की कृषि पुनर्लागत के लिए और व्यापार के लिए करते हैं तथा जमीन की पूंजी समझते हैं वे कृषक नहीं अपितु फार्मर कहलाते हैं।” ये शब्द वास्तव में इराक वोल्फ ने कहे थे। जिसे रेडफील्ड वैसे का वैसा ही स्वीकार कर लेते हैं।

       इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि कृषक वह है जो कि अपने उपभोग के लिए कृषि करता है ना कि व्यापार के लिए या बेचने के लिए फसल उगाता है। जो व्यापार के लिए कृषि करता है उसे फार्मर कहा जाता है।

रेडफील्ड ऐसे कृषक की बात करते हैं जो की भूमि के छोटे से टुकड़े का मालिक है तथा इससे परंपरा और भावनाओं द्वारा जुड़ा हुआ है । जमीन तथा वह एक ही वस्तु के दो हिस्से हैं , इन दोनों में प्रचलित संबंधों की व्यवस्था पाई जाती है। वह कृषकों को पुरानी सभ्यताओं का ग्रामीण पहलू के रूप में देखता है । रेड फील्ड के शब्दों में - “कृषक समाज का तात्पर्य उन ग्राम वासियों से है जो जीवन-निर्वाह के लिए भूमि पर नियंत्रण बनाए रखते हैं , तथा उसे जोतते हैं, कृषि जिनके जीवन का एक ढंग है, जो ग्रामीण उन नागरीय लोगों की ओर देखते हैं एवं उनसे प्रभावित होते हैं।”

रेड फील्ड की परिभाषा से निम्नांकित बातें स्पष्ट होती —

1- कृषक समाज में कृषकों द्वारा खेती करना उनका जीवन-निर्वाह का एक ढंग होता है।

2- कृषक समाज में सदस्यों का जीवन- निर्वाह का ढंग सामान्य होता है।

3- कृषक अन्य व्यवसायों एवं आर्थिक स्थिति वाले व्यक्तियों से भी संबंध रखते हैं।

4- कृषकों की अर्थव्यवस्था का मौलिक सूत्र भूमि है।

क्रोवर (Kroeber) का भी यही कहना है कि कृषक निश्चित रूप से ग्रामीण है यद्यपि वे व्यापारिक कस्बों के नजदीक रहते हैं। वह संस्कृति तथा समाज का हिस्सा है। वे सामान्य सभ्य जीवन का ग्रामीण पहलू है। कृषक समाज का अर्थ कृषकों की प्रधानता वाले ग्रामीण समुदायों से हैं। इनके शब्दों में —“कृषक समाज मध्यवर्ती स्थिति में है ; इसके एक ओर जनजातीय समाज है तो दूसरी ओर नगरी समाज है।”

कृषक समाज की प्रमुख विशेषताएँ

कृषक तथा कृषक समाज की अवधारणाओं के स्पष्टीकरण से कृषक समाज की अनेक प्रमुख विशिष्ट विशेषताएं भी स्पष्ट हो जाती हैं। किसी भी कृषक समाज में निम्नांकित प्रमुख विशेषताएं पाई जाती हैं—

1- कृषक समाज कृषकों की प्रधानता वाला समाज है।

2- कृक्षक समाज अपेक्षाकृत सजातीय समाज है।

3- कृषक समाज के सदस्यों की आजीविका का मुख्य श्रोत भूमि है। वह भूमि पर नियंत्रण रखते हैं तथा इसे जोतते हैं।

4- कृषक समाज में थोड़ी- बहुत आर्थिक असमानता हो सकती है परंतु यह अपेक्षाकृत एक स्तरीकरणविहीन (अस्तरीकृत )एवं अविभेदीकृत समुदाय होता है।

5- आर्थिक दृष्टि से कृषक समाज अन्य समाजों से पूर्णता भिन्न है।

6- कृषक समाज में ‘परिवार’ उत्पादन एवं उपभोग की एक महत्वपूर्ण इकाई होता है।

कृषक समाज समाजों के एक हिस्से के रूप में 

कृषक समाज का बाह्य व्यक्तियों तथा संस्थाओं से संबंध इतना अधूरा है कि इस व्यवस्था को सामाजिक संरचना नहीं कहा जा सकता। भारतीय गांव के बारे में भी मेरियट का यहीं कहना है कि एक गांव के व्यक्ति का संबंध अपने गांव की अपेक्षा अन्य गांव के व्यक्तियों के साथ काफी सुदृढ़ है। कृषक समुदाय, जो की नगरों से अधिक दूरी पर स्थित है बिना अभिजात वर्ग के भी हो सकते हैं, परंतु ऐसा बहुत कम होता है।

   कृषक समाज के व्यक्तियों के पारस्परिक संबंध व्यक्तिगत तथा काफी सुदृढ़ है। परंतु सभ्यता के विकास के साथ-साथ संबंधों के महत्ता कम होती जा रही है। कृषक समाज एक तरह से स्त्री समाज है तथा व्यक्तियों का जीवन प्राकृतिक जीवन है क्योंकि प्रकृति से उनका प्रत्यक्ष संबंध है। कृषक बड़े परिश्रमी व्यक्ति हैं।

