साम्प्रदायिकता से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे जैसे-
1- सांप्रदायिकता का अर्थ
2- सांप्रदायिकता की परिभाषा
3- सांप्रदायिकता का अर्थ एवं परिभाषा
4- भारत में साम्प्रदायिकता के कारण
5- साम्प्रदायिकता क्या है?
साम्प्रदायिकता (Communalism)
सांप्रदायिकता आज भारत के प्रमुख समस्या बन गई है। तथा इसी राष्ट्रीय एकीकरण में एक मुख्य बड़ा माना जाता है। सांप्रदायिक दंगों में हजारों निर्दोष व्यक्ति मारे जाते हैं तथा अरबों रूपयों की माल की हानि होती है। यह एक ऐसी समस्या है जिसे दूर करने हेतु सभी व्यक्तियों का सहयोग आवश्यक है।
सांप्रदायिकता का अर्थ
साम्प्रदायिकता का मतलब ; सांप्रदायिकता से अभिप्राय कट्टरता से है। यह अपने धार्मिक संप्रदाय के प्रति एक प्रकार का अंधविश्वास है तथा ऐसी मनोवृति या भावना है जिसमें व्यक्ति अपने धार्मिक संप्रदाय के हितों के लिए अन्य धार्मिक संप्रदाय के हितों तथा राष्ट्रीय हितों तक को नुकसान पहुंचाने से बिल्कुल भी नहीं सकता। अतः जब व्यक्ति अपने धार्मिक हितों के लिए अन्य धार्मिक संप्रदायों के हितों या अधिकारों पर आघात पहुंचता है तो इसे सांप्रदायिकता कहा जाता है। वह सांप्रदायिकता मुख्यतः धर्म पर आधारित होती है। जब यह भाषा पर आधारित होती है तो इसे भाषावाद, और अगर यही क्षेत्र पर आधारित होती है तो उसे क्षेत्रीयता या प्रदेशिकता तथा जाति पर आधारित होती है तो इस जातिवाद भी कहा जाता है। सांप्रदायिकता पृथकता व अलगाववादी भावनाओं को विकसित कर इस समस्या को और अधिक विकट रूप प्रदान करती है।
सांप्रदायिकता की परिभाषा
डब्ल्यू ० सी० स्मिथ (W. C. Smith) ने सांप्रदायिक व्यक्ति की परिभाषा कुछ इन शब्दों में दी है, “एक सांप्रदायिक व्यक्ति (अथवा व्यक्तियों का समूह) वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक अथवा भाषायी समूह को ऐसी पृथक सामाजिक व राजनीतिक इकाई मानता है, जिसके हित अन्य समूहों से पृथक होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों या व्यक्ति समूह की विचारधारा को सांप्रदायिकता या संप्रदायवाद कहकर संबोधित किया जाता है।”
परिभाषा का सार
इन सभी विचारों से हो स्पष्ट हो जाता है कि सांप्रदायिक व्यक्ति धार्मिक कट्टरता वह अंधविश्वास के कारण समाज व राज्य विरोधी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति है क्योंकि वह अपने धार्मिक संप्रदाय के संकीर्ण हितों के लिए महत्वपूर्ण राष्ट्रीय व धार्मिक संप्रदायों के हितों को आघात पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। वह अपने हितों के लिए राष्ट्रीय हितों का भी बलिदान भी दे देता है। सांप्रदायिक व्यक्ति जब इस प्रकार की भावनाओं से प्रेरित होता है तभी सांप्रदायिकता की भावना का विकास होता है।
भारत में साम्प्रदायिकता के कारण
