व्यक्तिवादी सिद्धांत का अर्थ, कार्य तथा आलोचनाएं

 व्यक्तिवादी (individualist)

व्यक्तिवादी सिद्धांत का अर्थ

व्यक्तिवादी सिद्धांत का प्रादुर्भाव यूरोप में 18वीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ था। व्यक्तिवादी सिद्धांत के अनुसार राज्य को व्यक्ति के कार्यों में कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिए। यह विचारधारा व्यक्ति को महत्व प्रदान करती है। इसके अनुसार व्यक्ति साध्य है और राज्य तथा समाज व्यक्ति के लिए साधन-मात्र हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, राज्य एक आवश्यक बुराई है (State is a Necessary Evil) तथा यह सिद्धांत व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अधिक बल देता है। वस्तुत: व्यक्तिवादी राज्य के कार्य और व्यक्ति की स्वतंत्रता को एक दूसरे का विरोधी मानते हैं और इस विचार पर बल देते हैं कि व्यक्ति की स्वतंत्रता के हित में राज्य द्वारा सीमित कार्य किए जाने चाहिए। और व्यक्ति वाले सिद्धांत के अनुसार, “राजीव व्यक्ति के लिए है न कि व्यक्ति राज्य के लिए।” अतः राज्य का कार्य क्षेत्र व्यापक न होकर सीमित होना चाहिए। 

व्यक्तिवाद के संबंध में प्रमुख राजनीतिज्ञों के विचार 

व्यक्तिवाद के संबंध में विभिन्न राजनीतिज्ञों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं जिनमें कुछ मुख्य इस प्रकार हैं— 

(1) फ्रीमैन के अनुसार, “वह सरकार सर्वोत्तम है, जो कम से कम शासन करती है।”

(2) जे० एस० मिल के अनुसार, “मानव समाज को किसी व्यक्ति के कार्य करने की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल आत्मरक्षा के लिए ही है। अपने ऊपर अर्थात अपने शरीर और मस्तिष्क पर व्यक्ति की सत्ता सर्वोपरि है।” 

(3) हम्बोल्ट के अनुसार, “व्यक्तिवाद व्यक्ति के हितों का समर्थक है। यह मनुष्य की शक्तियों के पूर्ण विकास एवं उसकी समस्या अधिकारों का एक व्यक्ति के रूप में उपयोग करने का समर्थन करता है।” 

व्यक्तिवादियों द्वारा प्रतिपादित राज्य के कार्य

  व्यक्तिवादियों के अनुसार राज्य के कार्य निषेधात्मक हैं तथा इन कार्यों का लक्ष्य समाज में व्याप्त बुराइयां अथवा कुरीतियां को दूर करना है। हरबर्ट स्पेंसर व्यक्ति की स्वतंत्रता और राज्य की सत्ता को एक दूसरे के विपरीत मानते हैं। उन्होंने यह कहा है कि राज्य को सकारात्मक कार्य नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे प्रकृति के सिद्धांतों अथवा स्वतंत्र उपयोगिता के सिद्धांत का अतिक्रमण होता है। अतः व्यक्तिवादी सिद्धांत आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के भी विपरीत है उसके अनुसार राज्य के निम्नलिखित तीन प्रमुख कार्य है जो कुछ इस प्रकार हैं— 

  1. बाहरी शत्रुओं से देश की सुरक्षा करना।
  2. आंतरिक शांति स्थापित करना।
  3. कानूनी समझौते की रक्षा करना।

उग्र व्यक्तिवादी स्पेंसर के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति वीडियो ने राज्य के निम्न तीन कार्य और बताए हैं जो कुछ इस प्रकार हैं— 

  1. संपत्ति की लुटेरों से सुरक्षा।
  2. असहायों की सहायता एवं सुरक्षा करना।
  3. जन स्वास्थ्य की सुरक्षा करना।

डाँ आशीर्वादम उनके अनुसार, “व्यक्तिवाद राज्य के कर्तव्यों तथा व्यक्ति की आर्थिक जीवन से संबंधित 19वीं शताब्दी का वह महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो राज्य को मनुष्य की अपूर्णता का प्रतीक कहकर उसकी निंदा करता है और आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्र उपयोगिता का समर्थन करके राज्य द्वारा कम से कम हस्तक्षेप से चाहता है, इस प्रकार यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए इसी शताब्दी का महत्वपूर्ण आर्थिक एवं राजनीतिक आंदोलन है।” 

 अगर उपयोगितावादी सिद्धांत के समर्थकों की बात करें तो उनमें कुछ मुख्य यह है— एडम स्मिथ, रिकार्डो, केने, माल्थस, हमबोल्ड जे० एस० मिल तथा हरबर्ट स्पेंसर आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 

व्यक्तिवादियों द्वारा प्रतिपादित राज्य के कार्यों की आलोचना

 (1) राज्य एक आवश्यक बुराई नहीं है 

व्यक्तिवादियों का यह कथन है कि, ‌“राज्य एक आवश्यक बुराई है यह कथन सत्य नहीं है। बर्क के अनुसार, “राज्य समस्ती विज्ञानों समस्त कलाओं समस्त गुना और समस्त पूर्णता में सहकारिता है।” राज्य के अभाव में सर्वोत्तम जीवन असंभव है। 

(2) ऐतिहासिक दृष्टि से व्यक्तिवाद की आर्थिक और राजनीतिक परिणाम भयंकर सिद्ध हुए हैं

ऐतिहासिक विवरण के आधार पर यह विदित होता है कि व्यक्तिवादी नीति को अपनाने के भयंकर परिणाम हुएं हैं। इससे पूंजी बात का विकास हुआ और पूंजीवाद के फल स्वरुप ही शोषण तथा साम्राज्यवाद पर आधारित मनोवृतियों का विकास हुआ है। साम्राज्यवादी क्रियाकलापों के परिणाम स्वरुप ही विश्व में युद्ध आरंभ हुए तथा विश्व शांति को खतरा उत्पन्न हुआ है।

(3) स्वतंत्रता का भ्रामक अर्थ

व्यक्तिवादियों ने स्वतंत्रता का भ्रामक अर्थ व्यक्त किया है। उनके अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ नियंत्रण का अभाव और स्वेच्छाचारिता है। स्वतंत्रता का यह अर्थ गलत है, क्योंकि सच्ची स्वतंत्रता व्यक्ति और समाज के समन्वित हित में ही निहित है।

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