भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का महत्व तथा समस्याएं

 निर्वाचन व्यवस्था (प्रणाली) से संबंधित जिन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे वे कुछ इस प्रकार होंगे — 

1- भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का महत्व
2- भारतीय निर्वाचन व्यवस्था की समस्याएं
भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का महत्व तथा समस्याएं

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था (प्रणाली)

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था (प्रणाली), चुनाव एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा जनता अपनी प्रतिनिधियों को चुनती है और किसी सीमा तक उन पर नियंत्रण भी करती है। चुनाव के महत्व अथवा चुनाव के कार्यों को कुछ इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है—

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का महत्व

(1) जनता द्वारा प्रतिनिधियों का चुनाव

निर्वाचन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मतदाता अपने प्रतिनिधि को चुनता अथवा चुनाव करते हैं। निर्वाचन के माध्यम से ही सांसद और विधान मंडलों का गठन होता है, और सरकार बनती है, और राष्ट्रपति का निर्वाचन संभव हो पाता है। राष्ट्रपति राज्यपालों व उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है इस प्रकार शासन का सारा ढांचा निर्वाचन के ही आधार पर खड़ा किया जाता है। 

(2) जनता द्वारा सरकार पर नियंत्रण

विजयी प्रत्याशियों को अगले चुनाव में पुनः जनता से वोट मांगने होंगे इसलिए इन्हें यह बताना पड़ेगा कि उनकी क्या उपलब्धियां रही है। सत्ता प्राप्त कर लेने पर उन्होंने यदि वह अवसर लापरवाही से गवा दिया तो जनता पुनः उन्हें वोट नहीं देगी। इस प्रकार जनता अपने द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर नियंत्रण बनाए रखती है।

(3) निर्वाचन के विशिष्ट मुद्दे 

राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा पत्र में बहुत से वादे करते हैं। घोषणा पत्र में ऐसी ऐसी बातें रखी जाती है जिससे पार्टी खुश सभी वर्गों का समर्थन मिल सके, परंतु कभी-कभी चुनाव कुछ स्पष्ट मुद्दों को लेकर लड़े जाते हैं। सन् 1977 का चुनाव लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ा गया तो सन् 1980 के चुनाव में मुख्य मुद्दा केंद्र में मजबूत सरकार की आवश्यकता थी। इसी प्रकार सन् 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के कारण सहानुभूति की लहर व देश की एकता व अखंडता का मुद्दा रहा। आगे की चुनावों के मुद्दे क्रमशः कांग्रेस के विरोधी मतों का ध्रुवीकरण, धर्म निरपेक्षता, स्वच्छ शासन व प्रशासन, भ्रष्टाचार एवं प्रहार आदि रहे।

(4) लोकतांत्रिक स्वरूप का पर्याय

लोकतंत्र को ‘जनता का शासन’ कहते हैं परंतु वास्तविक बात यह है कि शासन के कार्यों में जनता की साझेदारी बहुत सीमित है। अधिकांश नागरिक तो केवल चुनाव के दिन ही यह अनुभव करते हैं कि सरकार उनकी ‘अपनी सरकार’ है। 

(5) शासन की वैधानिक मान्यता

चुनावों के माध्यम से सरकार को कानूनी मान्यता मिलती है इससे उसकी प्रतिष्ठा बनती है। यही कारण है की क्रांति के बाद आमतौर पर शासको की पहली घोषणा यही होती है कि देश में शीघ्र ही स्वतंत्र और निष्पक्ष से चुनाव कराए जाएंगे।

(6) हिंसक क्रांति के भय का अंत 

मताधिकार नागरिकों की हृदय में शासन के प्रति निष्ठा और भक्ति की भावना उत्पन्न करता है। नागरिक मताधिकार के माध्यम से ऐसी सरकार को बदल सकते हैं जो उनकी इच्छाओं का सम्मान नहीं करती है

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था की समस्याएं

भारतीय निश्वासन पद्धति में अनेक प्रकार की त्रुटियां शामिल है अथवा पाई जाती है, जिनके निदान के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं। और इसी संदर्भ में सिफारिश हेतु विभिन्न समितियां आदि समय-समय पर गठित की जाती रही है। जो भारतीय निर्वाचन व्यवस्था में समस्याएं उत्पन्न हो रही है उनमें कुछ समस्याएं यह है— 

(1) दोष युक्त निर्वाचन पद्धति

भारत में साधारण बहुमत की जो निर्वाचन व्यवस्था प्रचलित है, वह दोष मुक्त है क्योंकि इसी व्यवस्था में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में वही उम्मीदवार विजयी घोषित किया जाता है, जिसने सबसे अधिक मत प्राप्त किए हो, चाहे विरोधी अथवा पराजित उम्मीदवारों को मिले मतों का योग उसे प्राप्त मतों से कितना ही अधिक क्यों न हो। इसके परिणाम स्वरुप प्रायः उसी दल को सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हो जाता है, जिस देश के बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं होता। उदाहरण के तौर पर— कांग्रेस दल जिसने प्रथम तीन निर्वाचनों में क्रमशः 74.4, 75.1, 72.8, प्रतिशत तथा चौथे, पांचवी निर्वाचन में क्रमशः 53.5 तथा 67.8% मत प्राप्त किया। अन्य पार्टियों ने सन् 1977 तक कभी भी देश का बहुमत प्राप्त नहीं किया था। इतना ही नहीं फरवरी 1974 की विधानसभा निर्वाचनों में तो कांग्रेस ने देश के बहुमत का केवल 36.26 प्रतिशत प्राप्त करके ही अपनी सरकार बनाने में सफलता प्राप्त कर ली थी।

