यूरोप की संयुक्त व्यवस्था से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे, जिसमें आपकी लगभग डाउट इसी में हल करने की कोशिश करेंगे। इसलिए ध्यान से पढ़ें और मुख्य बिंदुओं को कहीं भी नोट करें। यूरोप की संयुक्त व्यवस्था में जो मुख्य बिंदुओं पर हम चर्चा करेंगे उनमें से आपके इन सवालों के जवाब अच्छी तरह मिल पाएंगे —
- यूरोप की संयुक्त व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
- सन 1815 से सन 1830 तक उसके कार्यों का वर्णन कीजिए?
- वियना कांग्रेस में पवित्र संघ की योजना किसने प्रस्तुत की
- पवित्र मित्र-मण्डल तथा चतुर्मुखी मित्र-मंडल
- चतुर्मुखी मित्र-मंडल के उद्देश्य
- चतुर्मुखी मित्र-मंडल के अधिवेशन
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था ; वियना सम्मेलन ने यद्यपि यूरोप में शांति और व्यवस्था की स्थापना तो कर दी, परंतु उसको स्थायित्व प्रदान करना एक महत्वपूर्ण समस्या बन गई थी। अभी भी यूरोपीय राष्ट्रों के सम्मुख कई अंतरराष्ट्रीय समस्याएं थी, जिन्हें हल करने के लिए यूरोप के राजनीतकियों ने दो प्रकार की व्यवस्थाएं की।
और ये दो प्रकार की व्यवस्थाएं कुछ इस प्रकार थी—
- पवित्र मित्र मंडल।
- चतुर्मुखी मित्र मंडल (चतुर्मुखी मित्र मंडल द्वारा निर्धारित व्यवस्था ही यूरोप की संयुक्त व्यवस्था कहलाती है)
1. पवित्र मित्र-मण्डल
यूरोप में शांति स्थापित करने के लिए तथा राजाओं के देवी अधिकारों की रक्षा करने के लिए रूस के सम्राट जार अलैक्जेण्डर प्रथम ने सितंबर 1815 में एक घोषणा की। इस घोषणा में यह कहा गया था कि ‘राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है।’ इनको प्रजा प्रशासन करने के लिए पैदा किया गया है। अतः सब राजाओं को परस्पर मिलकर रहना चाहिए। उनको चाहिए कि वह एक दूसरे को अपना भाई समझे तथा ईसाई धर्म के पवित्र सिद्धांतों को मानते हुए यूरोप में शांति स्थापना का प्रयास करें। जार के अनुसार विएना संधि को यूरोप की शांति और सुरक्षा का स्थाई यंत्र बनाने के लिए राजनीतिक आवश्यकता के स्थान पर ईसाई धर्म के पवित्र और उदात्त सिद्धांतों को आधार बनाना चाहिए।
- आस्ट्रिया तथा प्रशा की सम्राटों ने भी इसका समर्थन किया। इंग्लैंड, तुर्की और पोप के अतिरिक्त यूरोप की प्रयोग सभी सम्राट इसके सदस्य हो गए।
- लेकिन जार की अतिरिक्त अन्य किसी भी सम्राट ने इसमें विशेष रुचि नहीं दिखाई। इंग्लैंड का प्रधानमंत्री कैसलरे इसे अलौकिक रहस्यवादिता और मूर्खता का एक नमूना कहा करता था। मेटरनिख ने इसे ‘ढोल की पोल’ तथा ‘सदाचार का ढोंग’ कहा था। गेंग ने इसकी उपमा ‘एक सुंदर मेज की सजावट’ दे दी है।
- पवित्र संधि कोई संधि नहीं थी जिसका कोई लिखित विधान अथवा धाराएं हों। यह तो जार द्वारा की गई एक आदर्शवादी पवित्र घोषणा थी। यह राजनीति के आध्यात्मिक कारण का प्रयास था। जो कुटिल राजनीति एवं यथार्थवाद की चट्टान से टकराकर बिखर गया।
- इंग्लैंड के अपेक्षा पूर्ण व्यवहार से इसका प्रभाव बहुत कम हो गया था। अंत में 1825 में जार अलैक्जेण्डर प्रथम की मृत्यु हो जाने पर पवित्र मित्र मंडल फीस समाप्त हो गया। इतिहासकार हेजन ने यह लिखा है कि, “अपने जन्म काल से ही पवित्र संघ एक प्रीत पत्र था जिसने किसी भी राज्य की न तो आंतरिक और न बाह्य नीति को प्रभावित किया।”
