नव पाषाण काल (पाषाण काल) से संबंधित जिन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करेंगे वे बिंदु कुछ इस प्रकार होंगे —
1. नव-पाषाण काल के जीवन के विषय में आप क्या जानते हैं?
2. पाषाण-काल के निवासियों के जीवन तथा सभ्यता का वर्णन कीजिए?
3. पाषाण काल की मानव संस्कृति की विवेचना कीजिए?
4. नव पाषाण काल में समाज व्यवस्था के आरंभ पर प्रकाश डालिए
5. नवपाषाण काल की संस्कृति
नव-पाषाण काल के मानव संस्कृति, जीवन तथा सभ्यता
मनुष्य एक तर्कशील प्राणी माना जाता है । वह अपने विकास के लिए मात्र प्रकृति पर ही निर्भर नहीं रहता बल्कि वह स्वयं को भी अपने विकास हेतु प्रयत्नशील रहता है। कभी-कभी तो उसे अपने विकास के लिए प्रकृति से भी संघर्ष करना पड़ता है। वास्तव में सभ्यता के विकास की कहानी मानव तथा प्रकृति के संघर्ष की कहानी है। प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन तथा उसे एक निश्चित रूप में कार्य करने के लिए बाध्य करना मनुष्य का आदि-काल से उद्योग रहा है। यही कारण है कि मानव सभ्यता का क्रमिक विकास हुआ है। मानव सभ्यता की विकास- यात्रा के तृतीय पड़ाव को उत्तर- पाषाण काल अथवा नव-पाषाण काल के नाम से जाना जाता है। इस काल के लोगों की जीवन-व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी —
नवपाषाण काल की जीवन व्यवस्था (संस्कृति)
(1) नव पाषाण काल का काल
क्योंकि मध्य-पाषाण काल के आरंभ तथा अवसान की निश्चित रूप से जानकारी प्राप्त नहीं है अतएव उत्तर- पाषाण काल के आविर्भाव का निर्धारण नहीं किया जा सका है। पूर्व -पाषाण काल का अवसान लगभग 10000 वर्ष पूर्व हुआ था। अतएव जो विद्वान मध्य- पाषाण काल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते उनके विचार में उत्तर- पाषाण काल का प्रादुर्भाव दस हजार वर्ष पूर्व हुआ था, परंतु कुछ इतिहासकारों का विचार है कि पूर्व- पाषाण काल तथा उत्तर- पाषाण काल में कई शताब्दियों का अंतर था। इस मत का खंडन करते हुए डॉक्टर. स्मिथ ने कहा है कि “प्रकृति में इस प्रकार की विभिन्नता नहीं हुआ करती और मानव जीवन के क्रमिक विकास में इस प्रकार की विचिछन्नताता करना तर्कयुक्त नहीं प्रतीत होता।”
(2) अवशेषों का क्षेत्र
उत्तर-पाषण काल के भग्नावशेष मैसूर तथा हैदराबाद के राज्यों में, नर्मदा तथा गोदावरी नदियों की घाटियों में, दक्षिण के करनूल के क्षेत्र में, गुजरात में साबरमती नदी की घाटी में तथा बम्बई (मुंबई) के निकट , कश्मीर तथा सिन्ध में और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में प्राप्त हुए हैं।
(3) नव पाषाण काल का जलवायु
पूर्व-पाषाण काल तथा उत्तर-पाषाण काल की जलवायु में अंतर हो गया था। उत्तर- पाषाण काल की जलवायु मानव- जीवन के लिए अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त हो गई थी। उसमें ना तो शीतलता की अधिकता थी और न आद्रता की। वरन यह सामान्य थी। इस अनुकूल जलवायु में न केवल जनसंख्या में वृद्धि हुई अपितु मनुष्य के ज्ञान तथा उसकी प्रतिभा का भी विकास हुआ। अध्यवसाय तथा अनुभव से लाभ प्राप्त कर उत्तर- पाषाणकालीन मनुष्य ने अपने जीवन को और अधिक श्रेष्ठ तथा सभ्य बनाने का प्रयास किया।
