हिंदू विवाह से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे जैसे-
1- हिन्दू विवाह का अर्थ क्या है?
2- हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है
3- हिन्दू विवाह के मुख्य उद्देश्य लिखिए
4- हिन्दू विवाह एक संस्कार है
हिन्दू विवाह (hindu marriage)
विवाह प्रत्येक समाज में पाया जाता है। सभी धर्मों और जातियों में इसका अलग-अलग महत्व है। हिंदुओं में प्रत्येक व्यक्ति के लिए विवाह को अनिवार्य बताया गया है तथा इसे एक अटूट बंधन एवं धार्मिक संस्कार कहा गया है। यह एक ऐसा संस्कार है जिसका उचित आयु और समय पर पालन करना प्रत्येक स्त्री एवं पुरुष का धर्म है। हिंदू दर्शन के अनुसार विवाह एक संस्कार है तथा इसे पितृ-ऋण से उऋण होने के लिए अनिवार्य माना गया है।
हिन्दू विवाह का अर्थ
हिन्दू विवाह का अर्थ ; हिन्दू विवाह को मुख्यत: एक धार्मिक संस्कार व अटूट बंधन के रूप में देखा जाता है। इसमें किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान विवाह को पूर्ण करने हेतु अनिवार्य है। यह वस्तुतः एक स्त्री-पुरुष को शारीरिक, सामाजिक व आध्यात्मिक उद्देश्यों से धर्म, प्रजा व रति (जो कि इसके प्रमुख उद्देश्य हैं) के स्थाई सूत्रों में बाँधता है। इसी तथ्य को सामने रखकर हिंदू विवाह को परिभाषित किया गया है। हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है, क्योंकि हिन्दू शास्त्रों में इसे जन्म-जन्मांतर का मिलान तथा अटूट बंधन माना गया है।
हिन्दू विवाह की परिभाषा
हिंदू विवाह को विद्वानों ने एक संस्कार के रूप में ही परिभाषित किया है। उदाहरण के लिए— पी० एच० प्रभु के अनुसार, हिंदू विवाह एक धार्मिक कृत्य है जिसके द्वारा व्यक्ति (युवती या युवक) ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। हिंदू विवाह एक धार्मिक संस्कार है, इसकी विवेचना करने से पहले संस्कार शब्द का अर्थ जान लेना आवश्यक है। संस्कार का अर्थ शुद्धीकरण की प्रक्रिया से है अर्थात किसी समय पर मानव को ऐसे अनुष्ठान करने पड़ते हैं, जिनकी सहायता से मानव-जीवन की क्षमताओं का उद्घाटन होता है।क्षमताओं के उद्घाटन के पश्चात मानव को समाज में एक प्रकार का स्तर दिया जाता है। इस दृष्टि से यदि हम हिन्दू विवाह को देखें तो हमें यह विदित होता है कि एक हिन्दू को विवाह के समय कुछ ऐसे अनुष्ठान करने पड़ते हैं अथवा हिंदू विवाह में कुछ ऐसे अनुष्ठानों का समावेश होता है, जिनको देखने के पश्चात पूर्णता यह स्पष्ट हो जाता है कि वह व्यक्ति, जिसका विवाह संपन्न हो होने जा रहा है अथवा हो गया है, वास्तव में ऐसा बना दिया गया है कि वह अपने जीवन को बदलकर नए रास्ते अपनाए और अपने जीवन में नया अध्याय खोले।
हिन्दू विवाह के प्रमुख उद्देश्य
हिन्दू विवाह के उद्देश्य: हिन्दू विवाह एक सामाजिक समझौता नहीं है, बल्कि कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया गया स्त्री-पुरुष के बीच एक जन्म-जन्मांतर का बंधन है। इसे एक धार्मिक संस्कार माना गया है जो कि दोनों आत्माओं का मिलन है। हिन्दू विवाह के प्रमुख उद्देश्य का विवरण निम्नलिखित है—
(1) धर्मपालन का उद्देश्य
