आश्रम (Hermitage)
आश्रम का अर्थ ; आश्रम शब्द श्रम धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है परिश्रम करना। इस प्रकार आश्रम शब्द का तात्पर्य जीवन के उन विभिन्न स्तरों से है जहां व्यक्ति को अनेक प्रकार का श्रम व उद्योग करना होता है। पी० एच० प्रभु के अनुसार आश्रम का अभिप्राय विश्राम स्थान से है अर्थात जीवन रूपी यात्रा में प्रत्येक आश्रम ऐसा विश्राम बिंदु है जहां प्राणी रुक कर अपनी आगामी यात्रा की तैयारी करता है। अन्य शब्दों में कहे तो, आश्रम मानव जीवन की यात्रा कि सीढ़ियो का सोपान है जिसको साधन मानकर वह अंतिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति का प्रयास करता है। और महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में यह कहा है, “जीवन के चार आश्रम व्यक्ति के विकास के चार सीढ़ियां हैं, जिन पर कम से चढ़ते हुए व्यक्ति ‘ब्रह्म’ की प्राप्ति करता है।” उनका विचार यह होता कि यदि कोई इन आश्रमों के धर्म का राग द्वेष से शून्य होकर विधिपूर्वक अनुष्ठान कर ले तो वह परम ब्रह्म परमात्मा के तथ्य को जानने का अधिकारी हो जाता है।
आश्रमों का विभाजन / प्रकार आश्रमों का कर्तव्य
आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति की आयु को 100 वर्ष मानकर चला गया है क्योंकि वेद में पुरुष की आयु 100 वर्ष मानी गई है। यथा- ‘शतायुर्वेपुरुष’ । 100 वर्ष की संपूर्ण जीवन को चार बराबर भागों में विभाजित किया गया है और इन जीवन करो को ही चार आश्रमों का नाम दिया गया है। और यह चार आश्रम में हैं— ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम। समस्त आश्रम व्यवस्था को चार भागों में विभाजित किया गया है और यह कर भाग कुछ इस प्रकार हैं—
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम
ब्रह्मचर्य काल 25 वर्ष तक माना जाता है। यह बालक का अध्ययन काल है। ब्रह्मचर्य दो शब्दों से मिलकर बना है— ‘ब्रह्म’ तथा ‘चर्य’। ब्रह्म का अर्थ महान और चर्य का अर्थ ‘विचरण करना’ है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ यह हुआ महानता के मार्ग पर चलना। वायु पुराण में ब्रह्मचारी के लिए कर्तव्य इस प्रकार से बताए गए हैं— “ब्रह्मचारी दंड व मेखला को धारण करें, भूमि पर शयन करें, जटाधारी हो, गुरु की श्रद्धा पूर्वक सेवा करने वाला हो एवं विद्या अध्ययन के लिए भिक्षावृत्ति करें।”
ब्रह्मचारी से आशा की जाती है कि वह अपने मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास की सदा चेष्टा करता रहे। इसके लिए उसे सदा सत्य बोलने के लिए प्रेरित किया जाता था, वेदों के अध्ययन के लिए उत्साहित किया जाता था। गृहस्थ आश्रम में प्रवेश हेतु ब्रह्मचारी का पालन करना अनिवार्य माना गया है।
(2) गृहस्थ आश्रम
गृहस्थ आश्रम 25 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक की अवस्था तक माना जाता है। सामाजिक दृष्टि से इस आश्रम का विशेष महत्व है। सामाजिक जीवन का आरंभ और अंत इसी आश्रम में होता है। इस आश्रम को पूरी सामाजिक व्यवस्था का केंद्र एवं आधार माना जा सकता है, क्योंकि धर्म, अर्थ व काम तीनों की प्राप्ति भी इसी आश्रम में की जाती है। मनु के अनुसार, “जिस प्रकार से भी प्राणी वायु के सहारे जीवित रहते हैं उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ आश्रम से जीवन प्राप्त करते हैं।”
