भारत में राष्ट्रीय जागृति
भारतीय इतिहास में 19वीं शताब्दी से एक नवीन युग का प्रारंभ माना जाता है। इस युग को पुनर्जागरण काल भी कहा जाता है। इस युग में विदेशी शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति ने भारतीयों के जनजीवन में एक नवीन क्रांतिकारी चेतना का सूत्रपात किया। भारतीयों में यह नवीन चेतना अथवा राष्ट्रीय जागृति अनेक कारणों से उत्पन्न हुई। इनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नवत हैं—
भारत में राष्ट्रीय जागृति के उदय के कारण
(1) धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन का होना
भारतीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना को जागृत करने में धार्मिक सुधार आंदोलन ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। वस्तुत: 19 वीं शताब्दी धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलनों की थी। इस समय राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज’ नामक समाज सुधार संस्था के माध्यम से भारतीय जनता में अपनी सर्वोच्च- संपन्न सभ्यता एवं परंपरा के प्रति विश्वास और आस्था को जागृत किया। साथ- ही- साथ अनेक समाज- सुधार संस्थाओं— आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल सोसायटी आदि ने भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में व्यापक सुधार किया। यद्यपि इन संस्थाओं का उपरी आवरण धार्मिक था, परंतु इनके मूल में राष्ट्रीयता की भावना छिपी हुई थी। इस प्रकार इन आंदोलनों ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
(2) राजनीति एकता की स्थापना होना
ब्रिटिश शासन की स्थापना से पूर्व भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। इसी कारण भारतीयों में राष्ट्रीय एकता का अभाव था । अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के कारण संपूर्ण भारत एक शासन- सूत्र में आबद्ध हो गया और इससे भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न हुई। पूनिया के शब्दों में, “हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक संपूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया और इसने जनता में राजनीतिक एकता की भावना को जन्म दिया।”
(3) पाश्चात्य साहित्य का विकास
राष्ट्रीय क्रांति में पाश्चात्य साहित्य ने सक्रिय भूमिका निभाई। इस अवधि में भारत पर अंग्रेजों का शासन था, इसलिए पाश्चात्य साहित्य यहां बिना किसी व्यवधान के पर्याप्त मात्रा में आता था । भारतीय नवयुवकों को जॉन स्टुअर्ट मिल, स्पेंसर, रूसो, टॉलस्टॉय एवं मिल्टन आदि विदेशी लेखकों तथा कवियों की स्वतंत्रता एवं समानता की भावना से ओत-प्रोत कृतियों को पढ़ने का अवसर मिला, जिससे भारतीय नवयुवकों के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की लहर जागृत हो गई।
(4) पाश्चात्य शिक्षा का विकास होना
भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में अंग्रेजी शिक्षा ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने तथा अंग्रेजों का शासन होने के कारण भारत के प्रत्येक कोने में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे देश में भाषा की एकता स्थापित हो गई तथा इसके परिणाम स्वरुप विभिन्न प्रांतो के प्रबुद्ध लोगों को आपस में (अंग्रेजी भाषा के माध्यम से) विचार- विमर्श करने में सहायता मिली। इस प्रकार अनजाने में अंग्रेजी शासन की शिक्षा- नीति से भारतीयों को भाषायी बंधनों से मुक्त होकर एकता की भावना को प्रचारित व प्रसारित करने का अवसर या मौका प्राप्त हुआ, जिसने भी राष्ट्रीय जागृति में सहयोग दिया।
(5) भारतीययों का आर्थिक शोषण
अंग्रेजी शासन के अंतर्गत भारतीयों का बहुत अधिक आर्थिक शोषण किया गया।‘ ईस्ट इंडिया कंपनी ’ ने ऐसी आर्थिक नीति अपनाई, जिससे भारत के समस्त कुटीर उद्योग आर्थिक संकट के दौर से गुजरने लगे तथा संपूर्ण भारतीय व्यापार पर कंपनी ने पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया। कंपनी आधिकाधिक धन इंग्लैंड को भेजने लगी ।परिणामस्वरुप भारत आर्थिक दृष्टि से खोखला होता चला गया और भारतीय जनता विपन्न होती चली गई। भारतीयों के सामने बेकरी की समस्या भी उत्पन्न हो गई ,परिणामस्वरूप भारतीयों ने अंग्रेजों की आर्थिक नीति के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वस्तुत: भारतीयों में यह चेतना जागृत हो गई कि विदेशी वस्तुओं का प्रयोग त्यागे बिना भारतीय उद्योगों की उन्नति संभव नहीं है। इस प्रकार आर्थिक शोषण का परिणाम राष्ट्रीय चेतना एवं एकता की भावना उत्पन्न होने में सहायक सिद्ध हुआ।
