द्वितीय आंग्ल-चीनी युद्ध
द्वितीय आंग्ल-चीन युद्ध (1856-1860) चीन और ब्रिटिश इम्पीर के बीच लड़े गए एक सशस्त्र संघर्ष था। यह युद्ध भारतीय इतिहास में भी जाना जाता है क्योंकि भारतीय सेपोय विद्रोह (1857-1858) इस युद्ध का एक हिस्सा था।
प्रथम अफीम युद्ध में यूरोपीय शक्तियों को आशातीत प्राप्त हुई थी। उन्होंने चीन सरकार से न केवल व्यापारिक सुविधाएं बल्कि बहुत से विशेष अधिकार भी प्राप्त किए थे। एक प्रकार से उन्होंने चीन पर व्यापारिक सर्वोच्चता स्थापित कर ली थी। ताइपिंग क्रांति से चीन सरकार की दुर्लभता का लाभ उठाकर यूरोपीय शक्तियों ने पहले से अधिक सुविधाएं प्राप्त कर ली थी। इतना होने पर भी चीन को शीघ्र ही एक दूसरे युद्ध का सामना करना पड़ा। जिसने चीन के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया।
द्वितीय आंग्ल-चीन युद्ध के कारण
(1) चीन का असंतोष
नानकिंग की संधि के पश्चात यूरोपीय शक्तियों ने बहुत सी व्यापारिक सुविधाएं और विशेष अधिकार प्राप्त कर लिए थे। उन्होंने चीन की सैन्य दुर्बलताओं का अनुभव कर लिया था। इसीलिए वे चीन से और भी अधिक सुविधाएं प्राप्त करना चाहते थे। दूसरी और चीन भारत पर यूरोपियनों के प्रभाव को बढ़ता हुए देखकर नाराज था। वह जितनी जल्दी संभव हो इन यूरोपीयनों के प्रभाव का अंत करना चाहता था। इस प्रकार एक और अधिक अधिकारों को प्राप्त करने की इच्छा थी और दूसरी ओर चीन की नाराजगी थी। इनके फलस्वरूप चीन में दोनों पक्षों में गंभीर तनाव उत्पन्न हो गया।
(2) चीनियों को बलपूर्वक विदेश ले जाना
नानकिंग संधि के बाद यूरोपीय व्यापारी अपने व्यापार का विस्तार करने में प्रयत्नशील हो गए। उन्होंने चीनियों को कुलियों के रूप में कार्य करने के लिए यूरोप के विभिन्न देशों में भेजना प्रारंभ कर दिया। प्रारंभ में उन्होंने यह कार्य चीनियों की सहमति के आधार पर किया किंतु कुछ समय बाद वे चीनियों को बलपूर्वक कार्य करने के लिए विदेश में भेजने लगे। 1851 ईस्वी में उन्होंने लगभग 25000 चीनियों को बलपूर्वक जहाज में भरकर मजदूरों का कार्य करने के लिए कैलिफोर्निया भेज दिया। चीन की सरकार उनके इस कार्य से बहुत नाराज हुई।
(3) यूरोपीय व्यापारियों द्वारा अधिकारों का अनुचित प्रयोग
चीन सरकार की दुर्लभता का लाभ उठाकर यूरोपीय व्यापारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना प्रारंभ कर दिया। इन अधिकारों में एक अधिकारी यह भी था कि यूरोपीयन अपराधियों के मुकदमे की सुनवाई यूरोपीय मजिस्ट्रेट ही कर सकेंगे। इस प्रकार यदि कोई यूरोपियन चीनियों के प्रति अपराध करता था तो उसे उस अपराध से मुक्त कर दिया जाता था। 1850 ईस्वी में इस संबंध में यूरोपियन न्यायालय ने एक तरफ निर्णय लिए थे। चीन की सरकार और जनता उनके इस व्यवहार से बहुत पीड़ित और दुखी हो गई और वह इन विदेशियों का अंत कर देने की इच्छुक हो गई।
(4) यूरोपीय व्यापारियों की आक्रामक कार्यवाहियां
यूरोपियन व्यापारियों ने चीनी समुद्र तट पर अपने अधिकारों के कारण काफी प्रभाव स्थापित कर लिया था। लेकिन वह अब अपने अधिकारों का अनुचित प्रयोग करने लगे थे। वे समुद्री डाकुओं को पकड़ने का बहाना बनाकर चीन की सीमा के बहुत निकट आ जाते थे और चीनी जहाजों को पकड़ लेते थे। वे बलपूर्वक इन जहाजों से भारी मात्रा में जुर्माना वसूल करते थे और अपनी इच्छा अनुसार उन पर ज्यादतियां किया करते थे।
(5) चीन के वायसराय का अंग्रेजों के प्रति दुर्व्यवहार