भारत में सांप्रदायिकता का आज भी जो रूप हमारे सामने है ऐसा रूप भारतीय समाज के इतिहास में पहले कभी भी नहीं रहा है। आज सांप्रदायिकता भारतीय समाज को सबसे बड़ी चुनौती है तथा तथा राष्ट्रीय एकीकरण के क्षेत्र में बहुत बड़ी बाधा बनी हुई है। सांप्रदायिकता का प्रारंभ अंग्रेजी शासन काल से शुरू हुआ था, क्योंकि अंग्रेजों ने भारत में शासन के लिए ‘फूट डालो और शासन करो’ (Divide and Rule) की नीति को अपनाया था, तथा इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली थी। इसके बाद अंग्रेजों ने अल्पसंख्यकों के लिए भी अलग-अलग नीतियों के निर्माण द्वारा इस प्रोत्साहन दिया। उदाहरण के तौर पर, भारतीय परिषद् विधेयक पर लॉर्ड सभा में किम्बर्ले ने यह तर्क रखा की, “भारत में एक ऐसी व्यवस्था अवश्य वश्यक होनी चाहिए जिससे कि अल्पसंख्यकों, जैसे मुसलमान जो कि इस देश के कुछ भागों में अल्पमत में है, इनको उचित प्रतिनिधित्व मिल सके।” इतना ही नहीं अंग्रेजों ने 1885 ई० में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हिंदू मुसलमान आधार पर दो भागों में बांटकर इसमें दरार पैदा करने की कोशिश की। 1909 ई० में मुस्लिम लीग की स्थापना तथा बाद में हिंदू महासभा की स्थापना से भी मुस्लिम हिंदू दूरी बढ़ती गई और इसी के परिणाम स्वरुप 1947 ई० में भारत और पाकिस्तान दो भिन्न-भिन्न स्वतंत्र राष्ट्र बने।
(1) अपने धर्म के प्रति श्रेष्ठता की भावना
सांप्रदायिकता का सबसे प्रमुख कारण अपने धर्म के प्रति श्रेष्ठता व सम्मान की भावना है। यद्यपि सभी एकेश्वरवाद को स्वीकार करते हैं तथा उनके मूल सिद्धांत एवं शिक्षाएं लगभग एक जैसी हैं, फिर भी कुछ लोग अज्ञानता, कट्टरवादिता तथा अंधविश्वास के कारणो से अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ समझने लगते हैं। इतना तो ठीक है परंतु जब वह दूसरे धर्म से घृणा करने लगते हैं तो उनके मन में उनके प्रति एक द्वेष पैदा हो जाती है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इसी से सांप्रदायिकता का जन्म भी होता है।
(2) धार्मिक कट्टरता (कटृरतावाद)
धर्म व्यक्ति को सदाचरण के लिए प्रेरित करता है परंतु धार्मिक कट्टरता वाद अपने धर्म के प्रति इतना अंधविश्वास पैदा कर देता है कि इससे प्रभावित व्यक्ति अपने संप्रदाय के हितों के समक्ष राष्ट्रीय अथवा अन्य संप्रदायों के हितों की उपेक्षा करने रखता है तथा समय मिलने पर उन्हें नुकसान भी पहुचाने लगता है। कट्टरपंथियों को किसी तर्क द्वारा समझना कठिन है।
(3) राजनीतिक स्वार्थ
सांप्रदायिकता का एक अन्य कारण राजनीतिक स्वार्थ भी है। व्यक्ति, नेता तथा राजनीतिक दल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ तथा वोट के राजनीति से प्रभावित होकर सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन देते हैं। संप्रदायिक राजनीतिक दल ऐसे समय ऊपर अपना हित साधन करने के लिए इसे नियंत्रित करने के स्थान पर इसे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से परेशान देते हैं।
(4) दोषपूर्ण नेतृत्व (गलत तरीके से नेतृत्व करना)
सांप्रदायिकता का एक मुख्य कारण दोषपूर्ण नेतृत्व भी है। अगर सांप्रदायिक संगठनों पर नेतृत्व करने वाले व्यक्ति स्वयं कट्टरपंथी हैं तो वह सांप्रदायिकता का जहर फैलाने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करेंगे, और करते भी नहीं है। इसके विपरीत, सांप्रदायिकता को रोकने में भी धार्मिक नेताओं की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परंतु इसके लिए उनका स्वयं सहिष्णुता और दूरदर्शी होना जरूरी है।
एक टिप्पणी भेजें