भारत में श्रमिक आंदोलन की स्थापना तथा उसका इतिहास - labor movement

भारत में श्रमिक आंदोलन

labor movement in india ; यूरोप की औद्योगिक क्रांति का भारतवर्ष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भारतीय श्रमिकों ने संगठन की आवश्यकता को बहुत देर से समझा 20वीं सदी में भी श्रमिकों के भर्ती करने की पद्धति मध्यस्तों के माध्यम से ही होती थी। यह मध्यस्थ उन श्रमिकों पर अपना नियंत्रण रखते थे और उन्हें एक कारखाने से दूसरे कारखाने में भेज कर उनको नौकरी दिलवाने के अधिकारी बने रहते थे। मिल मालिकों से वेतन देर से मिलने के कारण यह सरदार उनको रूपया उधर देकर उन पर अपना नियंत्रण और अधिक सुदृढ़ कर लेते थे। बहुत से श्रमिक स्थाई रूप से गांव छोड़कर नहीं आना चाहते थे। और औद्योगिक नगरी में रहने की सुविधा के अभाव में गांव से अपना संबंध बनाए रखते थे। ऐसी विपरीत स्थिति में भारत में श्रमिक वर्ग का संगठन बहुत देर से आरंभ हुआ। 

भारत में श्रमिक आंदोलन की स्थापना

भारत में श्रम संघ आंदोलन का इतिहास ; सर्वप्रथम 1897 ई० में रेल कर्मचारियों का संघ स्थापित हुआ। 1960 ईस्वी में डाक कर्मचारियों का और 1918 ईस्वी में मद्रास में कपड़ा उद्योगों के श्रमिकों का एक संगठन स्थापित हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात आर्थिक कठिनाइयों के कारण बहुत से स्थान पर श्रमिकों ने हड़ताल की। ये हड़ताल बहुदा सफल रही, क्योंकि मिल मालिकों ने उनकी मांगों को स्वीकार कर लिया, लेकिन युद्ध प्रांत लाभ की स्थिति सीख रही समाप्त हो गई और 1922 ई० के पश्चात श्रमिकों ने अपनी मांगे स्वीकार करवाने में कठिनाई का अनुभव किया। 

भारत में श्रमिक आंदोलन की स्थापना तथा उसका इतिहास - labor movement

 ‌ श्रमिक संघ आंदोलन में सामंजस स्थापित करने के लिए 31 अक्टूबर 1920 को ‘अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (AITUC) की स्थापना की। अंतरराष्ट्रीय संगठन ने कुछ सीमा तक भारतीय श्रमिक वर्ग के आंदोलन को प्रभावित तथा प्रोत्साहित किया। इसी बीच भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना भी हो गई थी, जिसके कार्यकर्ता धीरे-धीरे किसानों एवं मजदूरों के बीच कार्य करने लगे। इन कार्यकर्ताओं ने मजदूरों में वर्ग चेतना का संचार करके मजदूर आंदोलन को सशक्त बनाया। 1929 ई० में 51 श्रम संगठन जिनकी सदस्य संख्या 190000 थी, ‘अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ (AITUC) के संबंध में थे। इस केंद्रीय संगठन में सामान्यतः इंडियन नेशनल कांग्रेस का ही प्रभु माना जाता था। 

1939 ई० द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने के पश्चात विभिन्न विचारों वाले राजनेताओं के लिए एकता बनाए रखना कठिन हो गया। 1941 ई० में ‘भारतीय श्रम संगठन’ (Indian Labor Organization) की स्थापना की गई। इसका लक्ष्य अंग्रेजी सरकार की युद्ध संचालन में सहायता करना था। 1946 ई० में इस संगठन का हिंदू मजदूर सभा में विलय हो गया। 1947 में कांग्रेस नेताओं ने ‘भारतीय राष्ट्रीय मजदूर संघ कांग्रेस’ (Indian National Trade Union Congress) की स्थापना की।

इन सभी विभिन्न आंदोलनों के बावजूद हम देखते हैं की स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व श्रमिक संघ आंदोलन बहुत अधिक प्रभावशाली नहीं हो सका। इसकी कुछ प्रमुख दुर्बलताएं कुछ इस प्रकार थी— 

(1) श्रमिक बहुध अपने उद्योग और कार्य-स्थान बदलते रहते थे।

(2) श्रमिकों को इतना कम वेतन मिलता था कि वह श्रमिक संघो को चंदा देने में असमर्थ रहते थे।

(3) श्रमिकों को भर्ती करने में मध्यस्थों का योगदान भी श्रमिक आंदोलन को निर्बल करने में सहायक हुआ।

(4) सामान्य श्रमिक और शिक्षित होता था और अपने ही दूरगामी हितों की सुरक्षा नहीं कर सकता था।

निष्कर्ष 

   इन सभी कर्म से श्रमिक आंदोलन का नेतृत्व मध्यम वर्ग के हाथों में रहा। परिणाम स्वरुप श्रमिक संगठन राजनीतिज्ञों के प्रभाव में रहे तथा उनके निर्णय भी राजनीतिक कर्म से प्रभावित होते रहे। भारत में श्रमिकों के निर्माण तथा विकास की प्रक्रिया ब्रिटेन से भिन्न रही है। भारत में इंग्लैंड के विपरीत, श्रम विवादों को कानून बनाकर न्यायालयों के माध्यम से समाधान करने का प्रयत्न किया गया और वकीलों तथा न्यायालय का हक से सामान्य हो गया।

श्रमिक आंदोलन का इतिहास

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात श्रमिक आंदोलन तीव्र गति से विकसित हुआ। वस्तुतत: की बोल्शेविक क्रांति एवं प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात श्रमिकों की समस्याओं तथा कासन ने श्रमिकों को श्रमिक आंदोलन प्रारंभ करने के लिए बाध्य किया। एक और वस्तुओं के बढ़ते हुए मूल्य और श्रमिकों को कम वेतन मिलन और दूसरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन का जनसाधारण तक प्रसार— ये दोनों तथ्य श्रमिक आंदोलन को प्रोत्साहन देने में सहायक हुए। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना ने श्रमिकों के संगठन की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सर्वप्रथम मद्रास श्रम संघ ने बी० पी० वाडिया के नेतृत्व में हड़ताल का प्रयोग किया। 1919-21 ई० के मध्य हुई विभिन्न हड़ताल सफल रही, क्योंकि नियोजकों के पास अतिरिक्त लाभ बहुत था। 1922 के पश्चात हड़तालों का क्रम भंग हो गया और कुछ वर्षों तक हड़तालों का होना कम हो गया। विश्व व्यापी मंदी के पश्चात श्रमिक आंदोलन बहुत दुर्बल स्थिति में पहुंच गया। आरंभ में श्रम संगठन अधिनियम का अभाव कम था। 1921 ई० में मद्रास उच्च न्यायालय ने मद्रास कपड़ा श्रमिक संघ को गैरकानूनी घोषित कर दिया। तब 1938 ई० में ‘भारत ट्रेड यूनियन अधिनियम’ (India Trade Union Act) पारित किया गया। कांग्रेसी मंत्री परिषद बनने के पश्चात 1938 में मुंबई औद्योगिक विवाद अधिनियम पारित किया गया, जो श्रमिकों और नियोजकों के मध्य विवादों को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ।

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