आरक्षण का अर्थ, विकास तथा स्वतंत्रता से पूर्व आरक्षण व्यवस्था - UPSC

आरक्षण Reservation

आरक्षण का अर्थ ; आरक्षण शब्द अंग्रेजी शब्द रिजर्वेशन (Reservation) का हिंदी रूपांतरण है। जिसका शाब्दिक अर्थ है — स्थिर रखना तथा सुरक्षित रखना। लेकिन राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ में इस शब्द का अर्थ है, समाज के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान तथा कल्याण के लिए सरकार के द्वारा ऐसी नीतियों, कानून तथा कार्यक्रमों को प्रारंभ करना जिसे हुए समाज तथा राष्ट्र की मुख्य धारा से अपने आप को सम्बद्ध कर सके। आरक्षण के द्वारा इन वर्गों को विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, जिससे कि वह समाज के अन्य वर्गों के बराबरी कर सकें। 

आरक्षण का अर्थ, विकास तथा स्वतंत्रता से पूर्व आरक्षण व्यवस्था - UPSC

भारत में आरक्षण का विकास

  भारतीय राजनीति में ‘आरक्षण’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो ने 1909 ईस्वी में किया था। सन 1909 में भारतीय शासन अधिनियम पारित किया गया था, जिसे मार्ले मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार ‘आरक्षण’ व्यवस्था अंग्रेजों की कूटनीतिक देन है, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में अंग्रेजी राज को दीर्घकाल तक बनाए रखना था। वर्तमान समय में आरक्षण व्यवस्था भारतीय राजनीति का एक अभिन्न अंग बन गई है। भारत में आरक्षण की व्यवस्था को स्वतंत्रता की प्राप्ति से पहले ब्रिटिश सरकार ने कुछ निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए लागू किया था। उसके पश्चात धीरे-धीरे आरक्षण की मांग का निरंतर विस्तार होता गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जाति के आधार पर समाज के अन्य पिछड़े जातियों (27%), अनूसूचित जातियों (15%) तथा जनजातियों (7.5%) को सरकारी सेवाओं, शिक्षण संस्थाओं, केंद्रीय विधायिका, राज्य विधान मंडलों तथा स्थानीय स्वशासन की संस्थानों में भी सीटों का आरक्षण दिया गया है। भारत में प्रथम बार लिंग के आधार पर भी स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था की गई है और महिलाओं के लिए 33% स्थान सुरक्षित किए गए हैं। आरक्षण की संपूर्ण परिवेश का अध्ययन करने के लिए हमें स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व तथा स्वतंत्रता के बाद की स्थितियां तथा परिस्थितियों का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है। 

स्वतंत्रता से पूर्व आरक्षण व्यवस्था

(1) मार्ले मिंटो सुधार अथवा 1909 ई के अधिनियम में आरक्षण की व्यवस्था

स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ब्रिटिश शासन के द्वारा धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। सर्वप्रथम मार्ले मिंटो सुधरो (1909 ई०) द्वारा मुसलमान को निर्वाचन में आरक्षण प्रदान किया गया था। 1909 ई के अधिनियम द्वारा पृथक एवं सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति अपनाई गई। सामान्य निर्वाचन तथा क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को भारत के लिए अनुपयुक्त समझा गया। विभिन्न वर्गों, हितों तथा जातियों के आधार पर मुसलमान के लिए पृथक से निर्वाचन की व्यवस्था की गई। मुसलमानो के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर पृथक निर्वाचन पद्धति के साथ-साथ अधिकार मतों की भी व्यवस्था की गई। मुसलमान के पृथक प्रतिनिधित्व को देखते हुए सिख, हरिजन, आंग्ल भारतीय आदि वर्ग भी पृथक प्रतिनिधित्व की मांग करने लगे।

(2) लखनऊ पैक्ट (1916 ई) के अनुसार आरक्षण की स्थिति

1916 ईस्वी में कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता हुआ, जिसे लखनऊ पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के द्वारा 1909 ईस्वी में मुसलमानों सेलिब्रिटीज शासन के द्वारा अपनाई गई सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की स्थिति को स्वीकार कर लिया गया। विधानसभाओं में मुसलमानों की पृथक प्रतिनिधित्व की मांग को स्वीकार किया गया। विभिन्न विधानसभाओं में उनकी संख्या को निम्न रूप में स्वीकार किया गया—केंद्रीय विधानसभा में 33% सदस्य, पंजाब में 50%, संयुक्त प्रांत में 30%, बंगाल में 40%, बिहार में 25%, मुंबई में 33%, मध्य प्रदेश में 15% तथा चेन्नई में 15%

  इसके अतिरिक्त अल्पसंख्यकों को किसी विधेयक को निषेधाधिकार करने का अधिकार प्रदान किया गया। यदि अल्पसंख्यक वर्ग के 3/4 प्रतिनिधि किसी विधेयक के विरुद्ध हो तो उसे पर विधानसभा में विचार नहीं किया जाएगा। 

(3) मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार या 1919 ई के अधिनियम के अंतर्गत आरक्षण की व्यवस्था

सन 1919 ई के अधिनियम के द्वारा सांप्रदायिक मताधिकार का विस्तार किया गया। 1919 ई के अधिनियम के द्वारा इसे न केवल मुसलमान के लिए सीमित रखा गया, वरुण इसमें अन्य संप्रदायों को भी सम्मिलित कर लिया गया। इसमें मुसलमानों, सिक्खों, ईसाइयों तथा आंग्ल भारतीयों को विशेष प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया।

(4) सर्वदलीय सम्मेलन तथा नेहरू रिपोर्ट (1928 ई०)

