1917 की रूसी क्रांति
Russian Revolution of 1917
रूस की क्रांति के पूर्व रूस का जार पूर्णतया स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश था। 20वीं शताब्दी में इस प्रकार का शासन अधिक काल तक स्थाई नहीं रह सकता था, क्योंकि युग की पुकार की अवहेलना की जानी संभव नहीं थी। धीरे-धीरे रूस की जनता को अपनी दयनीय दशा का ज्ञान हुआ और उसके ऊपर पाश्चात्य प्रगतिशील साहित्य का प्रभाव पड़ा, जिसने साधारण जनता को अचेतन अवस्था में लाने का प्रयत्न किया। क्रांतिकारियों ने शासन का अंत करने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु बोल्वेशिक क्रांति से पूर्व उनका विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। जार की सरकार ने उसका कठोरता पूर्वक दमन किया। बहुतों को कारागार में डाल दिया गया, साइबेरिया भेज दिया गया अथवा रूस से निष्कासित कर दिया गया। अंत में क्रांतिकारियों को सफलता प्राप्त हुई क्योंकि क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी, जिसका श्रेय जर्मनी को प्राप्त है, जिसने पूर्वी मोर्चा पर रूस को बुरी तरह परास्त कर जनता के हृदय में यह भावना उत्पन्न कर दी कि जार की कोई विशेष शक्ति नहीं है और उसका देश शीघ्र परिवर्तन करवाना चाहता था।
1917 की रूसी क्रांति के कारण
(1) व्यावसायिक क्रांति और उसके परिणाम
अन्य देशों के समान रूस में भी व्यावसायिक क्रांति हुई, यद्यपि यहां पर क्रांति अन्य देशों की अपेक्षा काफी समय के उपरांत हुई। इसके होने पर रूस में बहुत से कल और कारखानों की स्थापना हो गई थी। इस प्रकार रूस का औद्योगिकरण होना आरंभ हुआ। इसमें काम करने के कारण लाखों की संख्या में मजदूर देहातों और गांव का परित्याग कर उन नगरों तथा शहरों में निवास करने लगे, जिनमें कल कारखानों की स्थापना हुई थी। नगरों और शहरों में निवास करने के कारण अब ये पहले के समान सीधे-साधे नहीं रह गए थे। नगरों में रहने से उनमें न केवल चलता –पूरजापन ही आ गया था, अभी तो यह राजनीतिक मामलों में भी रुचि लेने लगे थे। इनको अपने राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों का भी ध्यान हुआ। इन्होंने अपने क्लबों का निर्माण किया, जहां यह सब प्रकार के मामलों पर विचार करते थे और आपस में वाद विवाद करते थे। इनको यहां रहकर नवीन विचारधाराओं तथा प्रवृत्तियों का भी ज्ञान हुआ। इन्होंने श्रमिक संगठनों की स्थापना भी करनी आरंभ कर दी। कार्ल मार्क्स ने जर्मनी में साम्यवाद की जिस नई लहर का आरंभ किया था यह लोग उसकी चर्चा भी सुनते थे और उसके ऊपर विचार विनिमय करते थे। धीरे-धीरे इनको साम्यवाद के सिद्धांत प्रभावित करने लगे और उनको यह विचार बहुत ही उत्तम प्रतीत होने लगा की समस्त कल और कारखानों पर उनका अधिकार होना चाहिए।
(2) सन 1905 ई की क्रांति
पाठकों को स्मरण होगा कि रूस में 1905 ईस्वी में एक क्रांति हुई थी, जिसके द्वारा रूस में वैधानिक राजतंत्र की स्थापना करने का प्रयास किया गया, किंतु पारस्परिक झगड़ों के कारण यह क्रांति सफल नहीं हो सकी और शासन पर पुनः जार का आधिपत्य स्थापित हो गया। इस क्रांति का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि उसने रूस की साधारण जनता को राजनीतिक अधिकारों का परिचय करा दिया था। उसको क्या हो गया कि वोट का क्या अर्थ है? ड्यूमा या दूसरे शब्दों में पार्लियामेंट के सदस्यों का निर्वाचन किस प्रकार किया जाना चाहिए? सरकार को लोकमत के अनुसार अपनी नीति का निर्धारिण कर जनहित के कार्यों को करने के लिए अग्रसर होना चाहिए। अपनी राजनीतिक अधिकारों से परिचित हो जाने के कारण रूस की जनता समझ गई कि रूस में भी पूर्णतया लोकतंत्र शासन की स्थापना होनी चाहिए यहां जनसाधारण के हाथ में शासन सत्ता हो।
(3) पश्चिमी यूरोप का प्रभाव
पश्चिमी यूरोप के लोकतंत्री राज्यों का प्रभाव भी उसे पर पड़ा, यद्यपि रूस के सम्राटों ने पाश्चात्य प्रगतिशील विचारों का रूस में प्रचार रोकने के लिए विशेष रूप से प्रयत्न किया, किंतु विचारों का रोकना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि विचार हवा के समान होते हैं। महायुद्ध के समय में जर्मनी और उसके साथियों के विरुद्ध जो प्रचार कार्य मित्र राष्ट्रों की ओर से किया जा रहा था उसमें मुख्यतः यही कहा जाता था कि वे लोकतंत्र शासन, जनता की स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता के आधार पर नवीन राष्ट्रो का निर्माण करने की अभिप्राय से युद्ध कर रहे हैं। रूस मित्र राष्ट्र के अंतर्गत था। वहां जनता पर भी इस प्रकार का बहुत असर पड़ा।
