आज हम क्षेत्रवाद (Regionalism) से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे जैसे-
★ क्षेत्रवाद का अर्थ (meaning of regionalism)
★ क्षेत्रवाद क्या है?
★ क्षेत्रवाद की अवधारणा
★भारत में क्षेत्रवाद के कारण
या क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारक
★क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर पड़ने वाला प्रभाव
क्षेत्रवाद (Regionalism)
भारत एक विशाल राष्ट्र है, जिसमें विभिन्न जातियों और उपजातियां के लोग निवास करते हैंअलग-अलग भाषाएं बोलते हैं और अलग-अलग धर्म का अनुसरण करते हैं। यही नहीं, यह विभिन्न पंथ्यों और उपपंथों में भी विभाजित है। भौगोलिक दृष्टि से भी भारत महाद्वीपीय आकार का राष्ट्र है। दूसरी बात यह है कि भारत के कुछ जातीय, धार्मिक और भाषायी समूह कुछ क्षेत्र विशेष में सकेंद्रित हैं और उन क्षेत्रों को अपना मानते हैं। यह समूह अपने क्षेत्र में आर्थिक विकास की गति को भी तीव्र करना चाहते हैं और अपनी सांस्कृतिक पहचान भी बनाए रखना चाहते हैं। अतः वे क्षेत्र से बाहर किंवासियों को क्षेत्र में रहने देना नहीं चाहते हैं। इसी मानसिकता के परिणाम स्वरुप भारत में क्षेत्रवाद के राजनीति का उद्भव हुआ है।
क्षेत्रवाद का अर्थ (meaning of regionalism)
‘क्षेत्रवाद’ का अर्थ क्या है? वस्तुत: क्षेत्र एक बहू अर्थी शब्द है। भौगोलिक दृष्टि से इसका अभिप्राय जिले के एक भाग्य जिले या राज्य के एक भाग या संपूर्ण राज्य से लिया जा सकता है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि क्षेत्र की अवधारणा में साहचार्य और अन्य क्षेत्रों से अलगाव का भाव निहित होता हैदराबाद। इससे अतिरिक्त क्षेत्र का मुख्य तत्व अधिकतम समरुपरता होता है; जिसकी भाषा सामाजिक संगठन, सांस्कृतिक प्रतीक, आर्थिक जीवन, ऐतिहासिक अनुभव अथवा राजनीतिक पृष्ठभूमि हो सकती है।
क्षेत्रवाद की अवधारणा
क्षेत्रवाद की अवधारणा का प्रयोग संकुचित और विस्तृत दोनों रूपों में किया जा सकता है। संकुचित रूप में इसका प्रयोग स्थानीय हितों के प्रति विशेष लगाव और विस्तृत रूप में केंद्र के प्रति आंदोलन को इंगित करने के लिए किया जाता है। क्षेत्रवाद की अवधारणा को बतलाते हुए हेडविग हिट्ज लिखते हैं, “सामान्य रूप से क्षेत्रवाद को उग्र केंद्रीकरण के विरुद्ध प्रति क्रियात्मक आंदोलन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। क्षेत्रीय आंदोलन भौगोलिक अलगाव, स्वतंत्र ऐतिहासिक परंपरा, प्रजातिय, जातीय अथवा धार्मिक विशिष्टता तथा स्थानीय हितों जैसे तत्वों या उनमें से दो या दो से अधिक के मिश्रण का परिणाम होता है।”
भारत में क्षेत्रवाद के कारण या क्षेत्रवाद को जन्म देने वाले कारक
regionalism in india Or causes of regionalism ; क्षेत्रवाद की भावना की उत्पत्ति किसी एक कारक से न होकर अनेक कारकों से होती है। इनमें मुख्य कारक निम्नलिखित है—
(1) भारत में विद्यमान विभिन्नताएं
क्षेत्रवाद विभिन्नता का परिणाम है। राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा भाषण आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद भी अनेक क्षेत्रों में अलगाव का मनोभाव बना हुआ है; उदाहरण के तौर पर- महाराष्ट्र में विदर्भ या मराठावाड़, गुजरात में सौराष्ट्र, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड तथा हरित प्रदेश, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड तथा जम्मू कश्मीर में लद्दाख की मांग इसी मनोवृति का परिणाम है। इनमें से कुछ एक राज्यों में पृथक राज्यों के निर्माण भी हो चुके हैं। इन नवनिर्मित राज्यों में सम्मिलित हैं— झारखंड, तथा उत्तरांचल या उत्तराखंड। उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश के निर्माण का आंदोलन भी चर्चा में है।
(2) आर्थिक विकास की असंतुलित स्थिति
राज्य के अलग-अलग भागों में आर्थिक विकास की असंतुलित स्थिति भी क्षेत्रवाद के उदय का एक मुख्य कारण रही है। उदाहरण के तौर पर— आंध्र प्रदेश में तेलंगाना आंदोलन, महाराष्ट्र में शिवसेना द्वारा चलाए गए आंदोलन, असम में आँल असम स्टूडेंट यूनियन (AASU) तथा ऑल असम गण -संग्राम परिषद (AAGPS) द्वारा चलाई गई आंदोलन के पीछे यही मुख्य कारक है।
(3) भाषायी लगाव (linguistic affinity)
