जनजाति और जाति में 10 मुख्य अंतर - letest education

जनजाति तथा जाति में अंतर

 जनजाति तथा जाति को एक समझ लेने का प्रमुख कारण राजनीति की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा ना होना है। इसी दिशा में इंपीरियल गजेटियर में जनजाति को परिवारों के ऐसे समूह के रूप में परिभाषित किया गया है जिसे अपना एक विशेष नाम होता है, जो एक-सी बोली बोलना है, एक समान क्षेत्र में निवास करता है या रहने का दावा करता है तथा अंतर्विवाह होता है। जनजाति की इस रूप में दी गई परिभाषा से हमें जनजातियों की चार प्रमुख विशेषताओं का पता चलता है — 

  1. सामान्य नाम।
  2. एक भाषा अथवा उपभाषा को बोलना।
  3. एक सामान्य क्षेत्र में निवास करना व उस क्षेत्र को अपने से संबंधित माना।
  4. वैवाहिक संबंधों का समूह के अंदर ही सीमित रहना।

यह चारों विशेषताएं हमें जाति व्यवस्था में भी देखने को मिलते हैं। फिर भी इन दोनों जातियों को एक मानना हमारी भूल होगी क्योंकि जनजाति और जाति में काफी अंदर पाया जाता है। 

जनजाति और जाति में अंतर

(1) विकास का आधार 

जनजाति का विकास एक निश्चित भू-भाग, भाषा और संस्कृति के आधार पर होता है। लेकिन जाति एक मानव निर्मित व्यवस्था है और इसकी सदस्यता मुख्यतः जन्म के आधार पर मिलती है। 

(2) समूह के आधार पर अंतर

जनजातीय अक्षर भूमि भाषा और सांस्कृतिक आधारों पर समूहित होती हैं जो अपने संरचनित सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में एक संगठित समूह के रूप में व्यक्त होते हैं। और वही जातिया अक्षर वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आती हैं, और व्यक्तियों को उनके उत्थान और गिरावट के आधार पर वर्गीकरण करती है।

(3) संस्तरण में अंतर 

जनजातियों में परस्पर पूछ एवं नीचे की भावना अथवा एक ही जनजाति में जाति जैसी श्रेणियों का अभाव पाया जाता है। लेकिन जाति व्यवस्था उच्च-नीच पर आधारित है।

(4) परिभाषा में अंतर

जनजाति वह समूह होता है जिसमें व्यक्तियों का जाति विशेष रूप से उनके निवास क्षेत्र, भाषा, संस्कृत विभिन्नताएं आदि के आधार पर सामूहिक कृत होता है। उदाहरण के रूप में, भारत में आदिवासी समूह जनजातियों के उदाहरण हैं। और वही दूसरी ओर जाति एक सामाजिक वर्गीकरण है जिस व्यक्ति की जाति, जाति या जातिवाचक अनुबंध के आधार पर किया जाता है। जातिवाचक अनुबंध व्यक्ति के जाति के संबंध में होता है जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य आदि है।

(5) व्यवसाय में अंतर 

जनजाति के सदस्य विविध प्रकार की व्यवसाय में लगे होते हैं और उनमें व्यवसाय संबंधित कोई कठोर नियंत्रण नहीं पाया जाता है। लेकिन वही जाति व्यवस्था में परंपरागत रूप से प्रत्येक जाति का एक निश्चित व्यवसाय पाया जाता है और व्यवसाय संबंधी कठोर नियंत्रण रहता है।

(6) निषेध

जनजाति मैं खाने-पीने एवं सामाजिक सहवास संबंधी कठोर निषेधों का अभाव पाया जाता है। लेकिन वही प्रत्येक जाति अपने सदस्यों पर अन्य जातियों के साथ रहने एवं खाने-पीने संबंधी कुछ ना कुछ निषेध लगाती है। 

(7) राजनीतिक संगठन में अंतर 

जनजातियों का प्रारंभ राजनीतिक संगठन होता है तथा ये जनजातीय पंचायत द्वारा संचालित होती हैं। और वहीं कुछ जातियों में जाति पंचायत का उल्लेख मिलता है परंतु अधिकतर इनका पृथक राजनीतिक संगठन नहीं होता।

(8) आर्थिक व्यवस्था में अंतर 

जनजातियों की आर्थिक व्यवस्था अक्सर उनके स्थानीय संसाधनों और जीवन शैली के आधार पर आधारित होती है। किसान, उद्यमिता, शिकार और संग्रहण जैसी विभिन्न धरोहरों के आधार पर उनका आर्थिक व्यवस्था का आकार होता है। और वही जाति व्यवस्था में आजीविका के रूप में कृषि के परंपरागत वीडियो का अनुसरण करती है। और उनका मुख्य आर्थिक व्यवसाय हस्तकला, कारीगरी और शिल्प कला जैसे होते हैं।

(9) आत्म-निर्भरता में अंतर

जनजाति मुख्यतः एक आत्मनिर्भर इकाई है। और वही जाति को व्यापक आर्थिक संरचना के अंतर्गत एक उप-इकाई माना गया है। 

(10) शिक्षा और आर्थिक स्थिति में अंतर

जनजातियों के सदस्यों की शिक्षा और आर्थिक स्थिति अक्षर उनके सांस्कृतिक समृद्धि और आधिकारिक प्रमाणों के अनुसार होती है। और वही जातियों के सदस्यों की शिक्षा और आर्थिक स्थिति भिन्न भिन्न जातियों में भिन्न रहती है।

निष्कर्ष 

मैक्स वेबर ने भारतीय सामाजिक संरचना की विवेचना करते हुए यह लिखा है कि जब किसी जनजाति का क्षेत्रीय अर्थ और महत्त्व समाप्त हो जाता है तब वह जाति में बदल जाती है। उनके अनुसार कभी-कभी एक ही जनजाति के अंतर्गत पद और प्रस्थिती में भेद पाए जा सकते हैं, जबकि एक ही जाति के सभी सदस्यों के बीच पद साम्यता देखी जाती है। 

★भारत में सबसे बड़ी जनजाति भील है।

★भारत की सबसे छोटी जनजाति राजी (उत्तराखंड के पिथोरागढ़) है।

  मजूमदार एवं मदन ने जनजाति और जाति में पाए जाने वाले एक अन्य अंतर की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार जो जनजातीय हिंदू पुरोहितों की सेवाओं को काम में लेना चाहते हैं वे पुरोहितों को, महत्वपूर्ण एवं उपयोगी मानते हुए भी बाहरी समझती हैं, जबकि जाति वाले पुरोहितों को अपना समझते हैं। 

इन सभी विवेचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है की जनजाति एवं जाति में कुछ समानताएं होते हुए भी दोनों दो भिन्न।

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