वर्ण व्यवस्था क्या है? अर्थ एवं विशेषताएं - character system

वर्ण व्यवस्था (character system) 

वर्ण व्यवस्था का अर्थ

वर्ण व्यवस्था का अर्थ ; वर्ण शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘वृञवरणों’ अथवा ‘वरी’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है चुनना या वरण करना। संभवतः पूर्ण से तात्पर्य ‘वृत्ति’ से है, किसी विशेष व्यवसाय के चुनने से। वास्तव में ‘वर्ण’ उस सामाजिक वर्ग की ओर इंगित करता है जिसे समाज में विशिष्ट कार्य और स्थान है। वह अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण समाज के अन्य वर्गों समाज के अन्य वर्गों अथवा समूह से सर्वथा अलग होता है।

वैदिक साहित्य में वर्ण शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है — (1) रंग के अर्थ में (2) चुनाव करने के अर्थ में। भारतीय साहित्य में वर्ण शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। उसमें वर्ण का प्रयोग रंग अथवा आलोक के अर्थ में हुआ। ऋग्वेद में समाज के दो प्रमुख वर्गों का उल्लेख है — (1) आर्य वर्ण (2) अनार्य अथवा दास, इन दोनों वर्गों में रक्त और रंग का, भाषा और बोलचाल का, आचार विचार, और रहन-सहन का अंतर था। दोनों वर्गों में जन्मजात, रक्तगत, शरीरगत तथा संस्कारगत प्रजातित भेद था। इस प्रकार आर्यों के भारत आने के समय केवल दो ही वर्ण थे ‘आर्य’ (श्वेत) तथा ‘अनार्य’ (अश्वेत)।

वर्ण व्यवस्था क्या है? अर्थ एवं विशेषताएं - character system
वर्ण व्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएं 

वर्ण व्यवस्था की विशेषताएं

(1) गुण और कर्म पर आधारित चार वर्णों की व्यवस्था

इंद्रिय संयम ब्राह्मण का प्रमुख धर्म बताया गया। इस वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत कार्यात्मक आधार पर समाज को चार वर्णों के संस्तरणों मैं विभाजित किया गया है। ये है ब्राह्मण वर्ण, क्षत्रिय वर्ण, वैश्य वर्ण और शूद्र वर्ण चारों वर्गों के कार्यों का निर्धारण किया गया है ‌। यथा—

(१) ब्राह्मण —

इंद्रिय संयम ब्राह्मण का प्रमुख धर्म बताया गया है। इस वर्ण के अंतर्गत आने वाले वे लोग होंगे जो वेदों का अनुशीलन, तप , अध्ययन - अध्यापन एवं यज्ञों का संपादन करते हैं। ब्राह्मण वर्ण के 6 प्रमुख कर्तव्य बताए गए हैं— अध्ययन और अध्यापन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना। ये सभी कार्य मनुष्य के सात्विक गुणों पर आधारित है और सात्विक गुण अन्य गुणों से श्रेष्ठ है। यही कारण है कि समाज में ब्राह्मण की पस्थिति भी अन्य वर्गों की पस्थिति से श्रेष्ठ होगी।

(२) क्षत्रिय—

क्षत्रिय धर्मावलंबियों के प्रमुख कर्तव्य है -परोपकार, प्रजा की रक्षा करना और युद्ध में वीरता दिखाना। मनुस्मृति में उल्लेख है कि क्षत्रियों के प्रमुख कर्म हैं—प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना एवं विषयों में आसक्ति न रखना। गीता में क्षत्रियों के साथ करते हुए बताए हैं। ये है — शूरवीरता, तेज, धैर्य चतुरता युद्ध से न भागना, दान देना और निस्वार्थ भाव से प्रज्ञा का पालन करना, प्रज्ञा में अपने धर्म के प्रति रुचि उत्पन्न करना भी इनका प्रमुख कर्म है।

(३) वैश्य—

वेश्यों का मुख्य धर्म समाज के भरण पोषण का दायित्व निभाना है। सुबह ऐसा करके समाज के अस्तित्व को बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। महाभारत में वैश्य वर्ण को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि वैश्य वे हैं जो वेदों के अध्ययन से संपन्न होकर व्यापार ,पशुपालन एवं कृषि कार्य से अन्य आदि का संग्रह करने में रुचि रखते हो। वैश्य को धन संग्रह के लिए उच्च साधन अपनाने चाहिए। मनुस्मृति में वैश्यों के कर्तव्य स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, व्यास पर धन देना एवं कृषि करना वैश्यों के प्रमुख कर्तव्य है।

(४) शूद्र (हरिजन)—

उपर्युक्त तीनों वर्गों की सेवा करना शुद्र वर्ण का प्रमुख कर्तव्य है। शूद्र के लिए यह स्पष्ट किया गया है कि शुद्र को जहां तक हो सके ब्राह्मण वर्ण की ही सेवा करनी चाहिए। शूद्र के लिए यह भी स्पष्ट किया गया है कि शूद्र को प्रायः अध्ययन, धन - संग्रह एवं अन्य वर्गों के व्यवसाय नहीं अपनाना चाहिए। शूद्र अपने स्वामी की निस्वार्थ भाव से सेव करें तथा वह उसकी संपत्ति को किसी भी प्रकार का ना तो नुकसान पहुंचे और ना ही किसी के द्वारा नुकसान पहुंचाने दे। कालांतर में अनार्य जातियों के साथ आर्यों की वर्ण संकर जातियां भी शूद्र -समुदाय में सम्मिलित की जाने लगी।

इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत कार्यात्मक आधार पर संपूर्ण समाज को चार वर्णों के रूप में चार संस्करणों में बांट दिया गया था। इसका आधार गुण योगिता व व्यवसाय था ना कि जन्म। 

(2) श्रम विभाजन पर आधारित स्तरीकरण 

वर्ण व्यवस्था समाज के संपूर्ण कार्यों की एक व्यवस्थित श्रम विभाजन की व्यवस्था थी। इसमें यह निर्धारित था कि कौन सा वर्ण किस व्यवसाय को अपनाकर जीविकोपार्जन करेगा। इसमें प्रत्येक अपने दायित्व का पालन करके समाज की प्रकृति में योग देता था।

(3) परंपरागत व्यवसायों का पूर्व निर्धारण करना

साधारणतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्ण से संबंधित पूर्व निश्चित व्यवसाय अपनाने की ही आज्ञा थी, लेकिन वर्ण व्यवस्था की प्रारंभिक अवस्था में वह इच्छा अनुसार व्यवसाय का चयन कर अपने वर्ण का निर्धारण कर सकता था, लेकिन बाद में इसमें कठोरता आती चली गई।

(4) विशिष्टीकरण 

श्रम विभाजन पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहने से कार्य में निपुणता बड़ी और समाज को विशेषी करण का लाभ मिल गया।

(5) कर्म और पुनर्जन्म की धारणा पर आधारित

वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने निर्धारित कर्तव्य का ठीक प्रकार से पालन करता रहे इसके लिए इस व्यवस्था के साथ कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत के भी जोड़ दिया गया। 

(6) शक्ति एवं अधिकारों का निश्चित वितरण

अगर ऐसा भी है शक्ति एवं अधिकारों की दृष्टि से वन व्यवस्था में ब्राह्मणों की सर्वोच्च स्थिति रही है, तथापि अन्य वर्गों को भी सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य प्रदान किए गए। लेकिन धीरे-धीरे विभिन्न वर्गों को इन्हीं अधिकारों एवं शक्तियों के आधार पर उच्च नीच का दर्जा दिया जान।

(7) गुणात्मक प्रेरणा

वर्ण व्यवस्था ने व्यक्तियों को वर्ण धर्म का पालन करने की प्रेरणा दी है। जो व्यक्ति अपने वर्ण धर्म का पालन करेगा, उसे इस जीवन में उच्च स्थान मिलेगा ही, किंतु अगले जन्म में भी उसका फल मिलेगा, उसका जन्म ज्यादा अच्छे कुल और वर्ग में होगा।

(8) आध्यात्मिक पर जोर

वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के कर्तव्य को ‘स्वधर्म’ कहा गया और सामूहिक कल्याण की भावना से इस स्वधर्म धर्म का पालन करने का जोर दिया गया है।


महत्वपूर्ण अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर


वर्ण व्यवस्था किसने बनाई?

वर्ण व्यवस्था मनु द्वारा बनाई।

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति कब हुई थी?

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति भारतीय समाज की प्राचीन काल में ही हुई थी। यह वेदों के आधार पर बनी थी और विभिन्न वर्गों में लोगों को विभाजित करती थी। वर्ण व्यवस्था के चार मुख्य वर्ग यह थे— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

वर्ण व्यवस्था के प्रकार?

वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज को चार मुख्य वर्गों में विभाजित करती है, जिन्हें वर्ण कहा गया है। और ये वर्ण — 1. ब्राह्मण, 2. क्षत्रिय, 3. वैश्य और 4. शूद्र।

वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?

वर्ण व्यवस्था का अर्थ ; वर्ण शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘वृञवरणों’ अथवा ‘वरी’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है चुनना या वरण करना। संभवतः पूर्ण से तात्पर्य ‘वृत्ति’ से है, किसी विशेष व्यवसाय के चुनने से। वास्तव में ‘वर्ण’ उस सामाजिक वर्ग की ओर इंगित करता है जिसे समाज में विशिष्ट कार्य और स्थान है।

ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य शूद्र में कौन कौन सी जाती आती हैं?

ब्राह्मण - ब्राह्मण वर्ग में पुरोहित, यज्ञ कार्यक और धार्मिक शिक्षा के उपासक आदि आते हैं। क्षत्रिय - क्षत्रिय वर्ग में सैनिक क्षेत्र के विशेषज्ञ, सुरक्षा कर्मी और युद्ध का प्रबंध करने वाले आदि सम्मिलित हैं। वैश्य - वैश्य वर्ग में वाणिज्यिक और व्यापारिक क्षेत्र के व्यवसायिक, साहूकार और जमीदार होते हैं। शुद्ध - शूद्र वर्ग में कामगारों, श्रमिकों और कृषक वर्ग के व्यक्ति शामिल है।

वर्ण व्यवस्था की विशेषताएं?

वर्ण व्यवस्था की विशेषताएं - (1) गुण और कर्म पर आधारित चार वर्णों की व्यवस्था (2) श्रम विभाजन पर आधारित स्तरीकरण (3) परंपरागत व्यवसायों का पूर्व निर्धारण करना (4) विशिष्टीकरण (5) कर्म और पुनर्जन्म की धारणा पर आधारित (6) शक्ति एवं अधिकारों का निश्चित वितरण (7) आध्यात्मिक पर जोर।

वर्ण शब्द का अर्थ क्या है?

वैदिक साहित्य में वर्ण शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है — (1) रंग के अर्थ में (2) चुनाव करने के अर्थ में। भारतीय साहित्य में वर्ण शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है।

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