प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (First Anglo-Sikh War) से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे जैसे-
1. प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (First Anglo-Sikh War) क्या है?
2. प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के कारण
3. प्रथम आंग्ल सिख युद्ध की घटनाएं
4. प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के परिणाम
5. अंग्रेजन तथा सिखों के बीच लड़ाई के प्रथम सिक्ख युद्ध के बारे में
6. लॉर्ड हार्डिंग तथा सिखों के पारस्परिक संबंधों की विवेचना कीजिए।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (First Anglo-Sikh War)
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के अल्पकाल बाद ही सन 1845-46 में अंग्रेजों तथा सिक्खों के मध्य प्रथम युद्ध लड़ा गया इस समय लॉर्ड हार्डिंग प्रथम भारत में गवर्नर जनरल था। अगर आपको किसी भी युद्ध के बारे में अच्छे से जानना है तो उसकी घटनाक्रम को ध्यान से पढ़ें।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के कारण
(1) रणजीत सिंह के जीवन काल में ही सिक्खों तथा अंग्रेजों के बीच तनाव की उत्पत्ति
सन 1809 की अमृतसर संधि के अनुसार अंग्रेजों प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के परिणाम ने सतलज नदी के पार रणजीत सिंह के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। सिंह के संबंध में भी अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं होने दिया था। इतना ही नहीं रणजीत सिंह को त्रिपक्षीय संधि में सम्मिलित होने के लिए बाध्य किया गया। स्पष्ट है कि रंजीत सिंह के जीवन काल में ही अंग्रेजों तथा सिक्खों के मध्य कटुता में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी।
(2) पंजाब में अराजकता तथा सिक्ख सेना की शक्ति में वृद्धि
सन 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु के साथ ही पंजाब में चारों ओर अराजकता का राज्य हो गया तथा निकट संबंधियों की हत्या कर दी गई। अब सिक्ख सेना का ही बोलबाला था तथा लाहौर दरबार उस पर नियंत्रण रखने में असमर्थ था। सेना के सर्व सर्वा होते हुए किसी का भी जीवन सुरक्षित नहीं था। सभी प्रभावशाली सरदार तथा दरबारी सिक्ख सेना से अत्यंत भयभीत थे। उनकी सुरक्षा इसी में थी कि किसी प्रकार सिक्ख सेना का अंग्रेज सेना से सामना कराकर उसकी शक्ति कम कर दें अन्यथा उनकी मौत अवश्य संभावित थी।
(3) अंग्रेजों की सैनिक गतिविधि
अंग्रेजों के लिए अब उचित अवसर था। उन्होंने पंजाब में व्याप्त अराजकता का लाभ उठाने के उद्देश्य बड़े पैमाने पर सैनिक तैयारीयां आरंभ कर दी तथा अपनी सेनन को सतलज नदी के निकटवर्ती प्रदेशों में एकत्र करना आरंभ कर दिया।
(4) सिंध का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय
सन् 1843 में अंग्रेजों ने सिंध प्रदेश का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया। इस घटना से अंग्रेजों की साम्राज्यवादी विचारधारा पूर्ण रूप से स्पष्ट हो गई। अतः सिक्ख अंग्रेजन की साम्राज्यवादी भावना से और भी अधिक सावधान हो गए तथा उन्हें अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए बाध्य कर दिया।
(5) मेजर ब्राडफुट का उत्तेजना भरे कार्य