नेहरू रिपोर्ट में सांप्रदायिक निर्वाचन का अंत कर उसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन व्यवस्था का सुझाव दिया गया। साथी यह भी विचार व्यक्त किया गया कि अल्पसंख्यक वर्गों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर उनको आरक्षण प्रदान किया जाए।

(5) साइमन कमीशन रिपोर्ट (1930 ई०)

कमीशन ने यह संस्तुति की कि प्रतिनिधित्व का आधार सांप्रदायिक मतदान होगा तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की स्थिति को पूर्ववत ही रखा जाएगा।

(6) प्रथम गोलमेज सम्मेलन (1930 ई०) 

प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सांप्रदायिकता की समस्या सबसे अधिक चर्चित (विवादास्पद) विषय रहा। इस प्रश्न पर प्रतिनिधियों में काफी मतभेद दिखाई भी दिए। मुसलमान पृथक तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे। जिन्ना ने अपनी चौधरी मांगों को सूचित करने का जोरदार प्रयास किया। डॉ भीमराव अंबेडकर जो अनुसूचित जातियों की प्रतिनिधि थे उन्होंने भी पृथक निर्वाचन मंडल का समर्थन किया। 

(7) द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (1931 ई०) 

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भी अल्पमतों तथा अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधियों ने पृथक निर्वाचन तथा पृथक प्रतिनिधित्व की ही मांग की। 

(8) पूना पैक्ट (1932 ई०) 

पूना पैक्ट में सांप्रदायिक निर्णय की तुलना में अनुसूचित जातियों को अधिक स्थान प्रदान किए गए। पूना पैक्ट के द्वारा अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधियों के लिए 71 से बढ़कर 148 स्थान को सुरक्षित कर दिया गया। इन सुरक्षित स्थानों के लिए चुनाव की द्विस्तरीय व्यवस्था को स्वीकार भी किया गया। इस व्यवस्था में यह प्रावधान था कि प्रथम चरण में प्रत्येक सुरक्षित स्थानों के लिए हरिजन प्रत्याशियों को चयनित किया जाएगा। अंत में हिंदू तथा हरिजन संयुक्त रूप से इन चार प्रत्याशियों में से एक प्रत्याशी को निर्वाचित करेंगे। यह विषय 30 वर्षों तक लागू रहेगा तथा हरिजन को सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में भी मत देने का अधिकार होगा।

(9) 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत की गई आरक्षण व्यवस्था

इस अधिनियम में न केवल सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को यथावत रखा गया अपितु उसमें और भी वृद्धि की गई। हरिजनों के लिए भी पृथक निर्वाचन पद्धति को अपनाया गया। मुसलमान को केंद्रीय व्यवस्थापिका में ब्रिटिश भारत से 33.33 % स्थान सुरक्षित किए गए यद्यपि उनकी संख्या इस अनुपात में नहीं थी। ईसाइयों, आंग्ल भारतीयों तथा यूरोपियानों को पूर्वत सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति के द्वारा प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। यहां यह उल्लेखनीय है की आंग्ल भारतीयों को वर्तमान में भी लोकसभा में आरक्षण प्रदान किया जाता है। लोकसभा में दो आंग्ल भारतीयों का मनोनयन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। इस अधिनियम के द्वारा मजदूरों तथा महिलाओं के लिए प्रतिनिधित्व के संबंध में पृथक अधिकार प्रदान किए गए। 

(10) सांप्रदायिक निर्णय या मैकडोनल्ड निर्णय (1932 ई०) 

इस निर्णय में अल्पसंख्यक वर्गों जैसे— मुसलमान, सिक्खों तथा ईसाइयों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई। अछूतों को हिंदुओं से भिन्न मानकर पृथक निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व का अधिकार प्रदान किया गया। प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं में महिलाओं के लिए 3% स्थान आरक्षित कर दिए गए। विभिन्न प्रांतो में प्रतिनिधित्व के संबंध में गुरुभार की व्यवस्था की गई।


महत्वपूर्ण अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर 

भारत में आरक्षण कब से लागू हुआ?

भारत में आरक्षण 1909 से लागू हुआ।

भारतीय राजनीति में सर्वप्रथम आरक्षण का प्रयोग कब और किसने किया?

भारतीय राजनीति में ‘आरक्षण’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो ने 1909 ईस्वी में किया था। सन 1909 में भारतीय शासन अधिनियम पारित किया गया था, जिसे मार्ले मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है।

संविधान के अनुसार आरक्षण कब खत्म होगा?

भारत के संविधान के अनुसार आरक्षण की अवधि 15 वर्ष रखी गई थी।

आरक्षण का अर्थ बताइए?

आरक्षण शब्द अंग्रेजी शब्द रिजर्वेशन (Reservation) का हिंदी रूपांतरण है। जिसका शाब्दिक अर्थ है — स्थिर रखना तथा सुरक्षित रखना।

आरक्षण की व्यवस्था को वर्तमान संविधान के किस अनुच्छेद के आधार पर लागू किया गया??

आरक्षण की व्यवस्था को वर्तमान संविधान के अनुच्छेद 16 (4), अनुच्छेद के आधार पर लागू किया गया।

वर्तमान समय में आरक्षण का आधार क्या है?

भारत में वर्तमान समय में आरक्षण का आधार जाति है।

संविधान के किस संशोधन के द्वारा आरक्षण की व्यवस्था खुद 2010 तक के लिए आगे बढ़ा दिया गया था?

संविधान के 79वें संशोधन के द्वारा आरक्षण की व्यवस्था खुद 2010 तक के लिए आगे बढ़ा दिया गया था।

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