(4) औजारों का विकास
इस युग में भी औजार पत्थरों के ही बने होते थे, लेकिन उनकी विशेषता यह थी कि वे पूर्व-पाषाण काल के औजारों की अपेक्षा अधिक परिष्कृत और सुंदर होते थे। अब वे भद्दे आकर के नहीं होते थे बल्कि उनका रगड़कर चिकना कर लिया जाता था। अब मनुष्य इतनी प्रगति कर गया था कि वह अपने औजारों को सुडौल बना सके और उनमें चमक पैदा कर सके। अब उनके औजारों में अनेकरूपता आ गई थी। पहिये तथा घिर्री का आविष्कार हो जाने से अब औजार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजे भी जा सकते थे। इस काल के लोग अपने उपयोग की वस्तुओं का निर्माण केवल पत्थरों से नहीं करते थे बल्कि लकड़ी, हाथी दांत और हड्डियों का भी प्रचुरता से प्रयोग करने लगे थे। धनुष-बाण,बर्छी, भाले,तलवार, चाकू, कुल्हाड़ी आदि के अतिरिक्त ये लोग हल, हँसिया,घिरनी, सीढ़ी ,तकली, करघी आदि भी बनाने लगे थे।
(5) कृषि का आरंभ
पूर्व-पाषाण काल तथा मध्य- पाषाण काल का मनुष्य पूर्ण रूप से प्रकृति- जीव था और कंद-मूल, फल- फूल खाकर तथा पशु और मछलियों का शिकार कर अपने उदर की पूर्ति करता था , परंतु उत्तर- पाषाण काल में उसने सर्वप्रथम कृषि- कार्य आरंभ किया। संभवतः इस काल में मनुष्य हल तथा बैल की सहायता से खेती करता था। इस काल की एक पाषाण-शिला पर दो बैलों की सहायता से हल चलाते हुए एक कृषक का चित्र उपलब्ध हुआ है , परंतु दुर्भाग्यवश अभी उत्खनन में किसी हल अथवा उसके अवशेषों की प्राप्ति नहीं हुई है। संभव है की लकड़ी के बने होने के कारण यह विनष्ट हो गए हों। पौधों को काटने के लिए संभवतः इन लोगों ने हंँसियों का भी आविष्कार कर लिया था।अनाज पीसने के लिए चक्की का भी प्रयोग शुरू हो गया था। उपलब्ध अवशेषों से ज्ञात होता है कि उत्तर भाषण काल का मानव गेहूँ, जौ ,मक्का, बाजरा तथा विभिन्न प्रकार के शाक तथा फल पैदा करता था।
(6) पाषाण काल में पशुपालन
यद्यपि पूर्व-पाषाण काल से ही मनुष्य पशुओं से परिचित हो गया था लेकिन अभी वह उन्हें पालता नहीं था बल्कि यह उनका शिकार किया करता था और उनके मांस से अपने उदर की पूर्ति किया करता था। उत्तर- पाषाण काल में मनुष्य ने पशुओं को पालन शुरू कर दिया। मनुष्य ने संभवतः अपने बुद्धि- बल से यह अनुभव किया कि यदि पशुओं की हत्या करने की बजाय उनका पाला जाए तो वह अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे। परिणामत: इन लोगों ने गाय, बैल, भैंस, बकरी,बिल्ला, कुत्ता, घोड़ा, आदि पालना शुरू किया किया।
(7) मिट्टी के बर्तनों का निर्माण