अंग्रेजों ने मिस्टर क्लर्क के स्थान पर मेजर ब्राड फुट को लुधियाना में ब्रिटिश रेजिडेंट नियुक्ति किया। मेजर ब्राड फुट एक अत्यंत जिद्दी तथा क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति था। अपने पद का उत्तरदायित्व संभालते ही उसने घोषित किया कि सतलज नदी के दक्षिण में स्थित महाराजा दिलीप सिंह के सभी प्रदेश भविष्य में अंग्रेजों के अधिकार में समझ जाएंगे। इस घोषणा से सिक्ख सरदारों के क्रोध की खोज सीमा ही ना रह गई और उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि अंग्रेजो के साथ युद्ध अनिवार्य हो गया है।
(6) तात्कालिक कारण
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध के तात्कालिक कारण भी थे, सिक्खों द्वारा सतलज नदी को पार करना- 1 दिसंबर, 1846 ई० में सिक्ख सैनिकों ने सतलज नदी को पार करना आरंभ कर दिया। अंग्रेज तो अवसर की प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि सिक्ख पहल करें। गवर्नर जनरल लॉर्ड होर्डिंग ने जैसे ही हो सुना कि सिक्ख सेना ने सतलज नदी को पार करना प्रारंभ कर दिया है तो उसने भी 13 दिसंबर 1845 को सिक्खों के विरुद्ध विधिवत रूप से युद्ध की घोषणा कर दी।
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध की घटनाएं
अंग्रेजों तथा सिक्खों के मध्य लड़ा जाने वाला प्रथम मंगल सिख युद्ध 13 दिसंबर, 1845 को प्रारंभ हुआ और निरंतर 3 मास तक चलता रहा। 9 मार्च, 1846 को लाहौर की संधि के साथ यह समाप्त हुआ। इस युद्ध की घटनाक्रम कुछ इस प्रकार थी—
(1) मुद्की का युद्ध (18 दिसंबर,1845)
सतलज नदी को पार करने के उपरांत सिक्ख सेना फिरोजपुर की ओर बड़ी। इस सेवा का नेतृत्व लाल सिंह कर रहा था। उधर सर ह्यूगफ के सेनापति तू में ब्रिटिश सीन फिरोजपुर की रक्षा के लिए लुधियाना से चल पड़ी। फिरोजपुर से लगभग 20 मील दूर मुद्की नामक स्थान पर दोनों सेनाओ का सामना हुआ। इस समय सिक्ख सेना की संख्या 40000 थी, जबकि अंग्रेजी सेना की संख्या 11000 थी। सिक्ख सेना अत्यंत वीरता से लड़ रही थी। तथा जिस समय सिक्ख सेना विजई प्राप्त होने वाली ही थी कि उसके सेनापति लाल सिंह ने विश्वास घात किया और इस संकट के समय अपनी सेना को अकेला छोड़कर युद्ध क्षेत्र से भाग गया। इसका परिणाम यह हुआ विजय पराजय में परिवर्तित हो गई तथा सिक्खों को युद्ध से पीछे हटना पड़ा। निसंदेह इस युद्ध में अंग्रेज विजय हो गए परंतु उन्हें इसका बहुत अधिक मूल्य झुकना पड़ा। इस युद्ध में लगभग 117 अंग्रेजी सैनिक मारे गए तथा 657 सैनिक लगभग घायल हुए। सिक्खों को भी पर्याप्त हानि उठानी पड़ी।
(2) फिरोजशाह का युद्ध (21 दिसंबर, 1845)
अंग्रेजी सेनाएं मुल्की के युद्ध के उपरांत सतलज से लगभग 12 मील दूर स्थित फिरोजशाह की ओर अग्रसर हुई। इसी स्थान पर अंग्रेजी सेना की एक और टुकड़ी सर जॉन लिटिल के नेतृत्व में ह्यूगफ की सेना में आ मिली। अंग्रेजी तथा सिक्ख सेनाएंओं में फिरोजशाह के स्थान पर बहुत भीषण युद्ध हुआ। सिक्खों ने पूर्ण उत्साह के साथ शत्रु का सामना किया। अंग्रेज बड़ी विषम परिस्थिति में थे। अंग्रेज सेनापति सर ह्यूगफ अपने स्वयं स्वीकार किया है - “उसे भयानक रात्रि में हम अत्यंत भीषण तथा संकट की स्थिति में थे।”
(3) बुड़ढेवाल तथा अलीवाल के युद्ध (21 से 28 फरवरी, 1846)