(4) रूस की मध्य श्रेणी के व्यक्तियों के विचारों में परिवर्तन
रूस की मध्य श्रेणी के व्यक्तियों में शिक्षा का प्रचार हो गया था। जिस प्रकार फ्रांस की क्रांति का श्री फ्रांस के दार्शनिक तथा शिक्षित वर्ग आदि को प्राप्त है इस प्रकार रूस में भी क्रांति का वेग इसी श्रेणी के लोगों ने तीव्र किया। वे लोग नई-नई पुस्तकों का अध्ययन करते थे। पश्चिमी यूरोप के विचारों की लिखी हुई पुस्तकें रूसी भाषा में अनुवादित हुई थी। अनेक एशियन लेखकों ने अपने ग्रन्थों द्वारा तथा प्रगतिशील विचारों का प्रतिपादन किया। शिक्षित वर्ग पर उन नए विचारों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा, विशेषतः नवयुवक विद्यार्थी नए विचारों का अध्ययन कर यह भली-भांति समझने लगे थे कि उनका देश उन्नति की दौड़ में बहुत पिछड़ा हुआ है जिसका प्रमुख कारण निरंकुशता है। उनके हृदय में यह भावना उत्पन्न हुई कि उनका कर्तव्य है कि वह अपने देश को उन्नत करने के लिए घौर प्रयत्न करें। बहुत से संपन्न लोग फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका आदि देशों की यात्रा भी कर चुके थे। उनको अपने देश और इन देशों में बहुत अंतर दिखलाई देता था। उनमें यह भावना तीव्रता से विद्यमान थी कि उनका अपना देश इन देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़ा हुआ है और उनको उन्नति के मार्ग पर ले जाना उनके परम कर्तव्य है।
(5) महायुद्ध का प्रभाव
महायुद्ध में रूस मित्र राष्ट्रों की ओर से सम्मिलित हुआ। उनकी विशाल सेना ने युद्ध के आरंभ में बड़ी संता तथा योग्यता का प्रदर्शन किया, परंतु दो वर्ष तक निरंतर युद्ध करते हुए उसने शिथिलता के चिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे। रूस की सेवा बहादुर अवश्य थी, किंतु उसमें देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावनाएं विद्यमान नहीं थी जो अपूर्व त्याग और मर मिटने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है। रूस की सेनाएं संख्या की पूर्ति के लिए भरती की गई थी। उन में वीर सैनिकों की परंपरा अवश्य थी, पर उनके सम्मुख कोई आदर्श विशेष नहीं था। यही दशा रूस की नौकरशाही की थी। रूस के कर्मचारी यह नहीं समझते थे कि वे देश की उन्नति और राष्ट्र सेवा के लिए नियुक्त किए गए हैं। उनके आदर्श था सम्राट को प्रसन्न कर उच्च पदों पर आसीन होना। जब महायुद्ध लंबा होता गया और दो वर्ष की लड़ाई के उपरांत भी विजय के चिह्न प्रकट नहीं हुई तो रूस की सेना और नौकरशाही घबरा उठी। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि रूप में पहले से ही अपनी चरम सीमा को प्राप्त कर चुका था। अब रूस में यह स्थिति उत्पन्न हो गई की सर्वत्र असंतोष और अशांति फूटने लगी। सरकार के लिए स्थिति पर काबू रख सकना कठिन हो गया। इसी समय सर्वत्र अनाज, ईंधन और कपड़े की कमी होने लगी। कीमतें ऊंची हो गई। गरीब लोगों के लिए गुजारा करना असम्भव हो गया। लोग समझते थे कि रूस में समस्त वस्तुएं प्रचुर मात्रा में विद्यमान है, पर स्वार्थी पूंजीपतियों ने उनको अपने अधिकार एवं नियंत्रण में कर लिया है, ताकि बाजार में मन न होने से कीमत ऊंची उठती चली जाए। अधिक बड़े हुए मूल्य पर बेचकर व्यापारी लोग अत्यधिक धन कमाने में सफल हो सके। सरकार इस दशा को संभालने में सर्वथा असमर्थ रही। ऐसा प्रतीत होने लगा कि सारे देश को घर दुर्भिक्ष व्याप्त कर लेगा, पर सरकारी कर्मचारी इस स्थिति से पूर्णतया उदासीन रहे। उन्होंने इस स्थिति को उन्नत करने की और तनिक भी प्रयास नहीं किया। इसे जनता की यह धारणा हो गई की सरकार स्वयं अमीरों तथा पूंजी पतियों की मुनाफखोरी की नीति में सम्मिलित है। उनमें सरकार के विरुद्ध असंतोष की मात्रा में और भी अधिक वृद्धि होनी आरंभ हुई।
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