पूर्व-पाषाणकालीन मनुष्य पाषाण की सामग्री तो बनता था लेकिन मृतिका- भांड निर्माण कला से वह सर्वथा अनभिज्ञ था। उत्तर- पाषाण काल में वह इस कला से पूर्णतया परिचित हो गया था। वास्तव में कृषि- कर्म तथा पशुपालन का प्रादुर्भाव हो जाने के कारण इस कला का भी अविभार्व अपरिहार्य हो गया। कृषि- कार्य तथा पशुपालन के परिणामस्वरुप मनुष्य की खाद्य- सामग्री में वृद्धि हो गई। इन सामग्री के संग्रहण हेतु बर्तनों की आवश्यकता हुई। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। परिणामत: खाद्य-सामग्री को एकत्रित करने के लिए मिट्टी के बर्तनों का निर्माण आरंभ हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में चाक का अविष्कार नहीं हो सका था। एक कुशल कुम्हार अपने हाथों से ही विविध प्रकार के बर्तनों का निर्माण किया करते थे। यह बर्तन विभिन्न प्रकार के चित्रों से चित्रित भी किए जाते थे।
(8) पाषाण काल के वस्त्र निर्माण
पूर्व-पाषाणकालीन तथा मध्य- पाषाण कालीन मनुष्य वस्त्र का प्रयोग करता था, परंतु यह वस्त्र पशु- चर्म , वृक्ष की छाल तथा वृण- पत्रों के बने होते थे, लेकिन उत्तर- पाषाणकालीन मनुष्य ने सर्वप्रथम पौधों के रेशों तथा उनके धागों को कातना और उन्हें बुनकर वस्त्र- निर्माण करना आरंभ किया। उत्खनन में इस युग की मिट्टी की बनी हुई तकलियाँ तथा करघे प्राप्त हुए हैं। इस काल के लोगों ने वृक्षों के द्रव्यों तथा धातु- रसों की सहायता से वस्त्रों को रंगना भी आरंभ कर दिया था। संभवतः ,यह समस्त कार्य अधिकांशतः नारियाँ ही किया करती थी।
(9) पाषाण काल में गृह निर्माण
पूर्व-पाषाणकाल तथा मध्य- पाषाण काल में मनुष्य कन्दराओं अथवा जानवरों के चमड़े से निर्मित शिविरों में रहता था और गृह- निर्माण कला से सर्वथा अनभिज्ञ था , लेकिन उत्तर- पाषाणकाल में उसने इस कला का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया। उत्खनन से प्राप्त उपकरणों से यह स्पष्ट होता है कि उस काल की झोपडियों की दीवारें, लट्टठों तथा नरकुलों की बनी होती थी। जिन पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था। इनकी छतें लकड़ी, पत्ती छाल आदि की बनी होती थी। फर्श कच्चा तथा मिट्टी का बना होता था।
(10) श्रम विभाजन का विकास
सभ्यता के विकास के साथ-साथ इस युग में श्रम- विभाजन का भी विकास आरंभ हुआ। पूर्व- पाषाणकाल तथा मध्य- पाषाणकाल में इस प्रथा का सर्वथा अभाव था। इस काल में यदि श्रम विभाजन था भी तो केवल पुरुषों तथा स्त्रियों में था। पुरुष प्रायः शिकार में संलग्न रहा करते थे और स्त्रियां जंगली अनाजों को एकत्र कर उनके उपयोग में लगी करती थी, परंतु उत्तर-पाषाणकाल में व्यावसायिक श्रम- विभाजन के सिद्धांत का प्रादुर्भाव हुआ और बढ़ई, कुम्हार आदि शिल्पियों की पृथक-पृथक श्रेणियां का निर्माण आरंभ हो गया। यह लोग कृषि कार्य नहीं करते थे बल्कि शिल्प कला द्वारा ही अपनी जीविका चलाते थे।
(11) पाषाण काल में व्यापार में वृद्धि
