द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का अर्थ, विकास के नियम तथा विशेषताएं

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का अर्थ; द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स के दर्शन का मुख्य आधार है। उसके अनुसार, विश्व की सभी समस्याओं के समाधान में यह हमारा पद-प्रदर्शन करता है। ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ में दो शब्द हैं, इनमें प्रथम शब्द उसे प्रक्रिया को स्पष्ट करता है जिसके अनुसार सृष्टि का विकास हो रहा है तथा दूसरा शब्द, सृष्टि की मूल तत्व को सूचित करता है। मार्क्स के दर्शन का मूल तत्व पदार्थ है और उसके अनुसार भौतिकवाद ही आदर्श है। जिस वस्तु का चिंतन हम करते रहते हैं वह वस्तु भौतिक होती है और भाव चेतना का उसे वस्तु से संबंधित चिंतन पर प्रभाव पड़ता है, इसलिए मार्क्स का मत है कि चिंता नहीं है वस्तु से संबंधित सत्यता की खोज, भौतिक पदार्थ आत्मा अथवा वस्तुओं के आधार पर की ही जा सकती है। उसका यह भी मत है कि भौतिक जगत की वस्तुएं तथा घटनाएं एक दूसरे पर आधारित है। भौतिक जगत में सदैव परिवर्तन की प्रक्रिया विद्यमान रहती है। इस परिवर्तन में मनुष्य की कुछ मनोवृतिक समाप्त हो जाती हैं और कुछ विकसित होती हैं। इस प्रकार, मार्क्स का विचार है कि भौतिक पदार्थों को देखने से जो वाद, विवाद तथा संवाद की प्रक्रिया चलती रहती है। उसी के परिणाम स्वरुप नहीं विचारों का जन्म होता है और यह विकास की प्रक्रिया अविरल गति से चलती रहती है। 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषताएं 

(1) आंगिक एकता 

द्वंद्ववाद के अनुसार विश्व एक भौतिक जगत है जिसमें वस्तु में तथा घटनाएं एक दूसरे के साथ संबद्ध है। प्रकृति के सभी पदार्थों में पारस्परिक निर्भरता तथा आंगिक एकता पाई जाती है। प्रकृति एक संपूर्णता है। इसका प्रत्येक पहलू दूसरे पर निर्भर करता है तथा यह एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।

(2) विकास क्रम एक टेढ़ी-मेढ़ी अविरल रेखा है

मार्क्स का विचार है कि भौतिक जगत का विकास एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा के माध्यम से होता है। विकास की प्रक्रिया एक सी गति से अविरल रूप में चलने वाली नहीं है। मार्क्स का मत है कि इस विकास की प्रक्रिया में एक वस्तु परिवर्तित होकर नया रूप धारण करती है और उसके बाद वह पुनः परिवर्तित होकर एक ऐसा रूप धारण करती है जो अपने पूर्ववर्ती स्वरूप से बिल्कुल भिन्न होती है। मार्क्स प्रथम स्वरूप को वाद तथा दूसरे को संवाद और तीसरे को नाम से पुकारता है। संवाद में पाए जाने वाले तत्व एक दूसरे के विरोधी होते हैं और वास्तु एक रूप बदलकर दूसरे रूप में पहुंच जाती है। उसका यह नवीन रूप प्रतिवाद कहलाता है, जो प्रक्रिया से अर्थात मूल वस्तुओं से भिन्न होता है। अंत में यह प्रतिवाद संवाद में बदल जाता है जिसके अंतर्गत वस्तु अपने मूल स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयास करती है।

(3) गतिशीलता की विरोधपरकता 

मार्क्स इस बात में विश्वास करता है कि विकास की प्रक्रिया में गतिशीलता पाई जाती है, उससे यह सिद्ध होता है कि जगत का विकास परम्परागत विरोधी आर्थिक शक्तियों के कारण होता है। मार्क्स का विचार है की गतिशीलता सदा विरोध परक होती है अर्थात गतिशीलता में सदैव विरोधी तत्वों का संरक्षण पाया जाता है।