(2) सत्ताधारी दल द्वारा प्रशासनिक यंत्रों का दुरुपयोग

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था में एक गंभीर दोष यह देखने में आया है कि सत्ताधारी दल प्रशासनिक यंत्रों का दुरुपयोग करता रहा है। निर्वाचन के समय पर सत्ताधारी दल राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए अनेक विकास योजनाओं की घोषणा कर देता है, जिनमें से अधिकांश कभी भी क्रियान्वित (किते नहीं जाते है) नहीं होती है। 

(3) निर्वाचनों में विपुल (अत्यधिक) धन का व्यय 

निर्वाचनों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दोष अत्यधिक धन का व्यय है। यद्यपि संविधान में निर्वाचन में प्रत्येक उम्मीदवारों द्वारा धन खर्च किए जाने की सीमा निर्धारित कर दी गई है, किंतु इस सीमा का प्रायः दुरुपयोग होता है। आजकल चुनाव अत्यधिक खर्चीले हो गए हैं। निर्वाचन में काले धन का प्रचलन बहुत अधिक बढ़ गया है। राजनीतिक दलों को विभिन्न कंपनियां अथवा पूंजीपति आर्थिक सहायता देते हैं जो व्यक्ति अथवा कंपनी धन देता है वह चुनाव के बाद अनुचित लाभ उठाने का प्रयास करते हैं।

(4) निरक्षरता एवं अज्ञानता की समस्या

जनता की और शिक्षा एवं अज्ञानता के कारण मताधिकार का सच्चे हाथों में सही प्रयोग नहीं हो पता है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में निरक्षरों की संख्या करोड़ों में है जिसके कारण राजनीतिक दलों की नीतियों व कार्यक्रम को ऐसे लोग आसानी से नहीं समझ पाए।

(5) निर्वाचन अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव

अनेक उदाहरण ऐसे पाएं गए हैं, जिम नेताओं ने निर्वाचन अधिकारियों पर अनुचित दबाव डालकर अपने पक्ष में कार्य करने के लिए बाध्य किया है। भूतपूर्व निर्वाचन आयुक्त श्री सेन शर्मा ने यह स्वीकार किया था कि— “राजनीतिक दबाव में आकर मतदाता सूचियां में गड़बड़ी की गई, मंत्रियों तक ने चुनाव में हस्तक्षेप किया, संसद सदस्यों तक के नाम मतदाता सूची में से निकाल दिए गए ताकि हुए लोग चुनाव न लड़ सके और प्रतिपक्षी उम्मीदवारों के नामांकन पत्र भारी संख्या में रद्द कर दिए गए। चुनाव की पहली और चुनाव के बाद निर्वाचन अधिकारियों को तंग करने की शिकायतें भी बहुत अधिक है।” 

(6) जातिवाद, क्षेत्रवाद और चुनाव में हिंसा 

भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय एकता के समक्ष अनेक जटिल समस्याएं हैं। भारत में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी है। प्रादेशिक दलों के बढ़ते हुए प्रभाव से क्षेत्रवाद की भावना को बल मिलता है। चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर होने वाले हिंसात्मक गतिविधियां भी भारतीय लोकतंत्र पर गहरे धब्बे हैं। 

(7) मतदाताओं की उदासीनता

निर्वाचन में मतदाताओं की उदासीनता अर्थात मतदान के प्रतिशत में आ रही गिरावट भी चिंता का एक मुख्य विषय है। चुनावों में इसी उदासीनता के कारण जाली एवं फर्जी मतदान को और अधिक बढ़ावा मिलता है।

(8) स्वतंत्र उम्मीदवारों की अधिकता

भारत में चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों की अधिकता से भी एक जटिल समस्या उत्पन्न हो रही है क्योंकि यह उम्मीदवार संपूर्ण चुनाव परिदृश्य को ही परिवर्तित कर देते हैं। और ऐसा लगता है कि यह उम्मीदवार चुनाव को परिहास का रूप प्रदान करना चाहते हैं।


महत्वपूर्ण अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर 

निर्वाचन आयोग में कितने सदस्य होते हैं?

निर्वाचन आयोग में 3 निकाय सदस्य होते हैं।

भारतीय निर्वाचन प्रणाली क्या है?

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था (प्रणाली), चुनाव एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा जनता अपनी प्रतिनिधियों को चुनती है और किसी सीमा तक उन पर नियंत्रण भी करती है।

भारत में निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत कब हुई?

भारत में निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत 25 जनवरी, 1950 में हुई।

भारत में निर्वाचन प्रणाली का महत्व बताइए?

भारत में निर्वाचन प्रणाली का महत्व - (1) जनता द्वारा प्रतिनिधियों का चुनाव (2) जनता द्वारा सरकार पर नियंत्रण (3) निर्वाचन के विशिष्ट मुद्दे (4) लोकतांत्रिक स्वरूप का पर्याय (5) शासन की वैधानिक मान्यता (6) हिंसक क्रांति के भय का अंत।

भारत में निर्वाचन प्रणाली की समस्याएं क्या है?

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था की समस्याएं - (1) दोष युक्त निर्वाचन पद्धति (2) सत्ताधारी दल द्वारा प्रशासनिक यंत्रों का दुरुपयोग (3) निर्वाचनों में विपुल (अत्यधिक) धन का व्यय (4) निरक्षरता एवं अज्ञानता की समस्या (5) निर्वाचन अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव (6) जातिवाद, क्षेत्रवाद और चुनाव में हिंसा (7) मतदाताओं की उदासीनता (8) स्वतंत्र उम्मीदवारों की अधिकता।

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