गृहस्थी के लिए आवश्यक है कि वह स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों को, हवन के द्वारा देवताओं को, श्राद्ध के द्वारा पितरों को तथा भोजन के द्वारा अन्य मनुष्यों को संतुष्ट करें। इसे धर्म का संचय होता है। मृत्यु के पश्चात् न पिता, न माता, न पुत्र, न पत्नी, न संबंधी उसकी सहायता करने को रह जाते हैं, केवल धर्म ही उसका साथ देता है। गृहस्थ को पंच महायज्ञ करते रहना चाहिए। अतिथि सत्कार भी एक सामाजिक पवित्र कृत्य था क्योंकि माता-पिता वह गुरु के साथ-साथ उपनिषदों में अतिथि भी ईश्वर तुल्य स्वीकार किया गया है।
वास्तव में, आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसमें धर्म, अर्थ और काम के अतिरिक्त मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। यही एक ऐसा आश्रम है जिसमें व्यक्ति चारों पुरुषार्थों को एक साथ कर सकता है। हिंदू शास्त्रों ( जैसे -गौतम धर्म सूत्र तथा बोधायन धर्म सूत्र) के अनुसार केवल गृहस्थ आश्रम का ही अस्तित्व है क्योंकि ब्रह्मचर्य इसकी तैयारी है और वानप्रस्थ एवं सन्यास वैदिक वचनों के विरोधी होने के कारण अमान्य है।
(3) वानप्रस्थ आश्रम
वानप्रस्थ आश्रम जीवन का तीसरा चरण है, जिसमें व्यक्ति गृहस्थ आश्रम का प्रत्येक कर तप के लिए वन में जाकर वास करता है। वानप्रस्थ आश्रम का कल 50 वर्ष से 75 वर्ष तक की अवस्था माना गया है। मनु के अनुसार, “जब गृहस्थ देखें कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल हो गई है अर्थात झुर्रियां पड़ गई है, बाल पक गए हैं, पुत्र के पुत्र हो गए हैं तब विषयों से रहित होकर वन का आश्रय ले।”
वानप्रस्ती सब प्रकार की माया मोह का परित्याग कर वन में सादा तथा सरल जीवन व्यतीत करता है। वह जो भी कार्य करता है, निष्काम भाव से करता है। वह शिक्षा—दान निशुल्क करता है। वह अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है और काम क्रोध तथा लोभ का परित्याग कर देता है। इस अवस्था में ही वह संन्यास आश्रम की तैयारी करता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति अपनी पत्नी को अपने साथ रख सकता है, परंतु उसे यौन संबंध बिल्कुल नहीं रख सकता।
(4) सन्यास आश्रम
वानप्रस्थ आश्रम की पश्चात व्यक्ति सन्यास आश्रम में प्रवेश करता है। यह आश्रम छतरपुर से की आयुर्वेद पश्चात आरंभ होता है तथा मृत्यु तक व्यक्ति इसी आश्रम में रहता है। इसमें व्यक्ति अपनी पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लेता है। अन्य शब्दों में कहीं तो, वह संसार से पूर्णतया अपना मुख मोड़ लेता है। मनु के अनुसार, “सन्यासी को अपने ऊपर सब प्रकार का संयम रखना चाहिए, उसे नीचे दृष्टि करके चलना चाहिए, वस्त्र से छानकर पानी पीना चाहिए, सत्य से पवित्र करके वाणी का प्रयोग करना चाहिए व मन से पूर्ण पवित्र होकर आचरण करना चाहिए।”
सन्यासी को सहनशील होना चाहिए। यदि कोई सन्यासी को कठोर वचन कहे तो उसे क्रोधित नहीं होना चाहिए तथा तिरस्कार के बदले आशीर्वाद देना चाहिए। सन्यासी को सदा सत्य बोलना चाहिए तथा आत्म सुख के लिए किसी से शत्रुता भी नहीं करनी चाहिए।
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