(4) गुणात्मक परिवर्तन 

मार्क्स का मत है कि विकास की प्रक्रिया में एक ऐसा समय आता है, जबकि यह परिवर्तन परिणात्मक के स्थान पर गुणात्मक होने लगता है। मार्क्स का कथन है कि जल उष्ण होकर भाव बनता है और फिर तापक्रम के गिर जाने पर वही जल कठोर बनाकर बर्फ बन जाता है और वही बर्फ पिघलकर अपनी मूल तत्व पानी में मिल जाती है। बाप जल से अलग और वर्ग भाव से अलग गुण रखनी है इस प्रकार जो विचार विभिन्न विचारों के टकराव से उत्पन्न होते हैं उनमें भी विभिन्न गुणों का सम्मिश्रण पाया जाता है। इस तरह मार्क्स ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि द्वंदात्मक भौतिकवाद में सदैव परिणात्मक परिवर्तन ही नहीं बल्कि एक ऐसी भी स्थिति आ जाती है, जबकि परिवर्तन परीणात्मक के स्थान पर गुणात्मक भी होने लगते हैं।

(5) विरोधी विचारों का समन्वय

मार्क्स कई होगी विचार है कि समाज के अंदर जो परस्पर विरोधी श्रेणियां पाई जाती हैं, वे विकास के कार्य में सहायक होती हैं। इसी सिद्धांत के आधार पर यह पता लगाया जाता है कि विकास अंतर विरोधी अवस्था में किस प्रकार होता है।

(6) निषेध के निषेध का सिद्धांत 

मार्क्स कामत है कि विकास क्रम की प्रत्येक श्रेणी अपनी पूर्ववर्ती श्रेणी की प्रतिरोधी होती है। यह सिद्धांत निषेध कहलाता है। इस दांत में ही हो बतलाया जाता है कि मानव समाज के विकास की कौन सी अवस्थाएं होती हैं तथा उनका पारस्परिक संबंध क्या होता है। 

(7) प्राकृतिक जगत की आर्थिक तत्वों के आधार पर व्याख्या 

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्राकृतिक जगत की आर्थिक तथ्यों के आधार पर व्याख्या करता है और पदार्थ को समस्त विश्व की नियंत्रक शक्ति के रूप में स्वीकार करता है।

(8) पूँजीवाद के विनाश का सिद्धांत

मार्क्स का मत है कि समाज में दो विरोधी भावनाएँ पाई जाती हैं- एक प्रतिक्रिया और दूसरी प्रतिवाद कहलाती है। पूँजी को मार्क्स ‘प्रतिक्रिया’ के नाम से पुकारता है और श्रम को ‘प्रतिवाद’ नाम देता है। मार्क्स का कथन है कि पूँजीवाद के कारण उत्पादन में वृद्धि होती है और श्रमिकों को संगठन का अवसर मिलता है। पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग में जो संघर्ष उत्पन्न होता है, उस संघर्ष से पूँजीपतियों की संख्या कम होने लगती है और श्रमिक वर्ग संगठित होकर पूँजीपतियों का विनाश करने पर तुल जाता है। यह स्थिति उस समय और गंभीर हो जाती है जब श्रमिक वर्ग में वर्ग- चेतना का विकास आरंभ होता है, सभी श्रमिक पूँजीपतियों का विरोध करते हैं और अपने अधिकारों की मांग करते हैं । धीरे-धीरे श्रमिक वर्ग पूँजीपति को समाप्त कर देता है। इस प्रकार अपने द्वन्द्ववादी सिद्धांत में कार्ल मार्क्स यह दिखलाने का प्रयत्न करता है कि पूँजीवाद में ही उसके विनाश के कारण विद्यमान रहते हैं।

(9) वस्तुओं के विकास की प्रक्रिया सरल नहीं

द्वन्द्ववाद के अनुसार वस्तुओं में विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया सरल नहीं है। वस्तुएँ सरलता से आगे की ओर नहीं बढ़ती है वरन् उनका रूपांतरण होता रहता है।