2. चतुर्मुखी मित्र-मंडल
इंग्लैंड, रुस, ऑस्ट्रिया एवं प्रशा ने मिलकर एक संघ की स्थापना की, जिसे चतुर्मुखी मित्र मंडल के नाम से पुकारा जाता है। इसकी स्थापना 20 नवंबर, 1815 ई० को हुई थी।
चतुर्मुखी मित्र-मंडल के उद्देश्य
(1) फ्रांस पर नियंत्रण रखना चतुर्मुखी मित्र मंडल का मुख्य उद्देश्य था। फ्रांस में कोई भी विद्रोह होने पर उसका दमन करना इसका प्रधान लक्ष्य था।
(2) क्रांति की भावना को नष्ट करना, राजाओं के देवी सिद्धांतों को प्रतिष्ठित करना किसी भी देश के आंतरिक विद्रोह तथा असंतोष का दमन करना इस मंडल के अन्य उद्देश्य थे।
(3) यूरोप के राजाओं में परस्पर सहयोग उत्पन्न करना और निरंकुश शासको के अधिकारों की रक्षा करना भी चतुर्मुखी मित्र मंडल का एक उद्देश्य था।
(4) यूरोप में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना भी इस मंडल का उद्देश्य था।
(5) वियना सम्मेलन द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था बनाए रखना इस मंडल का प्रमुख उद्देश्य था।
चतुर्मुखी मित्र-मंडल के अधिवेशन
यूरोप में शांति बनाए रखने के लिए समय-समय पर मंडल के अधिवेशन बुलाए जाने की व्यवस्था की गई। समय-समय पर कई अधिवेशन बुलाए गए। इनमें ऑस्ट्रिया के चांसलर मैटरनिख के व्यक्तित्व की गहरी छाप थी। इसी कारण यूरोप की संयुक्त व्यवस्था को मैटरनिख की व्यवस्था भी कहा जाता है।
(1) एक्स-ला-शैपेल की कांग्रेस (1818 ई०)
चतुर्मुखी मित्र मंडल का प्रथम अधिवेशन सन 1818 में एक्स-ला-शैपेल में हुआ था। इसमें वेलिंगटन ने दो प्रस्ताव रखें — (अ) फ्रांस को क्षतिपूर्ति की राशि अदा करने के लिए किसी राष्ट्र से ऋण दिलाया जाए। (ब) फ्रांस से विदेशी सेनाएं हटा ली जाए।
यह दोनों ही प्रस्ताव चतुर्मुखी मित्र मंडल के इस अधिवेशन में स्वीकृत किए गए। फ्रांस को हॉलैंड से रेड दिल दिया गया। फ्रांस ने इस रेल की सहायता से क्षतिपूर्ति की शेष रकम भी अदा कर दी तथा वहां से मित्र राष्ट्रों की सेना हटा ली गई। लोहिया 18वें ने निवेदन किया कि उसने संधि को शर्तों की पूर्णतया पालन किया है अतः उसको भी चतुर्मुखी मित्र मंडल का सदस्य बना लिया जाए। उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और फ्रांस को भी मित्र मंडल में सम्मिलित कर लिया गया। इस प्रकार चतुर्मुखी मित्र-मंडल पंचमुखी मित्र मंडल का सदस्य हो गया।
(2) ट्रोपो कांग्रेस (1820 ई०)
1820 में स्पेन तथा पुर्तगाल में वहां के राजाओं के विरुद्ध जनता ने क्रांति कर दी। इस कारण रूस के जार अलैक्जेण्डर प्रथम एवं ऑस्ट्रिया के कुलपति मैटरनिख को बड़ी चिंता होने लगी। उन्होंने इन विद्रोहो का दमन आवश्यक समझा क्योंकि इससे उनके राज्यों की जनता भी उत्तेजित हो सकती थी। अतः विचार विमर्श के लिए पंचमुखी मित्र-मंडल की एक बैठक सन 1820 में ऑस्ट्रिया के ट्रोपो नामक स्थान पर बुलाई गई। इस बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि यदि किसी देश में आंतरिक शांति भंग होती है तो मित्र राष्ट्रों के कर्तव्य हैं कि वह अपनी शहनाई भेज कर वहां शांति स्थापित करें। हस्तक्षेप के सिद्धांत की उद्घोषणा करते हुए कहा गया था, “प्रजा कभी किसी राजा को विवश करके उससे कोई अधिकार नहीं छीन सकती क्योंकि इस प्रकार का कार्य यूरोप के किसी भी राजा की हित में नहीं होगा।” इसका अर्थ यह होता कि वह भी है वियना सम्मेलन की धाराओं को भंग करने वाले राष्ट्र के आंतरिक मामलों में मित्र-राष्ट्रों को हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त है।