भाषायी लगाव क्षेत्रवाद की उत्पत्ति का मुख्य कारक है। 1948 में राज्य पुनर्गठन पर विचार करने हेतु नियुक्त दर आयोग ने भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन 9 करने का विचार व्यक्त किया था; परंतु राजनीतिक क्यों नहीं अपने निहित स्वार्थी के लिए भाषायी हितों को आगे बढ़ना जारी रखा। 1953 में तेलुगु भाषी लोगों के लिए तत्कालीन मद्रास राज्य का भाग लेकर आंध्र प्रदेश नामक ने राज्य की स्थापना की गई। भाषा के आधार पर ही पंजाब का विभाजन करके नई हरियाणा राज्य की स्थापना की गई।
(4) संकुचित धार्मिक भावनाएं
धर्म भी अनेक बार क्षेत्रवाद की भावनाओं को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है। पंजाब में कलियों की पंजाबी सुबह की मांग कुछ सीमा तक धर्म के प्रभाव का परिणाम ही रही थी।
(5) सामाजिक अन्याय और पिछडा़पन
सामाजिक न्याय और पिछड़ापन क्षेत्रवाद के उदय का एक और मुख्य कारण है। मुख्यतः जब इस पिछड़ेपन में आर्थिक पिछड़पन भी सम्मिलित हो जाता है तो स्थिति और भी विषम हो जाती है। बिहार, उड़ीसा के आदिवासियों द्वारा झारखंड तथा उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र की जनसंख्या द्वारा उत्तराखंड की मांग इसी श्रेणी के उदाहरण है।
(6) राजनीतिज्ञों की भूमिका
क्षेत्रवाद की भावनाओं को विकसित करने में राजनीतिज्ञों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अनेक राजनीति की यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र का पृथक राज्य बना दिया जाएगा तो इससे उनकी राजनीतिज्ञ महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति भी हो जाएगी; अर्थात सत्ता पर उनका अधिकार स्थापित हो जाएगा।
(7) संचार के साधनों में कमी होना
क्षेत्रीयतावाद की उत्पत्ति का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण संचार के साधनों की कमी है। भारत के अनेक क्षेत्र संचार के साधनों की कमी के कारण अन्य भागों से पृथक रहे तथा इन क्षेत्रों के लोग राष्ट्र की अपेक्षा अपने क्षेत्र को अधिक प्रेम करने लगे तथा वह अपने को भारत से पृथक समझने लगे।
(8) जातिवाद
जातिवाद के आधार पर भी भारत में क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति बड़ी है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही है, वहां क्षेत्रीयता बाद की प्रवृत्ति दिखाई देती है। हरियाणा तथा महाराष्ट्र में क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति को फैलाने में जाति प्रभावित तत्व रहा है।
क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर पड़ने वाला प्रभाव
क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर पर क्या प्रभाव पड़ा? यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि क्षेत्रीय आंदोलन का भारतीय राजनीति पर धनात्मक प्रभाव पड़ा है अथवा ऋणात्मक। रशीउद्दीन खाँ का मत है कि क्षेत्रीय आंदोलन के कारण भारतीय संघ छिन्न-भिन्न हो जाएगा, यह धारणा मिथ्या सिद्ध हुई है। लगभग इसी प्रकार का दृष्टिकोण मॉरिश जोन्स का भी है। जोन्स का मानना है, “क्षेत्रीय आंदोलन उप-राष्ट्रवाद के विकास में सहायक होते हैं, जो प्रकार अंतर से राष्ट्रवाद के विकास में सहायता करता है।” इस दृष्टिकोण के समर्थकों का यह मानना है कि भारत में क्षेत्रीय आंदोलन न्यूनाधिक रूप से पृथक वादी नहीं रहे हैं। क्षेत्रीय आंदोलन का लक्ष्य अपने क्षेत्रीय समुदाय के लिए अधिक सुविधाएं प्राप्त करना अथवा विकास की गति को तीव्र करना होता है।
द्वितीय दृष्टिकोण — दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार क्षेत्रीय आंदोलन का भारतीय राजनीति पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ा है और इससे पृथकतावादी आंदोलनात्मक राजनीति को बढ़ावा मिला है। इस दृष्टिकोण के समर्थक विद्वानों के अनुसार क्षेत्रीय आंदोलन ने अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए धर्म, भाषा, जाति जैसे विघटनकारी तत्वों का सहारा लिया है, जिससे भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में नवीन बाधाएं उत्पन्न हो रही है।
निष्कर्ष (conclusion)
वास्तविक स्थिति यथार्थ में इन दोनों दृष्टिकोण के मध्य में है। भारत में विकास की गति आसमान रही है, अतएव क्षेत्रीय धरातल पर विरोध स्वाभाविक है। यदि विकास के अवसरों और और उसे प्राप्त लाभों का बंटवारा न्याय संगत तरीके से हो सके तो क्षेत्रीय आंदोलन से भारत के संघीय ढांचे पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा।
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