(6) समाचार-पत्रों का प्रभाव पड़ा
समाचार- पत्रों ने भी राशि चेतना जागृत करने में बहुत योगदान दिया। प्रारंभ में लगभग सभी समाचार- पत्र अंग्रेजी में प्रकाशित होते थे, किंतु बाद में कुछ लोगों के प्रयत्नों से अनेक समाचार- पत्र भारतीय भाषा में भी प्रकाशित होने लगे। इनमें राष्ट्रीय प्रेम एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता की भावना से ओत-प्रोत लेख, कविताएँ और भावोत्पादक भाषण व उपदेश प्रकाशित होते थे। इनका मूल्य कम से कम होता था। जिससे साधारण जनता इन्हें क्रय करके पढ़ सके। इस प्रकार समाचार-पत्र, पत्रिकाओं ने भी साधारण जनता में जागृति उत्पन्न करने की दिशा में विशेष योगदान दिया। इस संबंध में मुनरो ने उचित ही कहा है- “एक स्वतंत्र प्रेस तथा विदेशी शासन साथ-साथ नहीं चल सकते हैं।”
(7) जाति भेदभाव की नीति का प्रभाव
भारतीयों के साथ अंग्रेज लोग जाति एवं रंग के आधार पर बहुत अधिक भेदभाव करते थे। भारतीयों को योग्य होने पर भी उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उन्हें शासन के कार्यों में भाग लेने का अधिकार नहीं था। वह उन सार्वजनिक स्थानों का प्रयोग नहीं कर सकते थे जिनका प्रयोग अंग्रेज लोग करते थे। इससे भारतीयों को बहुत आत्मग्लानि होती थी। भारतीयों में उत्पन्न यह आत्मग्लानि दिन- प्रतिदिन बढ़ती चली गई , जिसके परिणामस्वरुप उनमें स्वतंत्रता की भावना बलवती हो गई।
(8) अन्य देशों की जागृति का प्रभाव पड़ना
विदेशी राष्ट्रीय आंदोलनों तथा सुधार आंदोलनों का भी व्यापक प्रभाव राष्ट्रीय आंदोलन पर पड़ा। मजूमदार के शब्दों में - “भारतीय सीमा के बाहर घटित इन घटनाओं ने भारतीय राष्ट्रवाद की धारा को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया।”
(9) सरकार के असंतोषजनक कार्यों का होना
ब्रिटिश शासन काल में ब्रिटिश सत्ता ने बहुत मनमानी की, जिसके कारण भारतीयों में असंतोष बढ़ता गया और उनमें स्वतंत्रता की भावना निरंतर उग्र होती गई। एक परिश्रमी बंगाली युवक ‘सुरेंद्रनाथ बनर्जी’ ने बड़ी लगन एवं परिश्रम से आई.सी.एस की परीक्षा उत्तीर्ण की। किंतु उन्हें किसी साधारण प्रावधान के आधार पर अयोग्य ठहरा दिया गया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने एक संस्था स्थापित की, जो (इंडियन एसोसिएशन) के नाम से प्रसिद्ध हुई और इसने भारतीयों में राष्ट्रीय भावना जागृत करने की दिशा में सराहनीय कार्य किए।
(10) लिटन के अन्यायपूर्ण कार्यों का प्रभाव
लॉर्ड लिटन के शासनकाल में कुछ ऐसे कार्य संपन्न हुए, जिन्होंने भारतीयों को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए प्रेरित किया। यह कार्य निम्नलिखित थे —
(१) दरबार समारोह
1877 ईस्वी में, जब दक्षिण में जनता बहुत भयंकर अकाल से पीड़ित थी, उस समय लॉर्ड लिटन ने उस ओर ध्यान न देकर दिल्ली में एक विशाल दरबार का आयोजन किया। जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया। इस आयोजन ने जले पर नमक का काम किया और भारतीय जनता क्रांति की भावना से भर गई।
(२) प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध
जनता की भावनाओं एवं आवाज को दबाने के लिए लॉर्ड लिटन ने “वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम (Vernacular press Act)” पारित करके देशी भाषाओं के समाचार पत्रों पर कठोर नियंत्रण स्थापित कर दिया। समस्त भारत वासियों ने इसका विरोध किया। परिणाम स्वरुप लॉर्ड लिटन के उत्तराधिकारी लॉर्ड रिपन को अंत में यह अधिनियम समाप्त करना पड़ा।
(३) शस्त्र अधिनियम का पारित होना
लॉर्ड लिटन द्वारा पारित किए गए इस अधिनियम के अनुसार - भारतीय बिना लाइसेंस के कोई भी शस्त्र नहीं रख सकते थे, जबकि अंग्रेज खुले आम शस्त्र लेकर चल सकते थे। इसमें भारत वासियों को अपमान का अनुभव हुआ। परिणामस्वरुप उनमें अंग्रेजों के विरुद्ध अविश्वास एवं घृणा की भावना उत्पन्न हुई।
(11) यातायात के साधनों में वृद्धि
ब्रिटिश शासन काल में यातायात के साधनों में वृद्धि हुई। इसने इस विशाल देश को एक सूत्र में जोड़ दिया जिससे एक प्रांत में रहने वाले व्यक्तियों को अन्य प्रांतों के व्यक्तियों से संपर्क स्थापित करने में बहुत अधिक सहायता मिली तथा उनमें परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करने होने लगा।
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