हिन्दू धर्म में विवाह का प्रमुख उद्देश्य धर्मपालन करना है। धर्म का तात्पर्य कर्तव्यपालन करने से है, परंतु कर्तव्य पालन पुरुष अकेला नहीं कर सकता। यज्ञ करना वैदिककाल में अनिवार्य माना जाता था और यज्ञ बिना पत्नी के पूरा नहीं हो सकता ; अतः विवाह करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक हो जाता है।
(2) प्रजा या संतान प्राप्ति
धर्म के पश्चात हिंदू विवाह का उद्देश्य संतान उत्पन्न करना है। मनु के अनुसार— “संतानोपत्ति विवाह का प्रमुख उद्देश्य है।” वेदों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति तीन प्रकार के ऋण लेकर संसार में जन्म लेता है—
1- पितृ ऋण
2-ऋषि ऋण
3- देव ऋण
पितृ ऋण से उऋण होने के लिए संतान उत्पन्न करना आवश्यक है। हिंदुओं का विश्वास है कि पुत्र ही पिता को नरक जाने से रोकता है। पुत्र पितरों को शांति देता है तथा तर्पण करता है।
(3) रति या यौन-सुख
यह हिन्दू विवाह का अंतिम उद्देश्य है। हिन्दू शास्त्रकारों के अनुसार, प्राकृतिक इच्छाओं का दमन व्यक्तित्व के विकास के लिए बाधक है; अतः विवाह द्वारा काम-तृप्ति करना आवश्यक है। रति या यौन सुख को नियमित एवं समाज- सम्मत रूप देना ही विवाह का उद्देश्य है, परंतु इसे हिन्दू विवाह में सबसे निम्न स्थान दिया गया है। इस तथ्य के० एल० दफ्तरी ने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है— “यौन-सुख ही विवाह का एकमात्र उद्देश्य नहीं समझा जाता था।”
हिन्दू शास्त्रों में विवाह के उपर्युक्त तीन उद्देश्यों का ही उल्लेख मिलता है। इनने में भी धर्म को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और रति को सबसे निम्न। पहले ऐसा माना जाता रहा है कि अगर कोई उच्च वर्ण का व्यक्ति भी केवल रति के लिए विवाह करता है तो वह शूद्र है। विवाह के कुछ अन्य उद्देश्य भी हैं जो निम्नलिखित है—
(4) गृहस्थ आश्रम में प्रवेश
हिंदुओं में मानव जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना होता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए मनुष्यों को चारों आश्रमों (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास) में अपना जीवन गुजारना पड़ता है। विवाह द्वारा ही व्यक्ति ग्रहस्त आश्रम में प्रवेश कर सकता है। इसलिए गृहस्त आश्रम के लिए विवाह अत्यंत ही आवश्यक समझा गया है।
(5) सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति को ग्रृहस्त आश्रम में रहकर कुछ सामाजिक कर्तव्यों को निभाना पड़ता है अथवा कुछ सामाजिक कार्य करने पड़ते हैं। इन सामाजिक कार्यों में पितृ ऋण, देव ऋण, अतिथि ऋण तथा भूत ऋण से उऋण होना होता है क्योंकि इसे उऋण होने के बाद ही मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। साथ ही, हिन्दू विचारधारा यह भी है कि बिना अर्धांगिनी के मनुष्य इन सामाजिक कार्यों को पूरा नहीं कर सकता, इसलिए हिन्दू विवाह का एक ध्येय सामाजिक कार्य को पूरा करना भी है।
(6) व्यक्तित्व का विकास
हिन्दू विवाह का उद्देश्य मानव के शारीरिक और मानसिक व्यक्तित्व का भी विकास करना है। विवाह के पश्चात मनुष्य गृहस्थ आश्रम में पदार्पण करता है। इस आश्रम में उसे अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रत्येक सुविधा और सुख मिलता है। जब मानव अपनी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है तो उसे वास्तविक सुख मिलता है। वास्तविक सुख में मानव के व्यक्तित्व का विकास आवश्यक होता है।
एक टिप्पणी भेजें