येह-मिन-चिंग कैण्टन में चीन का वायसराय था। वह बहुत दृढ़ और साहसी व्यक्ति था। वह व्यवहार में यूरोपीय व्यापारियों के उन अधिकारों की पूर्ण उपेक्षा कर देता था, जिन अधिकारों का वे दावा करते थे। वह उनके साथ समानता का व्यवहार भी नहीं करता था। 1854 ईस्वी में लॉर्ड ब्राउनिंग ने अंग्रेजी व्यापारियों के माध्यम से कुछ सुविधाओं एवं मांगों को चीनी वायसराय के समक्ष रखा। लेकिन उसने उन मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया ।अंग्रेज उसे समय क्रीमिया युद्ध में व्यस्त होने के कारण इस और ध्यान ना दे सके। लेकिन बाद में अंग्रेजों और चीनियों में विरोध तेजी से बढ़ने लगा।
(6) राजनीतिक सत्ता स्थापित करने की इच्छा
यूरोपिय व्यापारी चीन की कमजोरी से पूर्णतया परिचित हो चुके थे। उन्हें यह अनुभव हो गया कि वह शक्ति के बल पर ही राजनीतिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन वह इस शक्ति का प्रयोग अपने व्यापारिक अधिकारों के माध्यम से करना चाहते थे। इस प्रकार उनकी शक्ति के प्रयोग की तीव्र इच्छा और इसके प्रभाव ने आंग्ल-चीनी युद्धको प्रारंभ करने में विशेष योगदान दिया।
(7) नान किंग की संधि का नवीनीकरण
द्वितीय आंग्ल चीन युद्ध के परिणाम
द्वितीय अफीम युद्ध के परिणाम स्वरुप चीन का अपनी आर्थिक नीति पर नियंत्रण समाप्त हो गया तथा उसके आयात और निर्यात पर विदेशियों का नियंत्रण स्थापित हो गया। सीमा शुल्क संबंधी विदेशी निरीक्षणालय की स्थापना में तत्काल जैसी महत्वपूर्ण नीति पर उसका कोई अधिकार नहीं रह गया। यह उसकी सार्वभौम सत्ता पर खुला प्रहार था जिसका उत्तर देने में चीन असमर्थ था।
(1) आर्थिक क्षति
संधियों की पुनरावृत्ति के पश्चात पश्चिम की शक्तियों का दुर्बल मंचू वंश का टाइपिंग विद्रोह से बचाना उनके अपने हितों में था। चीन में भ्रष्ट एवं निर्बल कें केंद्रिगत शासन, उनके साम्राज्य लिप्सा की पूर्ति के लिए अत्यंत सहायक सिद्ध हो सकता था। पीकिंग संधि द्वारा प्रदत्त सुविधाएं एवं अधिकार मंचू वंश के दायित्व थे, जिनके पूर्ण करने की आशा में पश्चिमी देशों ने सरकार को सैनिक सहायता दी। तत्पश्चात आवश्यक सैनिक संगठन के लिए ऋण दिए गए। आधा आर्थिक रूप से दिन प्रतिदिन मंचू वंश पाश्चात्य देशों पर निर्भर होता गया। दूसरी और उसकी निर्मल सैनिक स्थिति सर्वविदित हो गई। विदेशी व्यापारियों ने इस स्थिति का खूब लाभ उठाया।
(2) देशोत्तर अधिकार से उत्पन्न समस्याएं
पीकिंग समझौते से चीन के आंतरिक भागों में पश्चिम के व्यापारियों एवं मशीनरियों को उन्मुक्त प्रवेश के अधिकार प्राप्त हो गए थे। अब एक और पश्चिम का व्यापार चीन में बड़े वेग से बड़ा तथा दूसरे और ईसाई धर्म का प्रचार तेजी से हुआ। इन पश्चिम व्यापारियों के संरक्षण में अनेक अवैध व्यापार तथा अनैतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला। पश्चिम के इन व्यापारियों को न चीन के कानून का भय रहा गया था और न चीनी न्यायालय के दंड की कोई चिंता। इनका आचरण चीनी पदाधिकारी के लिए अत्यंत गंभीर समस्या बन गया था।
चीन में जो अधिकार पश्चिम के व्यापारियों को दिए गए उनसे चीन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्ग ‘शिक्षित वर्ग’ अत्यंत क्षुब्द था, क्योंकि यह संधियां उस पर ला दी गई थी। ‘देशोत्तर अधिकार’ , ‘उन्मुक्त बन्दरगाह’ तथा ‘उन्मुक्त प्रवेश’ जैसी सुविधा विश्व के किसी देश में चीन को प्राप्त नहीं थी। वास्तुत: 1842 ई० तथा 1860 ई० की संधियों द्वारा जिस ढंग से चीन तथा पश्चिम में संबंध स्थापित हुआ वह किसी दृष्टिकोण से समान स्थिति व सर्वप्रभुता-संपन्न देशों का पारस्परिक संबंध नहीं कहा जा सकता। इस तथ्य को तात्कालिक पश्चिमी व्यापारी एवं कूटनीतिगी समझते थे। पूर्व के देशों में उनकी नीति थी— ‘व्यापार के बाद साम्राज्य विस्तार’। कोई आश्चर्य नहीं है कि उन्होंने चीन में इसी नीति का अनुसरण किया और चीन में बलात प्रवेश कर कर उसके ‘स्वर्णिम साम्राज्य’ के समस्त गौरव व प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया।
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