कैसलरे तथा फ्रांस के सम्राट लुई 18 वें नहीं इसका घोर विरोध किया। यद्यपि कैसलरे प्रतिक्रियावादी था परंतु वह जानता था कि उसका देश यह कभी भी स्वीकार नहीं करेगा।
(3) लाइबाँख की कांग्रेस (1821 ई०)
नेपिल्स तथा पीडमाण्ट में हुए विद्रोह के फल स्वरुप सन 1821 में लाइबाँख नामक स्थान पर मित्र राष्ट्रों का अधिवेशन बुलाया गया जिसमें नेपिल्स का फर्डिनेंड प्रथम भी आमंत्रित किया गया। इसमें नेपिल्स एक पिडमाण्ट के विद्रोह को दबाने का अधिकार ऑस्ट्रिया को दिया गया। इंग्लैंड ने विरोध किया, परंतु ऑस्ट्रिया ने अपनी सेना भेचकर इन विद्रोहों को दबा दिया। लेकिन इंग्लैंड ने पुन हो इसका विरोध किया। स्क्रू दमन का विरोध करते हुए ब्रिटिश विदेश मंत्री कैसलरे ने कहा, “वियना कांग्रेस द्वारा स्थापित व्यवस्था की रक्षा के लिए इंग्लैंड वचनबद्ध है। यदि कोई सबल राष्ट्र किसी निर्भर राष्ट्र पर विजय की दृष्टि से आक्रमण करेगा तो इंग्लैंड तत्काल हस्तमैथुन करेगा किंतु किसी देश के आंतरिक मामलों से उसे कोई सरोकार नहीं होगा।”
(4) वेरोना की कांग्रेस (1822 ई०)
1821 ई० मैं यूनानी जनता ने तुर्की के सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया। रूस का जार इसमें हस्तक्षेप करना चाहता था। यद्यपि इंग्लैंड यूनान की स्वतंत्रता संग्राम के प्रति सहानुभूति रखता था लेकिन वह यह नहीं चाहता था कि रूसियों के हस्तक्षेप से यूनान को स्वतंत्रता प्राप्त हो क्योंकि इससे बाल्कन प्रदेशों में रूस का प्रभाव बढ़ जाता और यह इंग्लैंड के हितों के लिए हानिकारक था। दूसरी और मैटरनिख को यह भाई था कि यदि रूस द्वारा ग्रीक को स्वतंत्रता दिलाई जाएगी तो बालकान प्रायदीप में रूस का प्रभाव बढ़ जाएगा। इस प्रकार से कैसलरे तथा मेटरनिख दोनों ने ही रूस द्वारा ग्रीक-स्वतंत्रता में सहयोग का विरोध किया।
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(5) स्पेन द्वारा बुलाई गई कांग्रेस का अधिवेशन (1823 ई०)
मेक्सिको, पीरु तथा चिली में क्रांति हो गई। यह प्रदेश दक्षिण अमेरिका में स्पेन के उपनिवेश थे। स्पेन ने इन विद्रोह का दमन करने के लिए 1823 में मित्र राष्ट्रों का अधिवेशन बुलाया। इंग्लैंड ने इस सम्मेलन का विरोध किया तथा इसमें भाग नहीं लिया। इस कारण एवं सम्मेलन भी असफल हो गया।
(6) सेण्ट पीटर्सबर्ग का अधिवेशन (1825 ई०)
रूस के जार अलैक्जेण्डर ने 1825 ई० में पूर्वी समस्या हल करने के लिए बेस्ट पीटर्सबर्ग में मित्र-राष्ट्रों का सम्मेलन बुलाया। इंग्लैंड ने इसका विरोध किया था इस सम्मेलन में अपना कोई प्रतिनिधि नहीं भेजा। इस कारण यह अधिवेशन भी सफल हो गया और इसी के साथ सफल हो गया अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सहयोग का पहला प्रयास।
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