इससे पूर्व अंग्रेज संभाल पाते, रंणजोड़ सिंह मजीठिया के सेनापति के नेतृत्व में सिक्ख सेना ने 21 जनवरी, 1846 को सतलज नदी पार करके लुधियाना की अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया। बुड़ढेवाल के युद्ध में अंग्रेजों की पराजय हुई, परंतु अंग्रेजों को शीघ्र सहायता प्राप्त हो गई और उन्होंने आगे बढ़कर 28 जनवरी, 1846 को अलीबाल के स्थान पर सिक्खों पर विजय प्राप्त की। सिक्खों में सतलज नदी पार करके अपने जीवन की रक्षा की परंतु उनमें से अनेक नदी की भेट चढ़ गए यानी मर गए।
(4) सबराओं का युद्ध
10 फरवरी,1846 को संस्थाओं के स्थान पर अंग्रेजों तथा सिक्खों के मध्य अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा गया। सिक्खों ने अत्यंत दृढ़ता से अंग्रेजों का सामना किया और कुछ समय तक के लिए अंग्रेजों को बहुत परेशान किया। मिस्टर व्हीलर का इस युद्ध के संबंध में यह कथन है- “ब्रिटिश कालीन भारत के इतिहास में लड़े जाने वाले युद्ध में सबसे भीषण युद्ध था। परंतु जहां सिक्ख सेना अपने सम्मान की रक्षा के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने को तत्पर था पर वहां का शासक श्याम सिंह अटारीवाला के अतिरिक्त अन्य सभी सिक्ख सेनानायक विश्वास घात पर उतर आए।”
इन परिस्थितियों में सिक्खों को अपार हानि हुई तथा उनमें से लगभग 10000 सैनिक मारे गए। इस युद्ध में सेनापति शाम सिंह अटारीवाला भी वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में लगभग 320 अंग्रेज मारे गए तथा लगभग 2000 घायल हुए। सरबाओं का युद्ध निर्णायक युद्ध था। इसकी युद्ध विजय के उपरांत ब्रिटिश सी ने विशाल संख्या में सतलज नदी को पार किया था तथा 20 फरवरी 1846 को उसने लाहौर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के परिणाम
जब सिक्ख पूर्ण रूप से पराजित हो चुके थे, इस कारण अनेक व्यक्तियों ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग को पंजाब को पूर्ण रूप से अंग्रेजी साम्राज्य में विलय करने का परामर्श दिया, परंतु हार्डिंग ने अनेक कर्म से उनके इस परामर्श को और स्वीकार कर दिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय नहीं किया, उन्होंने सिक्खों से मार्च 1846 में लाहौर की संधि कर ली। कुछ समय उपरांत अनेक परिस्थितियों के कारण लाहौर की संधि में परिवर्तन करने की आवश्यकता हो गई, इसी कारण दिसंबर, 1846 में सिक्खों से भैरोवाल की संधि की गई।
(1) लाहौर की संधि (9 मार्च,1846)
इस संधि की प्रमुख धाराएं कुछ इस प्रकार थी —
- महाराजा दिलीप सिंह ने सतलज नदी के दक्षिण में स्थित अपने सभी प्रदेशों पर अपना अधिकार छोड़ने के साथ ही आश्वासन दिया कि वह भविष्य में इन प्रदेशों से किसी प्रकार का संबंध नहीं रखेगा।
- महाराज ने स्वीकार किया कि अपनी विद्रोही सेना को भंग कर देगा तथा उसे शस्त्र भी वापस ले लेगा।
- महाराज ने व्यास तथा सतलज नदियों के बीच दोआबा के सभी प्रदेश तथा दुर्ग भी अंग्रेजों को सौंप दिए गए।
- दिलीप सिंह को पंजाब का महाराजा स्वीकार किया गया। उसकी माता रानी जिंदा को उसकी संरक्षिका तथा सरदार लाल सिंह को उसका प्रधानमंत्री नियुक्ति किया गया।
- ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने आश्वासन दिया कि वह लाहौर सरकार के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
- सर हेनरी लॉरेंस को लाहौर दरबार में ब्रिटिश रेजिडेंट नियुक्त किया गया।
- महाराज की रक्षा के लिए सन 1846 तक लाहौर में एक ब्रिटिश सेना भी रखी गई।