भारतीय संदर्भ में कृषक समाज की अवधारणा की उपयुक्तता

भारत एक कृषि प्रधान देश है तथा इसकी तीन चौथाई जनसंख्या गांव में निवास करती है। ग्राम वासी किसी न किसी रूप में कृषि से प्रत्यश या अप्रत्यक्ष जुड़े हुए होते हैं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने भारतीय समाज को भी एक कृषक समाज कहा है। परंतु आंद्रे बेतेई ने इसे अस्वीकार करते हुए इस बात पर बोल दिया है कि भारतीय ग्रामीण समुदायों को हम कृषक समुदाय या कृषक समाज नहीं कह सकते हैं। उनके अनुसार संपूर्ण भारतीय कृषि संरचना अनेक प्रकार के समूह तथा उनमें पाए जाने वाले संबंधों से निर्मित होती है। भारतीय गांव में एक और जातीय संस्तरण है तो दूसरी ओर कृषि संबंधी संस्तरण पाया जाता है जो कि कृषक समाज में नहीं पाया जाता है। अतः संपूर्ण भारतीय ग्रामीण समाज को कृषक समाज कहना उचित नहीं है। केवल कुछ गिने चुने गांव कृषक समाज के लक्षण परिलक्षित करने वाले हो सकते हैं।

      कृषक समाज नगरीय व जनजातीय समाज के बीच की कड़ी है परंतु यह कोई अवशिष्ट श्रेणी नहीं है। हमारे समाज में एक सुस्पष्ट कृषि संस्तरण पाया जाता है। अतः कृषक समाज की विवेचना में सामाजिक -सांस्कृतिक विशेषताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। बेतेई का कहना है कृषक केवल भूपति ही नहीं है अभी तो भारतीय संदर्भ में किराए पर भूमि को जोतने वाला अथवा एक श्रमिक के रूप में भूमि पर श्रम करने वाला भी कृषक हो सकता है। कृषकों की वास्तविक स्थिति अन्य समूहों (कुलीन वर्ग को छोड़कर) से उच्च नहीं होती है। भारत में कृषक आर्थिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। कृषक समाज की अवधारणा भारतीय गांव के विश्लेषण में निम्नांकित कारणों से अधिक उपयुक्त नहीं है—

(1) भारतीय गांव कृषक समाज की तरह सजातीय नहीं है क्योंकि उनमें विभिन्न जातियों, धर्म को सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताओं वाले व्यक्ति निवास करते हैं।

(2) कृषक समाज में अकृषकों (विशेषतः कुलीन वर्ग) का कोई स्थान नहीं होता क्योंकि वह नगरों में रहते हैं। परंतु भारत में ऐसा नहीं है। भारतीय ग्रामीण समुदायों में अभिजात वर्ग विद्यमान रहे हैं, वे आज भी हैं तथा गांव में उनकी भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

(3) भारतीय गांव अविभेदिकृत तथा अस्तरीकृत नहीं है। इसीलिए उन्हें कृषक समाज नहीं कहा जा सकता है।

(4) भारतीय गांव में जटिल जाती है संरचना पाई जाती है जो किसी प्रकार की कृषक संस्कृति को विकसित नहीं होने देती।


महत्वपूर्ण अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर 

भारतीय कृषक समाज के संस्थापक कौन थे?

भारतीय कृषक समाज के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती जी को कहा जाता है।

कृषक समाज की अवधारणा किसने दी?

कृषक समाज की अवधारणा आन्द्रे बिताई, रॉबर्ट रेडफील्ड तथा थियोडोर शनीन ने दी।

भारत में कितने किसान संगठन है?

भारत में लगभग 187 किसान संगठन है?

कृषक समाज किसे कहते हैं?

ग्रामीण समुदायों के अध्ययनों में ‘लघु समुदाय’ की अवधारणा की तरह एक अन्य अवधारणा का भी प्रयोग किया गया है जिसे कृषक समाज कहा जाता है।

कृषक समाज की प्रमुख विशेषताएं?

कृषक समाज की प्रमुख विशेषताएं - 1- कृषक समाज कृषकों की प्रधानता वाला समाज है। 2- कृक्षक समाज अपेक्षाकृत सजातीय समाज है। 3- कृषक समाज के सदस्यों की आजीविका का मुख्य श्रोत भूमि है। वह भूमि पर नियंत्रण रखते हैं तथा इसे जोतते हैं।

कृषक समाज की अवधारणा बताइए?

रोबर्ट रेडफील्ड ने ग्रामीण समुदाय के विश्लेषण के लिए अन्य अवधारणा को सामने रखा। यह अवधारणा ‘कृषक समाज’ की है। इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग उन्होंने अपने ‘टेपोजलान’ के अध्ययन में किया। आज अनेक अन्य समाज शास्त्रियों ने इस अवधारणा द्वारा अपने अध्ययन करके इसे और अधिक परिष्कृत करने में सहायता प्रदान की है।

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