(10) विश्व का रूप एक अवयवी का रूप है

मार्क्स के अनुसार विश्व का रूप एक अवयवी रूप है जिसके सब अंग व सभी वस्तुएँ परस्पर सुसंबंध अथवा अन्योन्याश्रित हैं। वे सब एक-दूसरे को प्रभावित करती है। वह एक- दूसरे से प्रभावित होती है। 

निष्कर्ष 

प्रयुक्त विवेचन से यो निष्कर्ष निकलता है कि संसार में कहीं वस्तु कोई वस्तु स्थाई नहीं है और परिवर्तन उनमें निहित अंतर्विरोध के कारण होता रहता है।

द्वंद्वात्मक विकास के नियम

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार प्रकृति का विकास कुछ निश्चित नियमों के अनुसार होता है जैसे—

(1) विपरीतों की एकता तथा संघर्ष का नियम

 यह विषय संपूर्ण द्वन्द्वात्मक विकास की प्रक्रिया का आधार बिंदु है ।इस नियम का ज्ञान प्रकृति, समाज और चिंतन के विकास की द्वंदात्मक प्रक्रिया को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विकास आंतरिक विरोध से संचालित होता है ।जब तक विरोधी तत्व प्रस्तुत अथवा संतुलित अवस्था में नहीं में रहते हैं तब तक परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ नहीं होती है, किंतु जब एक तत्व तीव्र होने लगता है तो परिवर्तन आरंभ हो जाता है और यही से विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है

(2) परिणात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के रूपांतरण का नियम

 द्वन्द्ववादिक भौतिकवाद का दूसरा नियम यह है की मात्रा में भारी अंतर हो जाने से गुणों में भी अंतर हो जाता है। उदाहरण के लिए — पानी का तापक्रम एक निश्चित सीमा से बढ़ जाने पर वह भाग में रूपांतरित हो जाता है। विशेष मात्रा में परिवर्तन से ही गुणों में भी परिवर्तन हो जाता है। परिणात्मक से गुणात्मक परिवर्तन करने वाली क्रांतियां समाज के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। 

(3) निषेध के निषेध का नियम

निषेध के निषेध का नियम भौतिक जगत के विकास की सामान्य दशा तथा प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। निषेध के निषेध का नियम यह सिद्ध करता है कि विरोधी शक्तियों के टकराव से मल वस्तु का निषेध हो जाता है तथा नहीं वस्तु का जन्म होता है जो पहले से ज्यादा शक्तिशाली तथा उन्नत होती है। यह नियम हमेशा विकास की प्रक्रिया के सोपान तथा उनका पारस्परिक संबंध बताता है।

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना

(1) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद असंगत धारणा है।

(2) यह मानव के इतिहास को केवल उत्थान का लेखा मानता है। वस्तु स्थिति यह है कि मानवीय इतिहास केवल उत्थान का नहीं बल्कि उत्थान तथा पतन दोनों का लिखा है।

(3) द्वंद्वात्मक पद्धति दोषपूर्ण है, क्योंकि वाद प्रतिवाद तथा संवाद की दशाएं काल्पनिक हैं।

(4) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अत्यधिक और स्पष्ट तथा गूढ़ है।

(5) द्वंद्वात्मक पद्धति खतरनाक भी है, क्योंकि इसमें हम इस बात को मानकर चलते हैं कि मनुष्य बाहरी शक्तियों का अर्थात आर्थिक शक्तियों का दास है और उसमें इतिहास के क्रम को बदलने की शक्ति नहीं है।

(6) मार्क्स चेतन तत्वों का शोध भी जड़ पदार्थ से मानता है, जबकि विश्व में सर्वत्र चेतन शक्ति के द्वारा जल शक्ति के उदाहरण मिलते हैं।

(7) यह अत्यंत भौतिकवादी दर्शन है।


Post a Comment

और नया पुराने
Join WhatsApp