(2) भैरोवाल की संधि (16 दिसंबर, 1846)
- लाहौर की संधि में निश्चय किया गया था कि अंग्रेजी सेना दिसंबर 1846 के अंत तक पंजाब से चली जाएगी, परंतु पंजाब की अराजकता पूर्ण स्थिति को देखकर तथा सिक्ख सेना से अत्यंत भयभीत होने के कारण अनेक सिक्ख सरदार नहीं चाहते थे की अंग्रेजी सेना पंजाब से जाए। इसी कारण 16 दिसंबर, 1846 को अंग्रेजों तथा सिक्खों के मध्य ‘भैरोवाल की संधि’ हुई, जिसमें लाहौर की संधि की अनेक शब्दों में संशोधन किया गया—
- लाहौर में शांति तथा व्यवस्था बनाएं रखने के उद्देश्य से वहां पर स्थाई रूप से एक अंग्रेजी सेना निश्चित की गई। लाहौर सरकार को इस सेना के व्यय के लिए 22 लाख रुपया वार्षिक देना होता था।
- अब लाहौर की प्रशासनिक व्यवस्था का उत्तरदायित्व 8 सदस्यों की एक समिति को सोपा गया। यह सभी आठ सदस्य अंग्रेजी समर्थक थे। इस समिति को महाराजा दिलीप सिंह के अल्पवयस्क रहने तक कार्य संभालना था। इस समिति को लाहौर स्थित ब्रिटिश रेजिडेंट के निर्देशों के अनुसार कार्य करना था।
- यह निश्चित किया गया कि दिलीप सिंह के 4 सितंबर 1854 को वयस्क होने तक यह व्यवस्था चलती रहेगी।
निष्कर्ष (conclusion)
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध किसके बीच लड़ा गया था?
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध पंजाब के सिक्खों तथा अंग्रेजों के बीच लड़ा गया था।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध किस संधि के तहत समाप्त हुआ?
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध भैरोवाल की संधि (16 दिसंबर, 1846) या लाहौर की संधि के तहत समाप्त हुआ।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध क्या है?
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध - प्रथम आंग्ल सिख युद्ध सन् 1845 में लड़ा गया था। इस युद्ध के कारण ब्रिटिश भारत कंपनी और सिख साम्राज्य के बीच उत्तर भारत में एक सीमा विवाद उत्पन्न हुआ था।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के कारण?
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के कारण - (1) रणजीत सिंह के जीवन काल में ही सिक्खों तथा अंग्रेजों के बीच तनाव की उत्पत्ति (2) पंजाब में अराजकता तथा सिक्ख सेना की शक्ति में वृद्धि (3) अंग्रेजों की सैनिक गतिविधि (4) सिंध का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय (5) मेजर ब्राडफुट का उत्तेजना भरे कार्य (6) तात्कालिक कारण।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के परिणाम?
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के परिणाम - (1) लाहौर की संधि (9 मार्च,1846) (2) भैरोवाल की संधि (16 दिसंबर, 1846)
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में सिखों में गद्दार कौन थे?
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में सिखों में गद्दार - सेनापति लाल सिंह तथा तेज सिंह।
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध कब हुआ था?
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध सन् 1845 में लड़ा गया था।
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध के समय गवर्नर जनरल कौन था?
प्रथम आंग्ल सिख युद्ध के समय गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग था।
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