श्रम- विभाजन के परिणामस्वरुप विनिमय की व्यवस्था स्थापित हो गई और इस प्रकार व्यापार में वृद्धि होने लगी। एक ग्राम में रहने वाले लोग अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तु का विनिमय कर लिया करते थे। इस प्रकार बढ़ई तथा कुम्हार अपनी बनाई हुई वस्तुओं को किसानों को देकर उनसे अन्न प्राप्त कर लेते थे, लेकिन विनिमय में अभी मुद्रा का प्रचलन नहीं हुआ था बल्कि अनावश्यक वस्तु को देखकर लोग आवश्यक वस्तु को प्राप्त कर लेते थे। व्यापार का क्षेत्र केवल निकटवर्ती ग्राम तक ही सीमित न था। सुदूरवर्ती ग्राम भी आपस में व्यापार किया करते थे। खुदाई मै अनेक स्थानों से ऐसी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं जिनका उत्पादन वहां हो ही नहीं सकता था। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि अन्य स्थानों से व्यापारियों द्वारा यह वस्तुएं वहां लाई गई थी। उल्लेखनीय है कि उस युग में लोगों की आवश्यकताएँ अत्यंत सीमित होती थीं और उनकी पूर्ति वह अपने अथवा अपने गाँव वालों के उद्योग से कर लिया करते थे। केवल विशिष्ट वस्तुओं को ही वह सुदूरस्त स्थान से मांगता था।
(12) पाषाण काल में शव विसर्जन
उत्तर-पाषाणकाल के लोग मृतक शरीर को भूमि में गढ़ दिया करते थे। इन सवों को गाढने के लिए कब्रिस्तान बन गए थे। कभी-कभी शव को कब्रिस्तान में गाढ़ने के स्थान पर घर के भीतर ही अथवा उसके समीप ही गढ़ दिया जाता था। जहाँ शव को गाढ़ा जाता था, वहाँ उसके उपयोग की वस्तुएँ भी रख दी जाती थी। इस काल में अनेक बस्तियों में शव को जलाने की भी प्रथा थी। और उनकी राख को मिट्टी के बने हुए कलशों में रखकर आदर पूर्वक भूमि में गाढ़ दिया जाता था।
महत्वपूर्ण अति लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर
नव पाषाण काल के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं?
मनुष्य एक तर्कशील प्राणी माना जाता है । वह अपने विकास के लिए मात्र प्रकृति पर ही निर्भर नहीं रहता बल्कि वह स्वयं को भी अपने विकास हेतु प्रयत्नशील रहता है। कभी-कभी तो उसे अपने विकास के लिए प्रकृति से भी संघर्ष करना पड़ता है।
नवपाषाण काल कब से कब तक था?
नवपाषाण काल 9500 ई० पू० से 9000 ई० पू० तक था।
नवपाषाण काल की खोज किसने की थी?
नवपाषाण काल की खोज का श्रेय इंग्लैंड के जॉन लुब्बोक को जाता है। उन्होंने 1865 में इस समय के एक अद्भुत खंड के पहचान की थी और उसे नवपाषाण का शब्द से संबोधित किया था।
नवपाषाण काल में पाला गया पहला पशु कौन सा था?
नवपाषाण काल में पाल गया पहला पशु कुत्ता था। कुत्ता मानव समुदाय के साथी बन गया था और उसका सहारा करके लोगों के लिए शिकार करने, रक्षा करने और सामाजिक संबंध बनाए रखने में मदद मिलती थी।
नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल कौन से थे?
नवपाषाण काल के प्रमुख स्थल— ब्रह्मगिरि, मास्की, हल्लूर, सगनकल्लू, नरसीपुर तथा पिक्तीहल ।
नवपाषाण काल की संस्कृति क्या है?
वास्तव में सभ्यता के विकास की कहानी मानव तथा प्रकृति के संघर्ष की कहानी है। प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन तथा उसे एक निश्चित रूप में कार्य करने के लिए बाध्य करना मनुष्य का आदि-काल से उद्योग रहा है। यही कारण है कि मानव सभ्यता का क्रमिक विकास हुआ है
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